साहित्य चक्र

26 February 2025

कविता- सास और बहू



सास बहू का रिश्ता है बड़ा पुराना
इसकी चर्चा करता है सारा जमाना। 

नई नवेली बहू जब घर में है आती
सास रिश्तेदारों से मुलाकात है करवाती। 

बहू आने की खुशी भी खूब है जताती
आपस में हंंसी खुशी से समय बिताती। 

समय की गति सदा एक जैसी  नहीं रह पाती। 
कभी कभी आपस में तकरार भी हो जाती। 

सास बहू को दहेज न लाने के ताने भी लगाती
बहू माँ बाप की लाज बचाने में चुपचाप सह जाती। 

वक्त बदलने में देर नहीं लगती
अब बहू बिन दहेज खूब है जचती। 

जब मैं थी बहू ये कहानी सास सुनाती
सास के सामने हमेशा घूंघट में ही नजर आती। 

अब सास , वो सास कहाँ रही
जिनकी बहूओं ने लाख परेशानियां है सही। 

आज बहू सास को माता है कहती
सास भी बहू को बेटी की तरह है सहलाती। 

सहेलियों की तरह आपस में है रहती
अपने सुख दुःख एक दूसरे से हैं कहती। 


                      - विनोद वर्मा



ग्वालियर के गिरगांव का प्रसिद्ध चमत्कारी मंदिर

मध्य प्रदेश के ग्वालियर जिले में स्थित गिरगांव का महादेव मंदिर अपनी अनोखी परंपराओं और न्यायप्रियता के लिए प्रसिद्ध है। इस प्राचीन शिव मंदिर को महादेव की कचहरी (मजिस्ट्रेट महादेव मंदिर) के नाम से जाना जाता है, जहां लोग अपने विवादों को सुलझाने और न्याय प्राप्त करने के लिए आते हैं। मान्यता है कि इस मंदिर में भगवान शिव न्यायमूर्ति के रूप में हर प्रकार के विवादों का तुरंत निपटारा करते हैं।





मंदिर का इतिहास और महत्व- गिरगांव का यह मंदिर लगभग 1000 साल पुराना बताया जाता है। इस मंदिर में स्वयंभू शिवलिंग स्थापित है, जो लोगों की गहरी आस्था का केंद्र है। गिरगांव महादेव के प्रति लोगों की आस्था इतनी मजबूत है कि वे अपनी सामाजिक और व्यक्तिगत समस्याओं के समाधान के लिए इस मंदिर का रुख करते हैं। यहां आने वाले भक्तों का कहना है कि महादेव के दरबार में पहुंचने पर बड़े से बड़ा विवाद पलभर में सुलझ जाता है। यही वजह है कि इसे न्यायप्रिय शिवजी का दरबार माना जाता है। हर सोमवार को यहां भगवान की पूजा के बाद अदालत लगाई जाती है, जिसमें किसी भी विवाद की सुनवाई की जाती है।

न्याय प्रक्रिया और परंपरा- गिरगांव महादेव की अदालत में सुनवाई की प्रक्रिया बेहद अनोखी है। यहां विवाद लेकर आने वाले वादी-प्रतिवादी, गवाह और सबूतों के साथ पंचों के सामने अपना पक्ष रखते हैं। पंचों का निर्णय भगवान शिव की ओर से अंतिम आदेश माना जाता है।




- पंचों का पैनल 11 सदस्यों का होता है।
- विवाद सुनने के बाद पंच फैसला सुनाते हैं।
- निर्णय पर मुहर मंदिर के अंदर शपथ के साथ लगाई जाती है।
- फैसले को मंदिर के रजिस्टर में दर्ज किया जाता है।

यह भी मान्यता है कि अगर आरोपी ने झूठ बोला, तो उसे सात दिनों के भीतर सजा मिलती है। इस मंदिर में महिलाओं से कसम नहीं खिलाई जाती।

मामलों की शुरुआत और वर्तमान स्थिति- पहले यहां भैंस चोरी जैसे छोटे-मोटे मामलों की सुनवाई होती थी, क्योंकि यह इलाका भैंस चोरी के लिए कुख्यात था। समय के साथ, जमीन, धन, संपत्ति और यहां तक कि राजनीतिक विवाद भी यहां आने लगे। गिरगांव महादेव की अदालत ने अब तक 1000 से अधिक मामलों का निपटारा किया है।

महाशिवरात्रि पर विशेष अदालत- महाशिवरात्रि के दिन यहां विशेष अदालत लगती है, जिसमें बड़ी संख्या में भक्त और विवादकर्ता पहुंचते हैं। पंचों के सामने मामलों की सुनवाई होती है, और मंदिर में भव्य मेले का आयोजन किया जाता है। भक्तों का मानना है कि महादेव का निर्णय अंतिम और सर्वमान्य होता है, जिसे कोई चुनौती नहीं देता।

महादेव के न्याय में गहरी आस्था- गिरगांव महादेव की ख्याति इतनी है कि आसपास के जिलों और राज्यों से भी लोग यहां अपने विवादों के निपटारे के लिए आते हैं। झूठ बोलने पर सजा का डर और महादेव के प्रति श्रद्धा लोगों को सत्य और न्याय का पालन करने के लिए प्रेरित करती है।

न्यायप्रियता का प्रतीक- ग्वालियर-भिंड रोड पर स्थित यह मंदिर न केवल धार्मिक बल्कि सामाजिक न्याय का भी केंद्र है। गिरगांव महादेव को मजिस्ट्रेट के रूप में मानने वाले भक्तों का विश्वास है कि उनकी कचहरी में जो भी फैसला होता है, वह भगवान शिव की इच्छा का प्रतीक है। यह परंपरा धार्मिक आस्था और सामाजिक न्याय का एक अनूठा संगम है, जो गिरगांव महादेव को एक विशिष्ट पहचान दिलाती है।




निष्कर्ष- ग्वालियर के गिरगांव स्थित महादेव का यह मंदिर आस्था, न्याय और परंपरा का अद्भुत संगम है। यह न केवल धार्मिक केंद्र है, बल्कि सामाजिक न्याय का प्रतीक भी है, जहां लोग अपने विवादों का समाधान भगवान शिव की अदालत में पाते हैं।

यहां की परंपराएं न केवल भारतीय संस्कृति की गहराई को दर्शाती हैं, बल्कि सत्य और न्याय के महत्व को भी उजागर करती हैं। बिना किसी कानूनी प्रक्रिया के, यहां के फैसले लोगों के लिए अंतिम होते हैं, जो इस मंदिर की प्रतिष्ठा और श्रद्धा को और बढ़ाते हैं।

महाशिवरात्रि के अवसर पर लगने वाली अदालत इस मंदिर के महत्व को और भी अधिक विशिष्ट बनाती है। गिरगांव महादेव का यह अनोखा मंदिर समाज को सत्य, न्याय और धर्म के पथ पर चलने की प्रेरणा देता है। यह स्थान धार्मिक आस्था और सामाजिक सामंजस्य का जीवंत उदाहरण है।

 
                                           - डॉ. सारिका ठाकुर "जागृति"
         

23 February 2025

कविता- किसान





किसान रो साथी 
रात रौ बेली 
एक टांग रौ धणीं
बापड़ो अड़वों
खेत रूखाळ'अ
भूखों तिसायों
एक लता गाबा मांय 
स्यावड़ तांई साथ निभावें 
बाबो भला हीं गांईतरां करै
पण अड़वो आपरी पूरी ड्यूटी बजावें
अड़वो भला हीं बेजान हुवे 
पण बाबा रो (किसान)जीव 
पूरी रात अटक्यों रेवै अड़वा मांय 
सांझ री बैळ्यां घरां टीपती बगत 
बाबो अड़वा नै समळावणीं देवणों कद भूले हैं 
समळावणीं लेंवतीं बगत 
अड़वा रौ हांडों सो सिर
पून रै थपैड़ा सूं 
हालतों बगै 
ज्याण्यों अड़वों मुऴकैं हैं 
अड़वों आपरी खातर 
कद मांगें हैं रोटी 
पण अड़वें रै पाण 
धान सूं भरिजे हैं 
किसान अर देस री कोठी।


                                                     - जितेन्द्र कुमार बोयल 


कविता- हिमालय और जीवन





ऐ हिमालय! जरा बताओ
तुम इतने ऊंचे तो हो,
क्या तुम्हारे पास तुम्हारे अपने हैं ?
अगर हैं तो फिर तुम अकेले क्यों हो ?
अगर नहीं है तो फिर तुम्हारा
इतना ऊंचा होने का क्या फायदा ?
ऐ हिमालय! कही तुम स्वार्थ के 
घमंड में जकड़े तो नहीं हो ?
शायद! तुम्हारे पास 
सिर्फ झूठी शान है।
बाकी तुम हर रोज आंसू बहते हो।
क्योंकि! गंगा एकमात्र तुम्हारी बेटी थी,
वो भी तुम्हें छोड़कर चली गयी।
तुम ऊंचे तो हो, मगर अकेले हो।


                                   - दीपक कोहली



मातृभाषा पर विभिन्न रचनाकारों की टिप्पणी पढ़िए

मातृभाषा दुनिया के किसी भी हिस्से में रहने वाले मनुष्य के लिए न केवल उसकी भावनाओं और विचारों के आदान-प्रदान का माध्यम है, बल्कि उसे अपने उस क्षेत्र विशेष की सभ्यता और संस्कृति को सहृदय महसूस कर गर्वान्वित होने का भी सरल अवसर प्रदान करता है। प्रत्येक मनुष्य का यह जन्मसिद्ध अधिकार है कि वह वार्तालाप के अलावा शिक्षा-दीक्षा भी अपनी मातृभाषा में प्राप्त करे और इस क्रम में कोई भी कारक उसे अपनी मातृभाषा के चलते हीन भावना का अहसास न कराए। 





परंतु आज़ के समय में जबरन मातृभाषा को कुचलकर कुछ विशेष भाषाओं को ज्यादा महत्वपूर्ण और अनिवार्य दर्शाकर भाषा थोपने की होड़-सी मची है। ऐसा बिल्कुल नहीं है कि किसी भी मनुष्य या क्षेत्र या देश की तरक्की या शिक्षा के लिए चुनिंदे भाषाओं को जबरदस्ती स्वीकार करना ही पड़े। अगर ऐसा होता तो जापान और चीन जैसे देश कभी इतनी तेजी से विकास नहीं करते। जापान और चीन जैसे देशों में ग्लोबल भाषा घोषित अंग्रेजी की हैसियत उतनी ही है जितना कि गली में घूमते कुत्ते की। 

आप देख सकते हैं कि वहां सामानों के रैपर या डिब्बों तक में अंग्रेजी में कुछ भी नहीं लिखा रहता है। फ़िर भी दोनों ही देश विश्वपटल पर तकनीक और तरक्की के मामले में कई अंग्रेजी भाषी देशों से मीलों आगे है। इसलिए इस बात को समझने की आवश्यकता है कि अगर कोई अनिच्छा जाहिर करे तो जबरन भाषा न थोपकर मातृभाषा पर ही उसे आगे बढ़ने दिया जाय। अन्य भाषाएं सीखना उसके निजी रुचि पर छोड़ दिया जाना चाहिए।

                                                                              - कुणाल

*****


मां, मातृभूमि और मातृभाषा स्वर्ग से भी गरिमामयी है। प्रति वर्ष २१ फरवरी के दिन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मातृभाषा दिवस मनाया जाता है। परंतु मातृभाषा मात्र एक दिन के लिये गुरुत्वपूर्ण नहीं, अपितु जन्म से मृत्यु तक हमारा साथ निभाते हैं।

मातृभाषा तो मां से मिली भाषा है। हमारी पहली बोली, पहला शब्द, पहला उच्चारण, मातृभाषा में ही होता है। मातृभाषा वो भाषा है, जो हमारी कल्पनाओं को शब्दों में संवारती है। हमारे चिंतन की एक मात्र भाषा है। मातृभाषा ही है, जो सपनों की भाषा होती है। हम लाख कोशिश के बाद भी अपनी सोच, कल्पना, चिंतन और सपनो को दूसरी भाषा में नहीं देख सकते। अतः मातृभाषा हमारी अंतरात्मा की भाषा है। 

हम मनुष्य चाहे किसी भी धर्म, जाति, स्थान या भाषा से जुड़ें हों, हमें अपनी अपनी मातृभाषा के व्यवहारिक प्रयोग में लज्जा या संकोच नहीं करना चाहिए। हमें अपनी मातृभाषा पर गर्वित होना चाहिए है। मातृभाषा हमें अपने जड़ों से जोड़ें रखतीं हैं। अतः मातृभाषा ही हमारा प्रथम परिचय है। मै स्वीकार करती हूं, मैं अपनी मातृभाषा को समर्पित मन से सम्मान करती हूं।


                                                                 - सुतपा घोष 


*****

मातृभाषा वह भाषा है जिसे व्यक्ति जीवन के प्रारम्भ से मृत्यु तक विचारों के आदान प्रदान में प्रयोग में लाता है। मातृभाषा में प्रत्येक व्यक्ति एक  सहज भाव से अपने विचारों को प्रकट करने में सफल होता है। मातृभाषा हमारे संस्कारों, जीवन मूल्यों के संचार में भी सहायता  करती है। मातृभाषा सदैव ह्रदय से जुडी होती है। 

परिणामस्वरूप एक व्यक्ति का विकास एवं उन्नति मातृभाषा में अधिक बेहतर तरीके से सम्भव है। हमारे देश में आधिकारिक मातृभाषा,राजभाषा हिंदी है। मातृभाषा पूरे देश में लोगों में परस्पर सम्पर्क की भाषा होती है। हमें मातृभाषा का महत्व समझते हुए हिंदी भाषा का सम्मान करना चाहिए एवं हिंदी के प्रयोग को  सदैव प्रोत्साहित करना चाहिए। 

जापान, जर्मनी एवं चीन जैसे शक्तिशाली देश अपनी मातृभाषा को अन्य भाषाओं से वरीयता देते हैं जो इन देशों में विकास की एक कड़ी के रूप में मुख्य रूप से कार्य करती है। मातृभाषा का यह सम्मान अनुकरणीय है। हमें भी अपनी मातृभाषा को सर्वोपरि मान कर उसका अधिकतम प्रयोग करना चाहिए। इससे देश को विकास पथ पर अग्रसर होने में और अधिक मदद मिलेगी।

                                                                - प्रवीण कुमार

*****

मातृभाषा शब्द से ही माँ की ममता का एहसास हो जाता है। माँ जैसे अपने बच्चों को लाड प्यार से पालती है ,वैसे ही मातृभाषा भी बच्चे की तोतली बोली को स्वीकार कर अपना प्यार जताती है। 

मातृभाषा में कही गई बात बच्चा स्वाभाविक रूप से ही सीख जाता है। मातृभाषा को सीखने के लिए किसी बच्चे को अलग से शिक्षक की आवश्यकता नहीं होती ।बच्चा जब बड़ा होकर किसी दूसरे राज्य में जाता है और वहाँ उसे जब अपनी मातृभाषा में बोलने वाला कोई मिलता है तब वह बहुत ही खुशी के साथ उससे अपनी मातृभाषा में बात करता है। उस व्यक्ति से बात करने पर उसे सगे भाई बंधु से मिलने का एहसास होता है।

                                                           - अनुरोध त्रिपाठी 


*****


संसार में मनुष्य ही एकमात्र ऐसा प्राणी है जो अपने विचारों को बोली के रूप में व्यक्त करता है। मानव जन्म के बाद जिस भाषा को सबसे पहले सीखता है, वही उसकी मातृभाषा कहलाती है। मातृभाषा को मानव की प्रथम भाषा या देसी भाषा भी कहा जाता है। अपनी मातृभाषा को बालक धाराप्रवाह बोल पाता है और इसी भाषा से ही उसका समग्र विकास सम्भव होता है। 

बालक की प्राथमिक शिक्षा में भी उसकी मातृभाषा पर ही बल दिया गया है। मातृभाषा में वह अपने विचारों या भावनाओं को बेहतर तरीके से व्यक्त कर सकता है। मेरे क्षेत्र की मातृभाषा हिंदी है और हिंदी के बोले गए शब्दों का प्रभाव हमारे मन मस्तिष्क व हृदय पर बहुत अच्छे से पड़ता है। यह भारत की उत्तम भाषा में से एक है। मुझे अपनी मातृभाषा पर गर्व है। सभी देशवासियों को 21 फ़रवरी पर मातृभाषा दिवस की बहुत-बहुत बधाई।

                                                                         - आनन्द कुमार


*****


मातृभाषा हमारी पहली अभिव्यक्ति या भाषा होती है, जिससे हम अपनी भावनाओं को प्रकट करते है। मातृभाषा का नाता हमारे बचपन से ही प्रारंभ होता है, इसलिए हमारे दैनिक जीवन में मातृभाषा का अहम स्थान होता है।
मातृभाषा हम सभी की पहचान का स्मारक, संस्कृति की धरोहर और मूल्यों की जननी है। 

मातृभाषा हम सभी को एक दूसरे से जोड़ती है और एक सशक्त माध्यम की भूमिका निभाती है। मातृभाषा का संरक्षण करना हर एक नागरिक का कर्तव्य है, जिससे हमारी आने वाली पीढ़ी भी अपनी जड़ों से जुड़ी रहें। मातृभाषा हमारे आत्मविश्वास को सुदृढ़ बनाती है।

                                                                           - अंशिता त्रिपाठी

*****


मेरी मातृभाषा बंगाली है, मातृभाषा का तात्पर्य ही यह है कि जो भाषा हम मां की गोद में रहकर सीखते हैं, मुझे गर्व है कि हमारी मातृभाषा को समृद्ध बनाने के लिए श्री ईश्वर चन्द्र विद्यासागर ने बंगला लिपि को सरल बनाया, जिस पर कार्य करते हुए कवि गुरु रविन्द्र नाथ टैगोर का लिखा हुआ जन गण मन आज हमारी राष्ट्र गान है तथा वंदे मातरम् जो हमारा राष्ट्रीय गीत है उसकी रचना भी वंकिम चंन्द्र जी ने की थी।

यूनेस्को ने बंगला भाषा को सबसे मीठा भाषा की श्रेणी में रखा था। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अपनी मातृभाषा को प्रतिष्ठित करने के लिए कितने लोगों ने अपने प्राणों की आहुति दे दी।

आज हम इसी पर कुछ प्रकाश डाल रहे हैं। बंगाली भाषा आंदोलन (बराक घाटी)1960 में असम सरकार के उस फैसले के खिलाफ शुरू हुआ था जिसमें असमिया को राज्य की एकमात्र आधिकारिक भाषा बनाने का फैसला किया गया था, जबकि बराक घाटी के ज़्यादातर निवासी बंगाली बोलते थे।

घाटी के लगभग 80% निवासी जातीय बंगाली हैं और बराक घाटी क्षेत्र में बंगाली आबादी में हिंदू और मुस्लिम दोनों लगभग बराबर संख्या में हैं, जो आबादी का भारी बहुमत है। भारत के अन्य हिस्सों से आए मूल जनजातियों और अप्रवासियों की भी पर्याप्त अल्पसंख्यक आबादी है।

भाषा शहीदों की याद में बनाया गया स्मारक मुख्य घटना 19 मई 1961 को सिलचर रेलवे की हत्या कर दी थी। भाषा आन्दोलन में शहीद हुए लोगों की सूची- कमला भट्टाचार्या, हितेश विश्वास, शचींद्र मोहन पाल, चंडी चरण सूत्रधर, तरणी देवनाथ, कुमुद दास, सुनील सरकार, सुकोमल पुरकायस्थ, कानाइ लाल नियोगी, वीरेंद्र सूत्रधर आदि

भाषा आंदोलन से जुड़ी कुछ और बातें- बंगाली भाषा आंदोलन के बाद, 21 फ़रवरी को अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाया जाता है। यह दिवस भाषाई  विविधता और सांस्कृतिक विरासत के महत्व को दिखाता है।

                                                                       - रत्ना बापुली


*****


मातृभाषा हमारी हो या तुम्हारी सबको जान से प्यारी है।
मातृभाषा और हमारा नाता जन्मों जन्मांतर से है।

सींचा है मातृभाषा ने हमें बड़े ही प्रेम से अपने आंचल में जैसे इक मां छोटे बच्चे को अपने आंचल में रखती है। मां बिना किसी स्वार्थ के हम सभी को हमेशा बड़े ही प्रेम से संजो कर और जोड़ कर रखती है। मातृभाषा ने हमें जीना सिखाया और सिखाएं जीवन जीने के सभी उसूल। कैसे चुकाएंगे हम मातृभाषा आपका ऋण क्योंकि आपका धरती पर है ना कोई मूल।

                                                                         - रजनी उपाध्याय

*****


मातृभाषा दिवस की सभी सम्मानित साथियों को बधाई। आज विश्व मातृ भाषा दिवस है। मातृ का मतलब मां और भाषा मतलब बोली यानि कि मां की भाषा। मां ही हमें पहला शब्द सिखाती है जो हमारी मातृ भाषा होती है। मातृ भाषा हमें अपनों से जोड़े रखती है हमें प्यार सिखाती है। 

मातृ भाषा को हम देशी भाषा में दुध बोली भी कहते है। सभी को अपनी मातृ भाषा से बहुत ही प्यार होता है चाहे वह देश या विदेशी हों। जब भी जहां भी कभी किसी को अपनी भाषा का व्यक्ति अगर मिल जाए तो उनको लगता है कि ये हमारा अपना ही प्रिय है वह बहुत प्रेम से मिलते है और अपनी मातृ भाषा में बातें करते है, जिससे उन्हें बहुत सुकून मिलता है।

                                                                 - सुमन डोभाल काला


12 February 2025

कुंभ रौ न्हाण




बात बाळपण री है 
म्हं टाबर हो 
पोह अर माघ रै माह 
जाडो घणों पड़तो 
नाक चालतो दांत बाजता 
धरती धौळी होंवती
आकड़ा तक बळज्यांवतां
न्हावण रै नावं सूं धूजता 
फुरसत अर अदितवार रै दिन 
न्हावण रौ ओपतो मुहुर्त होंवतों 
भींत री ओट मां पाटों झलाती 
म्हें धूळ माटी सूं खेलता 
अघोरी बाबा बण्यां फिरता
मां पकड़ जट पाट'अ पटकती 
म्हाने नंग धडंग 
बाखळ बिचाळें 
मां न्हावंती
म्हें नागा साधु बरगा लागता 
बळबळता पाणीं सूं
मां न्हावंती 
भाटा री टिकड़ी सूं 
काया रौ दाळद(मेल) उतारती 
मां म्हारें तेल रौ चौपड़ करती
ठोडी पकड़ पटा बाती
जट्टा रौ बुगो करती 
माथा माथे काळों टिकों करतीं 
आपरै हाथ दूध पिलावंती 
रोटी रौ चुरमों बणाय खिलावंती
मां रै हाथ त्रिवेणी बैंवती
आजै जद बाळपण याद करूं 
मां रै हाथ रौ न्हाण 
आज रै महाकुम्भ सूं सवायो लागै।


                                  - जितेन्द्र कुमार बोयल 

कुंभा जो जाणा




लाड़ी गलांदी लाड़े जो भलेयो सुणा।
प्रयागराजा रे कुंभा आसा भी जाणा।
144 साला ते बाद कुंभ गईरा आई।
आसा भी आस्था री डुबकी लैणी लाई।
देशा प्रदेशा ते लोक ऐथी गईरे आई।
बाबेया भी अपणा धूणा ऐथी लैरा लाई।
अघोरी आइरे नागा भी गइरे ऐथी आई।
मर्द हो या हो जनाना इन्हें सबणी ये रूप लैरा बनाई।
खड़ा बाबा, रूद्राक्ष वाला बाबा ता
एक हाथ खड़ा करणे वाले बाबा भी गइरे आई।
स्यो अपणी भक्ति कने शक्ति सबणी जो लैं दखाई।
रहणे रा कने खाणे रा पूरा इंतजाम।
इधी री चिंता तू मत कर रे इंसान।
जिंदगिया च ऐहड़ा कुंभ दूजी बारी नी औणा।
ता आसा प्रयागराजा जाई कने जरूर नौणा।


- विनोद वर्मा



ऋतुराज वसंत





तुम्हारी सुंदरता अनोखी है,ऋतुराज वसंत।
प्रकृति की नई शुरुआत है,ऋतुराज वसंत।

नव जीवन का प्रतीक है सुनो, ऋतुराज वसंत।
पेड़ों पर पत्ते सज आए आया ऋतुराज वसंत।

फूल खिलते हैं, मन भावन से,ऋतुराज वसंत ।
प्रकृति सौंदर्य ,सजी हुई ,आया ऋतुराज वसंत।

आशा और नवीनता,जीवन की ऋतुराज वसंत।
नई शुरुआत का प्रतीक है, देखो ऋतुराज वसंत।

तुम्हारी सुंदरता हमें प्रेरित करती ऋतुराज वसंत।
मौसम, सुहावना, मधुर बनाता ऋतुराज वसंत।

सबके मन खिल जाते ,जो आता ऋतुराज वसंत।
प्रकृति का,आनंद लेलो,मुस्काता ऋतुराजवसंत।

प्रेरणा तुम इससे लेलो ,प्यारा सा ऋतुराजवसंत।
त्योहार,उत्सव भी लाता, आता ऋतुराज वसंत।

नई फसल में बाली ,आती,हंसता ऋतुराज वसंत
आशाओं,समृद्धि का प्रतीक है,ऋतुराज वसंत।

तुम्हारी सुंदरता है,मन को भाती,ऋतुराज वसंत।
प्रकृति की सुंदरता और नवीनता ऋतुराज वसंत।

 
                                    - डॉ. मुश्ताक अहमद



रविदास: भक्ति आंदोलन के एक भारतीय रहस्यवादी कवि-संत

माघ महीने की पूर्णिमा के दिन संत रविदास जयंती मनाई जाती है। इस अनोखे दिन पर लोग आरती के दौरान मंत्रों का जाप करते हुए नगर कीर्तन जुलूस में भाग लेते हैं।  मंदिरों में दोहा, गीत और संगीत गाए जाते हैं। इसके अलावा, कुछ भक्त और अनुयायी घर या मंदिर में उनकी छवि की पूजा करने से पहले गंगा नदी या अन्य पवित्र स्थानों पर स्नान करते हैं। गुरु रविदास ने अपना जीवन समानता और मानवाधिकारों को बढ़ावा देने के लिए समर्पित कर दिया। इसके अतिरिक्त, उनके कुछ कार्यों को गुरु ग्रंथ साहिब जी में भी शामिल किया गया था। निर्गुण संप्रदाय (संत परंपरा) के सबसे प्रसिद्ध सदस्यों में से एक, वे उत्तर भारत में भक्ति आंदोलन में भी अग्रणी व्यक्ति थे। निचली जातियों के लोगों के लिए, वे उच्च जाति की ओर से समाज में अस्पृश्यता के प्रतिरोध का भी प्रतिनिधित्व करते थे। पंजाब, हिमाचल प्रदेश और हरियाणा सहित उत्तर भारत में, संत गुरु रविदास जयंती व्यापक रूप से मनाई जाती है।





भक्ति आंदोलन के एक सदस्य, रविदास भारत के एक रहस्यवादी कवि और संत थे। रविदासिया धर्म की स्थापना भारतीय रहस्यवादी कवि-संत रविदास ने 15वीं और 16वीं शताब्दी ई. में की थी। वे भक्ति आंदोलन के भी सदस्य थे। पंजाब और हरियाणा क्षेत्रों के साथ-साथ उत्तर प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में उन्हें गुरु (शिक्षक) के रूप में सम्मानित किया जाता था। वे एक समाज सुधारक, कवि-संत और आध्यात्मिक नेता थे। रविदास की जीवन कहानी विवादित और अस्पष्ट है। विद्वानों के अनुसार, उनका जन्म 1450 ई. के आसपास मोची जाति में हुआ था। रविदास द्वारा लिखे गए विचलित छंदों को सिख ग्रंथों के संग्रह गुरु ग्रंथ साहिब में शामिल किया गया था। हिंदू धर्म में, दादूपंथी परंपरा के पंच वाणी पाठ में रविदास की बड़ी संख्या में कविताएँ हैं। उन्होंने जाति और लिंग आधारित सामाजिक विभाजन को ख़त्म करने और व्यक्तिगत आध्यात्मिक स्वतंत्रता की लड़ाई में एकजुटता को बढ़ावा देने की वकालत की।

 चर्मकार माता कलसी और संतोख दास एक अछूत जाति के सदस्य थे। जब वे बारह वर्ष के थे, तब उन्होंने लोना देवी से विवाह किया और उन दोनों का एक पुत्र हुआ जिसका नाम विजय दास था। गंगा के तट पर, रविदास ने अपना ध्यान आध्यात्मिक प्रयासों की ओर लगाया। लंबी तीर्थ यात्राओं पर हिमालय, गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश का दौरा किया। भक्ति संत-कवि रामानंद उनके शिष्य बन गए। उन्होंने भक्ति के सगुण रूप को अस्वीकार कर दिया और निर्गुण संप्रदाय का समर्थन किया। रविदास की शिक्षाएँ अस्पृश्यता के विरोध और निचली जाति के लोगों के खिलाफ उच्च जाति के सदस्यों के पूर्वाग्रह का प्रतिनिधित्व करती हैं। सिख ग्रंथों में उनके भक्ति छंदों का काफ़ी उपयोग किया गया है। विद्वानों द्वारा यह सुझाव दिया गया है कि रविदास ने सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानक के साथ बातचीत की थी। आदि ग्रंथ के 36 लेखकों में से एक के रूप में, जो कि सिख धर्म का एक प्रमुख ग्रंथ है, उनकी 41 कविताएँ इसमें शामिल हैं।

 सिख ग्रंथ प्रेमम्बोध के अनुसार, जो उनके निधन के 170 वर्षों के बाद रचा गया था, वह भारतीय धर्म द्वारा मान्यता प्राप्त सत्रह संतों में से एक हैं। पंच वाणी ग्रंथ में रविदास को दी गई कई कविताएँ हिंदू दादू पंथी परंपरा का हिस्सा हैं। अनंतदास परकाई, जो रविदास के जन्म का वर्णन करती है, भक्ति आंदोलन के कवियों की सबसे पुरानी मौजूदा जीवनियों में से एक मानी जाती है। भक्तमाल के अनुसार, वह ब्राह्मण भक्ति-कवि रामानंद के छात्र थे, जो 1400 से 1480 ए.डी. तक जीवित रहे। इसलिए रविदास को संत कबीर का समकालीन माना जाता है। भले ही रविदास की जीवनियाँ उनकी मृत्यु के कई वर्षों बाद लिखी गई वे रूढ़िवादी ब्राह्मणवादी परंपराओं और विधर्मी समुदायों के बीच संघर्ष को दर्शाते हैं, साथ ही विभिन्न समुदायों और धर्मों के बीच सामाजिक सामंजस्य के लिए संघर्ष को भी दर्शाते हैं। रविदास की रचनाएँ हिंदू ब्राह्मणों और दिल्ली सल्तनत (1458-1517) के शासक सिकंदर लोदी के साथ मुठभेड़ों के बारे में कहानियाँ बताती हैं।

 चित्तौड़गढ़, राजस्थान में मीराबाई के मंदिर के बगल में एक छतरी (मंडप) है जिस पर रविदास के उत्कीर्ण पदचिह्न हैं। यह रविदास के बीच काव्यात्मक और आध्यात्मिक बंधन को दर्शाता है।  छुआछूत की बुराई को ख़त्म करने के इरादे से उनके आदर्श संसार में कोई भेदभाव या असमानता नहीं होगी। इस बात पर ज़ोर देते हुए कि काम कितना महत्त्वपूर्ण है (किरत);  रविदास अनन्य भक्ति का पालन करते थे, जो पूजा की वस्तु और उपासक के बीच द्वैत के विचार से परे भक्ति पर ज़ोर देती है। औपचारिक भक्ति को अस्वीकार करते हुए व्यक्तिगत भक्ति प्राप्त करने के साधन के रूप में ध्यान को बढ़ावा दिया। तपस्या, तीर्थयात्रा और अनुष्ठानों को ईश्वर के करीब आने के सर्वोत्तम तरीकों के रूप में अस्वीकार कर दिया गया था। गुरु रविदास की शिक्षाओं के अनुयायियों द्वारा आकार दिया गया, यह पहली बार इक्कीसवीं सदी में सिख धर्म से अलग धर्म के रूप में सामने आया। 2009 में ऑस्ट्रिया के वियना में सिख आतंकवादियों द्वारा रविदास मंदिर पर हमला करने के बाद, इसकी स्थापना की गई थी।

पूरी तरह से गुरु रविदास के लेखन और शिक्षाओं के आधार पर, रविदासिया धर्म ने "अमृतबानी गुरु रविदास जी" नामक एक नया पवित्र ग्रंथ बनाया, जिसमें 240 भजन शामिल हैं। संत रविदास के दर्शन और आदर्श, जैसे समानता, सामाजिक न्याय और बंधुत्व, हमारे संवैधानिक सिद्धांतों में व्याप्त हैं। उनके आदर्श समाज में किसी भी तरह का भेदभाव नहीं होगा और सभी के साथ समान व्यवहार किया जाएगा। उन्होंने लाहौर के नज़दीक स्थित शहर का नाम "बे-गमपुरा" रखा, जहाँ किसी भी तरह के डर या दुःख के लिए कोई जगह नहीं है। ऐसा शहर भेद्यता, भय और अभाव से मुक्त होगा। समानता और सभी की भलाई जैसे नैतिक सिद्धांतों पर आधारित कानून का शासन-शासन की नींव के रूप में काम करेगा।


                                     - प्रियंका सौरभ


कान्हा का आगमन

गांव के एक कोने में रामलाल और उसकी पत्नी सीता का छोटा-सा घर था। दोनों बेहद साधारण जीवन जीते थे, परंतु उनकी दिनचर्या में भक्ति और सेवा का बड़ा महत्व था। रामलाल और सीता दोनों भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति में लीन रहते थे और हर जीव-जंतु में भगवान का वास समझते थे। उनकी दिनचर्या में कभी कोई जल्दबाजी नहीं थी। वे अपने समय को भगवान के नाम, पशु पक्षियों की सेवा और अपने छोटे से घर में शांति से बिताते थे।




एक सुबह, जब सीता आंगन में झाड़ू लगा रही थी, उसने देखा कि उनके घर के बाहर एक सफेद गाय खड़ी है। गाय पूरी तरह से सफेद थी, उसकी आंखें गहरी और शांत थीं, और उसकी चमकती हुई त्वचा जैसे किसी दिव्य प्रकाश की झलक देती हो। सीता ने उसे गौर से देखा। गाय वहां चुपचाप खड़ी सीता को देखती रही।

सीता ने सोचा कि यह भूखी होगी। उसने रसोई से रोटी और गुड़ लाकर गाय को दिया। गाय ने रोटी खाई और फिर सीता को देखते हुए अपना सिर झुका लिया, जैसे आभार व्यक्त किया और वहां से चली गई।

इसके बाद, वह गाय हर दिन आने लगी। सुबह, दोपहर और शाम—दिन में तीन बार। जब तक रामलाल या सीता उसे रोटी न देते, वह वहीं घर के दरवाजे पर खड़ी रहती। यह सिलसिला महीनों तक चलता रहा। सीता और रामलाल उसे प्यार से "कान्हा" कह पुकारने लगे। गांव के अन्य लोगों ने भी गौर किया कि वह गाय केवल रामलाल के घर ही आती थी। लोग चर्चा करने लगे, "यह गाय कितनी अजीब है। वह तो बस उसी घर पर आती है!"

एक शाम, जब रामलाल घर पर नहीं था, और सीता अकेली रसोई में काम कर रही थी, वह गाय आंगन में आकर खड़ी हो गई। सीता ने सोचा कि रोज की तरह उसे रोटी देनी होगी। लेकिन जब उसने रोटी लेकर गाय की ओर कदम बढ़ाए, तो गाय ने अचानक जोर से डकार मारी। सीता चौंक गई। उसने देखा कि गाय की आंखें किसी अजीब से तेज से चमक रही थीं।

सीता घबराई और पीछे हट गई, लेकिन गाय अपनी जगह पर स्थिर खड़ी रही। तभी अचानक आंगन में तेज हवा चलने लगी और गाय ने अपने खुरों से जमीन को खोदना शुरू कर दिया। सीता डर गई और तुरंत पीछे हट गई।

गाय ने जहां-जहां खुर मारे थे, वहां कुछ जमीन फटने लगी, और एक रहस्यमयी आभा निकलने लगी। सीता पूरी तरह हैरान रह गई। उसने धीरे-धीरे जमीन के नीचे झांककर देखा तो वहां एक चमचमाता हुआ तांबे का घड़ा नजर आया। सीता ने तुरंत रामलाल को बुलाया और दोनों ने घड़ा निकाला। घड़ा सोने और चांदी के गहनों और सिक्कों से भरा हुआ था।

दोनों की आंखों में आंसू थे, और वह भगवान कृष्ण की कृपा से अभिभूत हो गए। वे समझ गए कि यह धन केवल भौतिक नहीं है, बल्कि यह भगवान श्रीकृष्ण का आशीर्वाद है। दोनों गाय को प्रणाम करने लगे। गाय ने भी एक एक कर दोनों को देखा और वहां से चल दी। दोनों ने उसे रोकने की बहुत कोशिश की, लेकिन वह गाय नहीं रुकी और थोड़ी दूर जा कहीं खो गई। दोनों ने उसे खूब ढूंढा पर वह कहीं नहीं मिली।

गांव वालों को जब इस घटना का पता चला, तो सबने इसे भगवान कृष्ण की लीला माना, जो उनकी भक्ति और सेवा का फल देने आई थी। रामलाल और सीता ने दिल से भगवान कृष्ण का आभार व्यक्त किया और अपनी भक्ति में और भी गहरी श्रद्धा से लीन हो गए।

 
                                                  - विकास बिश्नोई



कविता- बसंत बहार



पलाश की तलाश में
लाल रंगो की रंगत में,
उपवनों में 
एक कहानी लिखी जा रही है,
एक जिंदगानी खुशियों की
गीत गा रही हैं,
जीवन के समर बेला में 
लाल रंगो के मेंला में
सिंदूर से पांव तलक 
बिखरे जीवन के उमंगों में 
चेहरे के लाल रंगो में,
बसंत बहार मौसम में 
कोयल गीत गुनगुना रही हैं।


                                  - अभिषेक कुमार शर्मा


नारी की यात्रा: प्राचीन गौरव से आधुनिक नवजागरण तक

नारी, वह अनमोल कृति है जो सृष्टि की जननी, संस्कृति की संरक्षिका और समाज के अस्तित्व की अमर धुरी है। भारतीय परंपरा में नारी को मात्र देवी के रूप में नहीं, बल्कि जीवन की चिरंतन चेतना और सृजनशील ऊर्जा के प्रतीक स्वरूप पूजा जाता है। वह विचार मात्र नहीं, अपितु समाज के उत्कर्ष, विकास और प्रगति का अमिट स्तंभ है। उसकी कोमलता में करुणा का निर्झर बहता है, तो उसकी अडिग दृढ़ता में असीम साहस की अग्नि प्रज्वलित रहती है। नारी अपने अनुपम गुणों से समाज को संवेदनशीलता, सहिष्णुता और मानवीय मूल्यों के प्रकाश से आलोकित करती है।





प्राचीन भारत में नारी का दिव्य और सम्मानित स्थान

प्राचीन भारत में नारी को उच्चतम सम्मान और गरिमा का पद प्राप्त था। वैदिक युग में स्त्रियाँ विद्या, कला, विज्ञान, और राजनीति के विविध क्षेत्रों में निष्णात थीं। गार्गी की प्रखर तर्कशक्ति, मैत्रेयी की वैदिक विद्वत्ता और अपाला के अद्वितीय ज्ञान ने समाज के बौद्धिक परिदृश्य को एक नवीन दिशा प्रदान की। उस काल में नारी स्वतंत्र विचारों की धनी, आत्मनिर्भर और स्वाभिमानी थी। उसकी उपस्थिति केवल परिवार तक सीमित न होकर समाज के हर निर्णायक मंथन में मुखर थी। स्त्रियाँ यज्ञों, सभाओं और शास्त्रार्थों में सक्रिय भागीदारी निभाती थीं, जो उनके बौद्धिक अधिकारों और सामाजिक गरिमा के जीवंत प्रमाण थे। परंतु समय के प्रवाह के साथ सामाजिक संरचना में परिवर्तन आया, और रूढ़ियों की जकड़न ने नारी के अधिकारों और स्वतंत्रता को सीमित कर दिया। पितृसत्तात्मक व्यवस्थाओं और परंपरागत बंधनों ने नारी की स्वतंत्र पहचान को बाधित किया।

आधुनिक युग में नारी: नवजागरण और सशक्तिकरण की ओर

समय के चक्र के साथ, नारी ने पुनः अपनी अंतर्निहित शक्ति और अदम्य साहस को स्थापित किया है। आज की नारी मात्र घरेलू सीमाओं में बंधी नहीं है; वह राजनीति, विज्ञान, खेल, व्यापार, और कला के हर आयाम में अपनी अमिट छाप अंकित कर रही है। इंदिरा गांधी की करिश्माई नेतृत्व क्षमता, किरण बेदी का निर्भीक साहस, कल्पना चावला और सुनीता विलियम्स की आकाशगामी उपलब्धियाँ, तथा पी.वी. सिंधु और मिताली राज की खेल जगत में गौरवशाली विजय इस सत्य के प्रमाण हैं कि नारी शक्ति असीमित है। आधुनिक राजनीति में द्रौपदी मुर्मू का राष्ट्रपति पद पर आरूढ़ होना और सुमित्रा महाजन की प्रखर संसदीय नेतृत्व क्षमता यह दर्शाती है कि नारी अब सीमाओं को लांघ चुकी है और समाज के हर निर्णायक क्षेत्र में प्रभावी भूमिका निभा रही है। आज की नारी वैज्ञानिक अनुसंधान, उद्यमिता, पर्यावरण संरक्षण, तकनीकी नवाचार, और वैश्विक कूटनीति में भी अपनी विशिष्ट पहचान स्थापित कर रही है।

नारी: संस्कारों की चिरंतन वाहक और समाज की आत्मा

नारी शक्ति का महत्व केवल उसकी व्यक्तिगत उपलब्धियों में ही नहीं निहित है, अपितु वह समाज में सहिष्णुता, करुणा, समानता और प्रेम के चिरस्थायी मूल्यों की वाहक है। एक सशक्त नारी परिवार की रीढ़ होती है और उसकी शिक्षित सोच पूरे समाज को प्रगति के पथ पर अग्रसर करती है। नारी की शिक्षा, स्वास्थ्य, और आर्थिक स्वावलंबन किसी भी राष्ट्र के सतत विकास का मूलाधार हैं। वह संस्कारों की आधारशिला है, जो परिवार और समाज के मध्य संतुलन और सामंजस्य स्थापित करती है। नारी में मातृत्व की कोमलता के साथ ही नेतृत्व की अडिग दृढ़ता समाहित होती है। वह प्रेम, अनुशासन, त्याग और धैर्य के अद्भुत समन्वय का मूर्त स्वरूप है, जो समाज के सर्वांगीण विकास का आधार है।

नारी संघर्ष: चुनौतियाँ और उनकी अविचल विजय

आज की नारी को अनेक विकट चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, जैसे लिंग भेदभाव, उत्पीड़न, शिक्षा का अभाव और आर्थिक पराधीनता। परंतु नारी शक्ति का मूल मंत्र है - साहस, आत्मबल और आत्मनिर्भरता। नारी में वह अद्वितीय ज्वाला है, जो विषम परिस्थितियों को भी अपने धैर्य और प्रखरता से परास्त कर देती है। समाज में जागरूकता और संवेदनशीलता का संचार कर इन बाधाओं का उन्मूलन संभव है। घरेलू हिंसा, कार्यस्थल पर उत्पीड़न, और बाल विवाह जैसी कुप्रथाएँ आज भी समाज के कुछ कोनों में व्याप्त हैं, जिनसे संघर्ष हेतु कठोर विधियों के साथ-साथ जन-जागरण भी अनिवार्य है।

नारी सशक्तिकरण: एक व्यापक सामाजिक संकल्प

नारी सशक्तिकरण केवल सरकारी अभियानों जैसे 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ' तक सीमित नहीं रह सकता। यह एक व्यापक सामाजिक संकल्प है, जो तभी साकार होगा जब समाज की सोच में क्रांतिकारी परिवर्तन आएगा। नारी को उसकी प्रतिभा और क्षमता के अनुरूप समान अवसर और प्रतिष्ठा प्रदान करना आवश्यक है। शिक्षा, स्वास्थ्य, और रोजगार के क्षेत्र में समानता ही नारी सशक्तिकरण का सच्चा प्रतिरूप है। साथ ही, समाज में लैंगिक समानता की चेतना जाग्रत करना और पारंपरिक बंधनों को तोड़ना अनिवार्य है। महिलाओं को उद्यमिता, नेतृत्व और नवाचार के क्षेत्रों में प्रोत्साहित करना सशक्तिकरण के मूल स्तंभ हैं। नारी के अधिकारों की सुरक्षा हेतु विधायी सुधार, सुदृढ़ सुरक्षा उपाय और सामाजिक सहयोग तंत्र की आवश्यकता है।

नारी शक्ति का सम्मान - प्रगति का सत्य पथ

नारी शक्ति मात्र एक विचारधारा नहीं, बल्कि समाज की चेतना है। नारी के बिना समाज अधूरा और राष्ट्र अपूर्ण है। नारी का सम्मान और सशक्तिकरण न केवल उसका मौलिक अधिकार है, बल्कि समाज का परम कर्तव्य भी है। जब नारी सशक्त होगी, तभी समाज और राष्ट्र उन्नति के शिखर पर आरूढ़ होंगे। नारी शक्ति के मर्म को आत्मसात करना और उसे जीवन में उतारना ही वास्तविक प्रगति का प्रतीक है। नारी का सम्मान समाज के नैतिक मूल्यों की असली पहचान है। नारी सशक्तिकरण का उद्देश्य केवल अधिकार प्रदान करना नहीं, बल्कि उसकी गरिमा, स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता को सुनिश्चित करना है। नारी के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण, शिक्षा और समान अवसर प्रदान कर हम एक समृद्ध, न्यायपूर्ण और प्रबुद्ध समाज के निर्माण की आधारशिला रख सकते हैं। जब नारी आगे बढ़ेगी, तभी उज्ज्वल और प्रगतिशील भविष्य की परिकल्पना साकार होगी।


- प्रो. आरके जैन 'अरिजीत'



सिर्फ मां-बहन की गाली ही क्यों ?


कभी-कभी मुझे भारतीय समाज के व्यवहार को देखकर बहुत गुस्सा आता है। हर छोटी-छोटी बात पर भारत के लोग मां-बहन की गाली देते हैं। उदाहरण के लिए कल मैं दफ्तर से घर वापस आ रहा था। एक व्यक्ति मेरे बगल के सीट पर बैठा था और किसी को फोन पर गाड़ी छूट जाने के कारण मां-बहन की गाली दे रहा था। यह देखकर मैं हैरान हो गया, क्योंकि ना ही वहां पर उस व्यक्ति की मां- बहन थी और ना ही जिसे वह गाली दे रहा था उसकी मां-बहन थी। 

उसके फोन रखने के बाद मैंने उससे तुरंत सवाल पूछा भाई साहब अपने मां-बहन की गाली क्यों दी ? वह थोड़ी देर चुप रहा और गुस्से में मेरे से बोल तुम चुप रहो और अपने काम से काम रखो। मैंने बोला- ठीक है, मगर आप मुझे यह तो समझा दीजिए कि आपने मां-बहन की गाली क्यों दी ? उसने कुछ नहीं बोला।






मुझे समझ नहीं आता है कि आखिर हम हर छोटी-छोटी बात पर मां-बहन की ही गाली क्यों देते हैं ? क्या हमारी मां और बहन स्त्री हैं इसलिए हम उनके नाम से गाली देते हैं या भारतीय समाज पितृसत्तात्मक है इसलिए यहां पुरुषों से संबंधित गलियां कम हैं! खैर जो भी हो मगर मुझे इस बात पर आपत्ति है कि छोटी-छोटी बातों पर मां-बहन की गली नहीं दी जानी चाहिए। 

आजकल हमारे देश में स्टैंडअप कॉमेडी के नाम पर हमें अश्लीलता और गाली गलौज परोसी जा रही है। समझ नहीं आता है क्यों हमारे देश के प्रतिष्ठित और पढ़े-लिखे लोग उस कॉमेडी को देखने के लिए हज़ारों रूपये खर्च करते हैं और ठहाके लगाकर हंसते हैं ? इतना ही नहीं बल्कि कई सारे सोशल प्लेटफॉर्म पर फैशन और फेमस होने के नाम पर सॉफ्ट पॉर्न भी परोसी जा रही है। 

इन सभी चीजों का असर हमारे समाज और आने वाले पीढ़ी पर पड़ रहा है। यह हमारे समाज को गंभीर समस्या की ओर लेकर जा रहा है। अगर वक्त रहते इसका हल नहीं किया गया तो समाज इस कैंसर से तबाह हो जाएगा। इस कैंसर को बढ़ाने में हर वह व्यक्ति जिम्मेदार है, जो सोशल मीडिया पर इनफ्लुएंसर बनने के लिए या फेमस होने के लिए अश्लीलता और फूहड़पन परोस रहा है। 

सरकार और हम सभी को इन सभी कैंसर फैलाने वालों का विरोध करना चाहिए, क्योंकि हम सभी के लिए हमारा समाज महत्वपूर्ण है। आइए! ऐसे लोगों का समाज से विरोध करते हैं जो पैसा कमाने के लिए या फेमस होने के लिए गाली गलौज और समाज में अश्लीलता व फूहड़ता परोस रहे हैं।


                                               - दीपक कोहली



03 February 2025

हमारी कल्पनाएँ

वह पेड़ जो हमने अपनी कल्पनाओं में बोया था ताकि जब धरती पर कहीं पर भी बची ना हो जगह प्रेम करने की तब एक पेड़ के नीचे बचीं रहे हमारे प्रेम करने की जगह... न जाने कौन है जो उसे काटना चाहता है ? कौन है वह जो हाथ में कुल्हाड़ी लिए हर रोज हमारी कल्पनाओं में आ धमकता है ?







वह नदी जो हमने तुम्हारे और मेरे घर के बीच में अपनी कल्पनाओं में बनाई थी ताकि जब हमारा एक- दूसरे से मिलना संभव न हो पाए तब वह नदी हमारे हाथों का स्पर्श लिए हमारे घर तक पहुंच सकें।

न जाने कौन है जो हर रोज उस नदी को दूषित कर जाता है ?  हमारे प्रेम से भरी उस नदी में खून के धब्बे आखिर कौन फेक जाता है ? आखिर कौन है वह जो हमारी कल्पनाओं पर भी निगरानी रखें हुए है ? कौन है जो हमारी इजाजत के बिना घुस आना चाहता है हमारी कल्पनाओं में ?

धरती से होता हुआ शासन, अब हमारी कल्पनाओं में भी आ पहुंचा है। अब क्या हमारी कल्पनाओं को भी सार्वजनिक घोषित कर दिया  जाएगा जिनसे हो सकें कुछ लोगों का भला ? ऐसा बताया जा रहा है कि बहुत सारे लोगों को उन कुछ लोगों की भलाई के लिए अपनी कल्पनाओं को भी बेचना पड़ेगा अब उन कुछ लोगों का भला आखिर कब होगा पूरा ?


                                                           - रेखा