साहित्य चक्र

21 July 2024

कविताः कामयाबी की बारात





सुकून के धागे कोई काट रहा जनाब 
काँटों से जैसे कोई छांटता गुलाब 

इज्ज़त के पुलिंदे ढह जाते भराभर
गिरे-पड़े बाशिंदे पर जब डोलती शराब 

अंधेरे मे रहने की जिसको लग गयी है लत 
दिन के उजाले नहीं दिखता  आफताब 

हवाओं का रुख कुछ बदला इस कदर 
मुज़रिम चले सीना तान सज्जन ओडे नकाब 

मरहम पे दवा छिड़कने आ रहे 
ज़ख्मों पे जिन्होंने लगायी आग 

बेताब था जो उड़ने को कभी 
डाल पे परिंदा क्यों बैठा उदास 

ये जिंदगी ख़ुदा की नेमत है यारों 
इठलाती उम्मीदों का क्यों छोड़ते हो साथ 

मेहनत के रंगों की रंगोली सजाओ
कामयाबी की फिर निकलेगी बारात


                                                            - उमा पाटनी 'अवनि'



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