साहित्य चक्र

28 August 2017

* नर कंकाल से ..।



नर कंकाल से तू भी है और मै भी जन्मी
है तन नस ,माँस, लहू से भरा बस एक घड़ा

तुझको भी है मुझको भी है कोख ने ही जना
फिर क्यौ तू पुरुष पौरुष मै नारी अबला

जिसने हर जीव को जीवन दिया वो भी है मानता
कि शक्ति  बिना कुछ भी सम्भव नही वो जानता

फिर क्यों अहम में तू मान मेरा तोड़कर
देता ग्यान क्यों पुरुषत्व का निचोड़कर

सुन मैं धरती हूँ सहलेती हूँ तेरी यातना
सहन करने की करती हूँ क्या कोई साधना

सुन में प्यार में बस दूब सी बिछ जाऊँगी
तेरे हिस्से का सारा जहर मैं पी जाऊँगी

पर बदले में तुझसे बस यहीं मैं चाहूंगी
मेरा मान हो सम्मान से जी जाऊँगी

गर आ गई अपने प्रचंड स्वभाव पे
तो काल की भी राह डगमगाएगी

मैं प्रेम के लिए प्यार से प्रभु ने रची
मेरे रोम रोम में वात्सल्य ममता है भरी

हूँ शान्त जीवन देने को हूँ मैं बनी
गर तूने मेरी आत्मा को डस दिया

फिर न कहना माँ कुमाता हो गई
देती हूँ जीवन दूध छाती क पिला

काली जो बन गई लिए खप्पर हाथ में
सारा धधकता लहू मैं पी जाँऊगी

फिर न करना कर जोडंकर ये प्रार्थना
देने लगे माँ भी तुम्हें जो यातना

नर कंकाल से......।।
                                 
                                                     स्वरचित- सुमन गौड़

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