समाज एक ईकाई नहीं है, नहीं किसी जाति विशेष के लिए, नहीं किसी गाँव/शहर तक सीमित है.एक राष्ट्र, राष्ट्र से विश्व में बसने वाले मानव, एक मानवीय समाज है. मनुष्य होने का अर्थ समाज है, समाज के बिना मनुष्य मात्र का कोई अस्तित्व नहीं है. हम होने का भाव समाज द्वारा तय किया गया है। स्त्री और पुरुष समाज रुपी रथ के दो पहिए है,नदी के दो किनारे है, सूर्य और चंद्रमा है,रात और दिन है । संवेदना और हृदयात्मक सह अस्तित्व है पानी और नदी का सम्बंध ही समाज है पानी और मछली का अटूट विश्वास और बंधन है।
हर एक भौगोलिक क्षेत्र में निवास करने वाली जाति की अपनी अलग- अलग पहचान और अपनी संस्कृति, रीति रिवाज, खानपान है, उन्हीं के अनुसार अपने समाज का चक्र चलता है. समाज में जितना महत्व पुरूष का है उससे भी अधिक महत्व स्त्री का है. एक दूसरे के पूरक हैं. समाज को गति देने के लिए दोनों पहिये भी और इंजन भी है. एक दूसरे के बिना न परिवार का अस्तित्व है, न समाज का, न राष्ट्र का. नदी का महत्व पानी से है वैसे ही समाज का महत्व स्त्री- पुरूष के होने से है. आज सामाजिक ढांचा में बदलाव आ रहे हैं.
सामाजिक मूल्यों का महत्व कम होता जा रहा हैं. मैं तो यहाँ तक मानत हूँ कि हम समाज के दो जोडी ईश्वर द्वारा रचित कृति मात्र है. समाज में यदि पुरूष का चरित्र गिरा है, वही स्त्री का भी ह्रास हुआ है। एक दूसरे का भोगवादी अस्तित्व ने ही वैश्यावृत्ति को जन्म दिया है. कौन स्त्री परिवार बसाना नहीं चाहतीं है, लेकिन पुरूष ने अपने स्वार्थ के लिए तो अपने की धूरी को ही बेच देता हैं / नर्क कुंड में भेज देता है. उनके भी बच्चे हैं लेकिन पिता किसे कहे। समाज के सामने हमेशा प्रश्न चिन्ह है?. नारी संसार की सबसे कोमल, भोली, निस्वार्थ प्रेम की पूजारी,स्नेह की गंगा, माँ की ममता, बच्चों का वात्सल्य, अपने घर, समाज, राष्ट्र की रक्षक.. इतना कुछ होतें हुए भी अपने आप को ठगा- सा महसूस करतीं हैं. वह उडता परिंदा जिसका कोई ठोर ठिकाना नहीं.
अपने आंचल से जिसके भी बहते आँसू पौछे उसने ही चिरहरण किया। कौन पुरुष अपनी मां और बहनों का हरण होते देखना चाहेगा लेकिन परायी नारी के साथ हमेशा वासना मिटाने की उत्कंठा हमेशा लिए फिरता है। जहां गुलाब है वहां कांटे रक्षक का काम करते हैं लेकिन समाज में भक्षण करते हैं। संसार में ऐसी कौन नारी होगी जो अपनी आबरू बेचना चाहती है, सेक्स का नरक धंधा करें, कौन बाजारू बनें।अपना ही समाज उस अकेली को जीने नहीं देता हैं, चील और गिद्धों की तरह अपना शिकार करने पर उतावला है। हम तो रण में भी शिश काट पति को दे देती है. हमें जिसे समाज की एक जोडी जूती समझी जाती है, साजिश रचि जाती हैं, ऐसे समाज की सोच, विचार और संस्कारों में बदलाव की आवश्यकता है.
प्रकृति के निर्माण से ही जब से नारी ने पुरुष का दामन थामा तब से आज तक अनेकोनेक घटनाएं घटी है. आदि काल में नारी शिक्षित थी और गुरूकुल में शिक्षा देतीं थीं, आदि काल में जो आक्रमण हुआ करते थे अधिकतर नारी हरण को लेकर ही हुए है. धीरे धीरे बाहरी आक्रांताओं ने नारी को भोग विलास समझा उसका शोषण करना आरंभ किया तब से घुंघट प्रथा चली, नारी अपने चेहरे को ढकना आरंभ कर दिया. आधुनिक युग में नारी का पुनः उत्थान हुआ. आज हर क्षेत्र में नारी काम कर रही हैं.
आज कबीर साहेब की पंक्ति याद आती है-
'नारी की झाई परत अंधा होत भूंजग/
कबिरा तिनका कहा गति जे नित नारी के संग ||'
जिस माँ ने हमें जन्म दिया हो उसका रक्त अपनी धमनियों में बह रहा हो, माँ ही हर रूप में हमारे सामने खडी है, कही बहन, कही पत्नी, कही दोस्त और कही पहरेदार. नारी पुरुष को पुरूष बनातीं है. नारी पर बहुत लिखा जा रहा है, वाद विवाद हो रहा है, नारीवाद , स्त्री- विमर्श जैसी साहित्यिक धारा चल रही हैं. नारी की समस्या और आवश्यकता यही पूरी नहीं होती हैं आगे बहुत कुछ करना शेष है. नारी ने उन्नति की अवश्य है लेकिन जिस क्षेत्र में गयी है वहाँ हमेशा ठगा सा महसूस किया है, का शिकार हुईं हैं. वह बोलती नहीं है उसके सामने समाजिक कुरीतियों और मर्यादा है. उसके ह्रदय में गहरे घाव है, टूटे जीवन को संवारने का जजबा है.
पुरूष पर कोई नियंत्रण नहीं कही भी जाए, कही भी रंगोलिया मनाये, वह दूसरों के परिवार को ऊझाडने का जिमेदार है.जब किसी के साथ रहने रहते जीवन गुजर जाता है तब भी तलाक कर दिया जाता है, जितनी पुरूष जीवन की आवश्यकता है, उतनी ही नारी जीवन की आवश्यकता है. .वही संवेदना, वही प्रेम, वही वात्सल्य और ममत्व. जिस बेटे को मा ने पच्चीस साल तक पाला हो अन्त में माँ को घर से अनाथालय में भेज देता है, यही कारण है कि आज हमारा समाज कहाँ खडा है. दोनों पक्ष नदी के दो किनारे है जिसके बीच संसार सागर चल रहा है.
- डाॅ. गोवर्धन लाल डांगी
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