साहित्य चक्र

11 October 2020

वो बुढ़िया



वो बुढ़िया कल भी अकेली थी
वो बुढ़िया अब भी  अकेली है

चेहरे की झुर्रियाँ पढ़ कर पता चलता है
उसने कितने सदियों की पीड़ा झेली है

पति छोड़ कर बुद्ध हो गया भरी जवानी में
आँसुओं की लरी ही केवल  एक सहेली है

किस समाज ने किस यशोधरा को देवी माना है
वही जानती है  कैसे  अपनी मर्यादा सम्हाली है

इस टूटे और जर्जर पड़े घर के दायरे में
किस तरह से अपनी  बच्चियाँ  पाली  है

कहते हैं अपनी शादी वाले  दिन को
उसका बदन चाँद-तारों की डाली थी

हाथों में हीना की होली, आँखों में ख़ुशी की दीवाली
अपने चेहरे पर उसने परियों सी घूँघट निकाली थी

पूरा  शहर हो गया था दीवाना उस का
जो जीती जागती मुकम्मल कव्वाली थी

कैसी खुश  थी, कैसे हँसती-खिलखिलाती थी
मानो कि उसके दामन में जन्नत की लाली थी

अपना सब कुछ कर दिया समर्पण अपने देवता को
बन कर गुलाम ,  खुद  ही अपनी लाश  उठा ली थी  

भगवान् पूजा जाने लगा और ग़ुलाम शोषित होने लगा
औरतों की यह दशा भगवानों की देखी और भाली थी

भगवान् मुक्त होता चला गया हर बंधन से
औरत खूँटे से बँधी हुई चहार- दिवाली थी

मर्द का मन नहीं  रोक  सकी  उसकी कोमल  काया
अपने भगवान् के लिए वो अब अमावस सी काली थी  

बारिश में टपकते हुए छत के साथ वो भी  रोया करती है
वो अब भी उतनी ही खाली है जितनी कल तक खाली थी

कुछ बच्चियाँ मर गईं और कुछ छोड़ कर चली गईं
इस सभ्य समाज के लिए कहते हैं  वो एक गाली है

अपने भगवान् को ना छोड़ने की कसम खाई थी,सो
मौत के एवज में न जाने कितनी ज़िन्दगियाँ टाली हैं

सूखे होंठ, धँसी आँखें , बिखरे बाल , पिचके गाल
सोलह की उम्र में ही लगती बुढ़ापे की घरवाली है

वो बुढ़िया कल भी अकेली थी
वो बुढ़िया अब भी  अकेली है

                              सलिल सरोज


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