यह कथा मेरे ही दौर की है,
नहीं व्यथा ये किसी और की है।
नहीं सुनते बच्चे बड़ों की अब,
लगता है इनको भाषण सब।
ठोकर लगती फिर रोते हैं,
और अपना आपा खोते हैं ।
है गुस्सा इनमें भरा हुआ,
नहीं धैर्य इनमें जरा सा है।
नाजुक मन है कोमल इनका,
पल भर में टूट ये जाते हैं,
लेकिन ना अहसास जताते हैं,
गुस्से को हथियार बनाते हैं,
और बदतमीज कहलाते हैं।
झांको, जरा इनके अन्तर्मन में,
कितने मासूम ये बच्चे हैं।
बस कमी जरा सी इतनी हैं,
ना रिश्ते – नाते पहचाने ये,
एक मोबाइल को अपना मानें ये,
व्यवहारिक ज्ञान ना जाने ये,
ना सही और ग़लत पहचाने ये,
गूगल का ज्ञान ही माने ये,
ना व्यवहारिकता को जाने ये,
ये बच्चे मेरे ही दौर के हैं,
नहीं बच्चे ये किसी और के है।
पर कितना प्यार जताऊं मैं,
और कैसे इनको बतलाऊं मैं,
मेरी जिम्मेदारी है कितनी,
ये कैसे इनको समझाऊं मैं।
ये कथा नहीं किसी और की है,
ये व्यथा मेरे ही दौर की है।
- कंचन चौहान
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