साहित्य चक्र

17 October 2020

वक्त के साथ



वो  गलिया, 
वो  दरवाज़े बदल जाते है |

बचपन  के  चाव,
जवानी  आते-आते ठहर जाते है |

कहाँ  ढूँढे कोई  ,
यादों के  घरों  को, 
यह तो  चेहरे -दर-चेहरे 
वक्त के  साथ  बदल जाते है |

हर एक  का, 
हर एक  से, 
निश्चित  है  समय |

बीते वक्त में  ,
अब  जा के  कही
कोई मिलता है  कहाँ

वो  दोस्त मेरे, 
वो भाई  मेरा  ,
वो  छोटी  बहनें
एक  छोटा -सा घर मेरा।
एक  सपना  था  मेरा |

मां-बाप तक ही, 
यहाँ सारी  ,
दुनिया  सिमट जाती थी |
मेरे घर से  छोटी -सी सड़क 
शहर  तक भी  जाती थी |
 
वक्त  गुजरा, 
सब बदल गया |
कोई मोल न था, 
जिन लम्हों का 
आज  लगता है कि, 
सब वे-मोल गया |

मैं  बदला,
सब बदल गया | 
मैं  हूँ  वही, 
पर अब वो  सब |
वो नहीं कहीं |

वो  गलिया, 
वो दरवाज़े ,
अब  बुलाते  नही |
वक्त के  साथ, 
उन  से  मैं, 
मुझसे वो  अनजान सही|

क्योंकि वो  चेहरे पुराने 
अब  कहीं नज़र आते  नही |

              
                  प्रीति शर्मा "असीम" 


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