साहित्य चक्र

24 June 2022

लघुकथा: बचपन के दिन


बहुत दिनों बाद मम्मी ने आलू के पराठे बनाए थे, मैं दिल्ली से गांव गया हुआ था। दीदियां भी ससुराल से मायके आई थी। हम सभी भाई-बहन धूप में बैठकर बातचीत कर रहे थे। तभी चाचा का छोटा लड़का आया और अपने स्कूल की कहानी बताने लगा। इतने में ताऊ जी ने दादा जी से ₹500 उधार मांगे, तभी दादाजी बोले कि पहले के पैसे वापस नहीं किए अब दुबारा मांगने लग गया है। ताऊ जी गुस्से से वापस चले गए। हम सभी बच्चे बातचीत कर रहे थे कि इतने में मम्मी एक थाली में आलू के 12-15 पराठे और दही लेकर आ गई। हम सभी उस थाली में ऐसे टूटे जैसे हमने पहले कभी पराठे खाए ही नहीं है। जिसने अपना पराठा जल्दी खा लिया वह दूसरे के हाथ से छीन कर खाने लग गया। फिर क्या हम बच्चों की आपस में लड़ाई होने लग गई। 





अंदर से पापा आए और पापा ने दे दना दन हम सभी बच्चों को एक-एक करके चप्पल से पीटना शुरू कर दिया। दीदियों को शादी का फायदा हुआ कि वह पीटने से बच गई। वैसे आलू के पराठे घर में कभी कबार ही बनते थे। मम्मी के आलू के पराठे इतने स्वादिष्ट होते थे कि उनका स्वाद कभी मुंह से नहीं जाता है। डायबिटीज होने के कारण पापा आलू के पराठे नहीं खा पाते थे। हम बच्चों में मुझे सबसे अधिक पसंद थे आलू के पराठे और साथ में अपने घर की भैंस के दूध की दही। हां दही से याद आया मेरी मम्मी इतनी अच्छी दही बनाती है कि जिसे मैं अपने शब्दों में बयां नहीं कर सकता। मैंने बचपन में दही दूध खूब खाया है। आप यह भी कह सकते हैं कि मैंने दही और दूध से नहाया है। आलू के पराठे के साथ मुझे दही या फिर घी बहुत अच्छा लगता है। जब भी मम्मी आलू के पराठे बनाती थी। वह कभी भी एक पराठा पूरा नहीं खा पाती थी क्योंकि उसके लिए बच ही नहीं पाते थे। बहुत शैतान बच्चे थे हम। आज याद आती है कि आखिर वो दिन भी क्या दिन हुआ करते थे। सच कहूं तो जीवन में सबसे खुशहाली भरा समय हमारा बचपन होता है। ना किसी बात का डर, ना किसी बात की टेंशन, ना ही किसी बात की उलझन, बस खेलते रहो.. हंसते रहो.. मुस्कुराते रहो... और रोते रहो... मम्मी की डांट सुनते रहो... पापा की मार खाते रहो... यही हमारे जीवन के अनमोल पल है।

- दीपक कोहली

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