साहित्य चक्र

03 February 2025

हमारी कल्पनाएँ

वह पेड़ जो हमने अपनी कल्पनाओं में बोया था ताकि जब धरती पर कहीं पर भी बची ना हो जगह प्रेम करने की तब एक पेड़ के नीचे बचीं रहे हमारे प्रेम करने की जगह... न जाने कौन है जो उसे काटना चाहता है ? कौन है वह जो हाथ में कुल्हाड़ी लिए हर रोज हमारी कल्पनाओं में आ धमकता है ?







वह नदी जो हमने तुम्हारे और मेरे घर के बीच में अपनी कल्पनाओं में बनाई थी ताकि जब हमारा एक- दूसरे से मिलना संभव न हो पाए तब वह नदी हमारे हाथों का स्पर्श लिए हमारे घर तक पहुंच सकें।

न जाने कौन है जो हर रोज उस नदी को दूषित कर जाता है ?  हमारे प्रेम से भरी उस नदी में खून के धब्बे आखिर कौन फेक जाता है ? आखिर कौन है वह जो हमारी कल्पनाओं पर भी निगरानी रखें हुए है ? कौन है जो हमारी इजाजत के बिना घुस आना चाहता है हमारी कल्पनाओं में ?

धरती से होता हुआ शासन, अब हमारी कल्पनाओं में भी आ पहुंचा है। अब क्या हमारी कल्पनाओं को भी सार्वजनिक घोषित कर दिया  जाएगा जिनसे हो सकें कुछ लोगों का भला ? ऐसा बताया जा रहा है कि बहुत सारे लोगों को उन कुछ लोगों की भलाई के लिए अपनी कल्पनाओं को भी बेचना पड़ेगा अब उन कुछ लोगों का भला आखिर कब होगा पूरा ?


                                                           - रेखा


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