साहित्य चक्र

08 July 2022

मानव जीवन और साहित्य पर शोध आलेख पढ़िये

साहित्य व समाज में मानव जीवन

लेखक- डॉ. रीतेष झारिया, सहायक प्राध्यापक


 

        साहित्यकार अपने साहित्य का निर्माण समाज में रहकर समाज में रहने वाले मनुष्य के लिये करता है। साहित्यकार अपने आपको समाज से अलग नही कर सकता है। क्योंकि वह भी समाज का एक अंग है, और समाज के प्रत्येक क्रिया-कलाप और प्रत्येक गतिविधि से प्रभावित हुये बिना नही रह सकता। समाज में रहकर वह जो देखता है तथा जो अनुभव करता है, उसे वह साहित्य में अभिव्यक्त करता है। साहित्य समाज से सामग्री लेता है और समाज साहित्य से प्रेरणा ग्रहण करता है। दोनो का एक-दूसरे से अनन्य संबंध है और दोनो एक-दूसरे के पूरक है। इस प्रकार साहित्य व समाज तथा मानव जीवन सभी एक-दूसरे से जुड़े हुये है।


        समाज का अस्तित्व तभी कायम होता है जब इसके सदस्य परस्पर एक-दूसरे को भली प्रकार जानते हो क्योंकि एक ही स्थान पर एक ही समय में एक साथ होना समाज का निर्माण नही करता परंतु ज्यों ही वे एक-दूसरे को जान जाते है, उनके बीच समाज तत्व का निर्माण हो जाता है। परंतु समाज की परिभाषा को पारस्परिक जागरूकता के तत्व से बॉंधने का कार्य साहित्यकार द्वारा साहित्य के माध्यम से किया जाता है। विष्वनाथ तिवारी के षब्दों में ”साहित्य हमें जिंदगी में षरीक करता है“, तैयार करता है कि हम उस जमीन पर खड़ी हो सके जहॉ कई बार ठहर चुके है। इस प्रकार साहित्य का समाज पर और समाज का साहित्य पर गहरा प्रभाव है। दोनों एक दूसरे के लिये बराबर महत्व रखते है। क्योंकि समाज की अभिव्यक्ति ही तो साहित्य है। अतः मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और मानव मन की भावनाओं का सृजन करने वाला साहितय संवेदनषील होता है। इसीलिये साहित्य में समाज का दर्पण, विद्रोह, पलायन, अर्न्तद्वन्द, संघर्ष, समीक्षा निरपेक्ष जीवन की अभिव्यक्ति हुई है। इसीलिये कवि केदारनाथ अग्रवाल संकल्पित होकर कहते है कि-


“जिऊॅंगा

लिखूॅंगा

कि मैं आदमी को

सृजन के रथो और युग के रथो का

सुखों का महासारथी मानता हूं।”

इसी तरह कवि मैथलीषरण गुप्त साहित्य और साहित्यकार की उपादेयता के संदर्भ में लिखते है कि-

 “केवल मनोरंजन न कवि का कर्म होना चाहिये।

 इसमें उचित उपदेष का भी मर्म होना चाहिये।।


        इन दृष्ट्रांतो से यह स्पष्ट होता है कि साहित्यकार की दृष्टि केवल मनोरंजन पर ही नही वरन् उन कारणो तक अपना विस्तार करती है जो सामाजिक विसंगति और जन-जीवन के दुर्गति के लिये उत्तरदायी है। साहित्यकार अपने साहित्य में समस्त दलित और षोषित  वर्ग का संगठन कर एक ऐसी सामूहिक और सामाजिक क्रांति का सूत्रपात करता है जो मानव जीवन और समाज के प्रत्येक स्तर का स्पर्ष करती हुई सब में आमूल परिवर्तन करके तथा जिसकी ज्वाला में अनाचार, पापाचार, षोषण, सड़ी-गली मान्यताये, रूढ़ियॉ और विषमताये सभी भस्म हो जाये। वह साहित्य के वस्तुओं की तथा षक्तियों की प्रषस्ति करता है, जो क्रांतिदर्षी है। वह देष की तरू नाई का स्वागत करता है। समाज की अनुयाई करने के लिये उत्साहित्य करता है। अन्याय तथा षोषण के खिलाफ आवाज किसी के लिये ही भर नही वरन् क्रांति से विजय पाने की अमिट अभिलाषा के साथ देष के नौजवानों को उत्प्रेरित भी करता है। साथ ही साहित्यकार साहित्य में समाज के ऐसे व्यक्ति की परिकल्पना करता दिखाई पड़ता है, जो सामाजिक उत्पीड़न को झेलकर, अपने श्रम और षक्ति से गरीबों को छत्र-छाया प्रदान कर सके।

उदा. देखिये कवि केदारनाथ अग्रवाल ने व्यक्ति के जिस रूप को भावग्राही बनाया है। वह रूप उन्हीं की रचना में इस तरह साकार हुआ है-

                “जो जीवन की धूल चाटकर बड़ा हुआ है”

                तूफानो से लड़ा और फिर खड़ा हुआ है।

                जिसने सोने को खोदा, लोहा मोड़ा है।

                जो रवि के रथ का घोड़ा है।”

निष्चित रूप से कवि केदार नाथ अग्रवाल ने अटूट पराक्रमी, अदम्य साहसी, वर्ग विहीन, क्रांतिकारी परिवर्तन प्रिय, ईमानदारी अन्याय उन्मूलक तथा युग दृष्टि एवं युग सृष्टि की भावनाओं के साथ व्यक्ति की परिकल्पना को स्थापित किया है। इस तरह साहित्य व समाज में मानव जीवन को उल्लेखित किया है। और मानव को मार्ग प्रषस्त किया है।


         साहित्य व समाज सक्रिय रूप से मानव जीवन के साथ जुड़ा हुआ है। तभी तो साहित्यकार उत्पीड़न और षोषण की स्थिति को बदलकर न्याय एवं क्षमता पर आधारित समाज की रचना करने वाले श्रमिक जनता से अपना नाता जोड़ते हैं वे मानव जीवन के साथ तादाम्य स्थापित करते है। उनका तादाम्य आरोपित तथा कल्पित नही है। क्योंकि साहित्य में पक्षघरता की आवाज वजनदार है। षोषित वर्ग में किसान, खेतिहर, श्रमिक, षिक्षक आदि मानव जीवन के रचनात्मकता के बुनियादी पत्थर है। वास्तव में समाज का सारा ढ़ॉंचा मेहनत कसो की हड्डियों पर खड़ा है और इन्ही के प्रति साहित्य में रचनात्मक भावो की प्रतिबद्धता है। अपनी प्रतिबद्धता को साहित्यकार अपने व्यक्तित्व और रचनाधर्मिता द्वारा साहित्य और समाज के विस्तृत फलक को उद्घाटित करता है और मानव जीवन के रहस्य को उद्घाटित करता है। बाबा नागार्जुन कहते है कि “ मैं राग, द्वेष, क्रोध, घृणा, हर्ष, कषोक, उमंग, निष्चय-अनिष्चय, रूप-रस-गंथ-स्पर्ष-कषब्द-गति, अगति- प्रगति-दुर्गति, यष-कलंक सबसे सम्बद्ध है। “ यह औपचारिक बयान बाजी नही, उनके व्यक्तित्व और सृजन का निकटतम सत्य भी है। साहित्यकार नागार्जुन की यह प्रतिबद्धता लोक, समय और मानवीय कर्तव्य से सीधे जुड़ी है। अतः अकाल और सके बाद जैसी रचना लिखना उन्ही के बस की बात थी। देखिये-


                “कई दिनों तक चूल्हा रोया चक्की रही उदास,

                कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उसके पास।

                कई दिनों तक लगी मीत पर, छिपकलियों की गस्त,

                कई दिनों तक चूहों की भी, हालत रही षिकस्त।”


वास्तव में मानव जीवन की विभीषिका से उपजने वाली व्यापक करूणा को षब्दबद्ध करने की अद्वितीय क्षमता साहित्यकार के साहित्य में ही वर्णित हो सकती है। मानवीय संवेदना की सबसे बड़ी कसौटी दमित, षोषित और असहाय वर्ग है, जो मूक है, मजबूर है, सर्वग्राही संकट की इतनी सूक्ष्म अभिव्यक्ति तथा उनके जीवन का सुंदर आकलन करपाना केवल साहित्यकार द्वारा ही संभव है।

        साहित्य में बहुजन हिताए और बहुजन सुखा’ का भाव निहित होता है, क्योंकि इसमें समाज की मंगल कामना की चाहत अभिव्यक्त होती है। साहित्य में समाज के मानवीय भावों, विचारो एवं कलाओं को महत्व दिया गया है। अतः संक्षेप में हम कह सकते है कि आज हमारे समाज में साहित्य षब्द एक व्यापक अर्थ लिये हुये है और साहित्य षब्द की व्याप्ति मानव जीवन के साथ जुड़ी है। पाष्चात्य विद्वान मैथ्यू अर्नाल्ड कहते है कि- “ कविता जीवन की व्याख्या करती है। अतः साहित्य जीवन की व्याख्या है।

निष्कर्ष :- इस प्रकार साहित्य का मूल उद्देष्य समाज में रहने वाले मानव जीवन पर प्रकाष डालना है साहित्य में मानवीय जीवन के विभिन्न संदर्भो का महत्व दिया जाता है। वह साहित्य अर्थहीन होता है जिसमें मनुष्यता की अभिव्यक्ति नही होती। जो साहित्य सभी समाज और पूरे विष्व में आत्मीयता और भाईचारे का संचार करता है उसी साहित्य की कीर्ति युगो-युगों तक गूॅंजती है और मानव जीवन सदैव उसका आभारी रहता है सरस्वती की कृपा सदैव उस पर बनी रहती है क्योंकि सच्चा साहित्य सदैव समाज को सन्मार्ग की ओर लेकर चलता है-


                चलो अभीष्ट मार्ग में सहर्ष खेलते हुये,

                विपत्ति विघ्न जो पड़े, उन्हें ढकलते हुये।

                घटे न हेलमेल हो, बढ़ेन भिन्नता कमी,

                अतर्क एक पंथ के सतर्क पंथ हो सभी।

तभी समर्थ भाव है कि तारता हुआ तेर

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिये मरे।।”


        अर्थात् साहित्य का लक्ष्य समाज में रहने वाले मानवीय जीवन को हॅसते हुये और रास्ते की बाधाओं को हटाते हुये अग्रसर होने का साहस प्रदान करना है। समाज में भाईचारे को बढ़ाना है। साहित्य सहोपकारिता और परोपकारिता का उपदेष देती हैं मानव जीवन को हर परिप्रेक्ष्य में एक-दूसरे को जोड़ती है। क्योंकि सभी मनुष्य एक दूसरे के भाई-बंधु है। और साहित्य में समाज का प्रतिबिंब होता है। इस सदंर्भ में डॉ. अरूण मिश्र लिखते है- “ जीवन की मूल प्रेरणायें ही साहित्य की मूल प्रेरक कषक्तियॉ है। जो वृत्तियॉ जीवन की और सब क्रियाओं की मूल स्त्रोत है, वही साहित्य को जन्म देती है।” निष्कर्षतः साहित्य का मूलाधार मानव जीवन है। साहित्य मनुष्य के सुख-दुख, आषा-आकांक्षाओं से जुड़ता है। क्योंकि साहित्य का सृष्टा समाज का एक व्यक्ति होता है। चाहे वह कवि हो या लेख हो। वह समाज में प्रचलित परंपराये, रूढ़ियॉं, आचार-विचार तथा व्यवहार से बॅधा होता है। अतः साहित्य का मानव जीवन से चिरंतन संबंध है। क्योंकि साहित्य का सृष्टा समाज में रहने वाला मनुष्य है और मनुष्य के लिये ही साहित्य की सृष्टि है।


संदर्भ ग्रंथ सूची-

फूल नही रंग बोलते है- केदारनाथ अग्रवाल पृ. 36

गुल मेंहदी - केदारनाथ अग्रवाल पृ. 131

नया सृजन नया बोध- डॉं. कृष्णदत्त पालीवाल पृ. 7-71

‘अकाल और उसके बाद’ कविता - नागार्जुन

साहित्य सिद्धांत और साहित्य स्वरूप-षेखर षर्मा पृ. 12

साहित्य सिद्धांत और अवधारणाये - डॉं. अरूण मिश्र पृ. 13

‘मनुष्यता’ कविता - मैथलीषरण गुप्त

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