साहित्य चक्र

15 July 2022

लघुकथाः ज्ञान की रोशनी

जब हम छोटे बच्चे होते हैं, तो सबसे पहले हम अपनी मां को पहचानना शुरू करते है। यह आज तक रहस्य है कि एक बच्चा अपनी मां को कैसे पहचानता है ? क्या हुआ बच्चा अपनी मां को देखकर पहचानता है ? क्या वो बच्चा अपनी मां को सुनकर या सूंघ कर पहचानता है ? यह बताना थोड़ा मुश्किल है। एक बच्चा अपनी मां को 2 या 3 दिन के भीतर पहचानना शुरू कर देता है। वह बच्चा अपनी मां का दूध पीता है, मां के साथ सोता है, मां की गोद में खेलता है। हम मानव जाति में पैदा होने वाले हर मनुष्य को ज्ञान की पहली किरण उसकी मां दिखाती है। हमारी मां की हमें चलना, बोलना आदि सिखाती है। हर बच्चे के मुंह से पहला शब्द मम्मा, मां, मम्मी होता है।


फोटो सोर्स- गूगल




जीवन का पहला ज्ञान हमें अपने घर परिवार में मिलता है। जिसमें हम बोलना, पहनना, चलना, खाना इत्यादि चीजें सीखते हैं। जीवन का दूसरा ज्ञान हम स्कूल की पाठशाला में सीखते है। जहां हमें हमारे अध्यापकों के साथ साक्षात्कार होता है। इसी पाठशाला से हम पढ़ना, लिखना सीखते है। जब हम पाठशाला में पहले दिन जाते है तो हम एक प्रकार से कोयला होते है। इस पाठशाला में हमें हमारे अध्यापक खूब तपाते, खूब पीटते है। जिस दौरान हम कोयला से धीरे-धीरे हीरे में बदलने लगते है। इस दौरान जिन बच्चों पर तपने और पीटने का कोई असर नहीं होता, वह बच्चे कोयला का कोयला रहते है और जिन बच्चों पर तपने-पीटने का असर होता है, वह बच्चे हीरे के आकार में बदल जाते है। जो आगे चलकर अपने विद्यालय सहित अपने अध्यापकों और माता-पिता का नाम पूरे विश्व में प्रसिद्ध करते है। हां हीरा बहुत कम बच्चे बन पाते है।


कोयले को हीरा बनाने में सबसे अधिक भूमिका अध्यापकों की रहती है। अध्यापक जितनी इमानदारी से अपना काम करेंगे, कोयले उतने बेहतर हीरों के आकार में बदलते हैं। हम सभी के जीवन में हमारे अध्यापकों की सबसे अहम भूमिका होती है। हमें क्या बनना है ? हमारे मस्तिष्क में कौन से विचार उत्पन्न करवाने हैं ? हम किस लिए बने हैं यह हमारे अध्यापकों से अच्छा कोई नहीं समझता है। हमारे अध्यापक हमारे ज्ञान की रोशनी है। अध्यापक चाहे तो हमें कोयला का कोयला रहने दे सकते हैं और अध्यापक चाहे तो हमें कोयला से कोहिनूर हीरा बना सकते है।



                                                                             लेखक- दीपक कोहली



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