साहित्य चक्र

11 October 2020

"मैं ढूंढ रही हूँ"




मैं ढूंढ़ रही हूँ उस अपने को,
जो मेरे सामने रहता है।
मेरे पास होकर भी ,
जो कोसों दूर रहता है।

क्यों वो अपनापन,
वो अहसास नही दिखता है,
जिसे देखने का सपना,
मेरी आँखों मे रोज पलता है।

मैं ढूंढ़ रही हूँ उस खुशी को,
जो मेरे दिल मे रहता है।
एक नजर उसे आज देखा,
वो पराया सा लगता है।

क्यो वो पहले जैसा,
लगाव नही दिखता है।
जिसे देखने का ख्वाब,
मेरी आँखों मे रोज पलता है।

मैं ढूंढ रही हूँ, उस साथ को,
जो मेरी सोच में रहता है।
जिसके साथ कदम मिलाकर,
मुझे एक लगाव सा लगता है।

क्यों वो पहले जैसा ,
रास्ता नही दिखता है।
बढ़ती राहों पर ही ,
हर हमराही मुड़ता है।

--ममता मालवीय 'अनामिका'

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