कभी रोना कभी हँसना,
रूठना फिर मनाना,
सब बचपन में ही अच्छे लगते हैं।।
वो खिलौने का टूटकर बिखर जाना,
फिर माँ से छोटी -सी डांठ खाना,
सब बचपन में ही अच्छे लगते हैं।।
पापा की गाड़ी में वो बैठने की ज़िद,
फ़िर अपनी तारीफ सुनाने की जिद,
सब बचपन में ही अच्छे लगते हैं।
दादा की छड़ी को छुपाने की कला,
दादी से कैसे दूर रह सकते भला,
चोरी से जाकर मिश्री का चुराना,
सखियों को जाकर के सब हाल बताना,
सब बचपन मे ही अच्छे लगते हैं।
सब कुछ बदल गया, बदल गया ज़माना,
वो बचपन की यादें, कभी न भुलाना,
जिंदगी के पड़ाव में कितने आगे निकल गए हम,
माँ, बाप, दादा, दादी, भाई, बहिन, सब भूल गए हम।।
*अनिता पन्त*
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