साहित्य चक्र

19 October 2024

कहानी- "रात भर का सफर"


         सफर तो सफर है, यह जिंदगी ही एक सफर है और उसमें अच्छा हमसफर मिल गया और वह जितना सुख यात्रा में देता है, उतना ही दुख वह मंजिल पर बिछड़ जाने में देता है।





          अगर हमसफर निर्दयी, कठोर और कुटिल मिलता है तो पूरी यात्रा ही दुखदाई बना देता है और कब उसका स्टेशन आए और वह उतर जाए यही इंतजार रहता है। और उसके बिछड़ने में कोई दुख नहीं होता है। लेकिन अपनी मंजिल करीब आ गई हो तो फिर क्या फायदा हर्ष क्या विषाद क्या ?
            शाम की ट्रेन बरौनी एक्सप्रेस में स्लीपर कोच की सीट ए सी बी 3 में तबदील हो गई थी। मेरी नीचे की सीट थी और मेरे सहयात्री की ऊपर की सीट थी। लेकिन मेरी नीचे की सीट पर सामने वाली नीचे की सीट पर एक नव युवती जो अति रुपवती और करभोरु थी, आसीन थी।

            अंदर से दिल भयभीत हो रहा था। बिहार के लोगों के प्रति जो भय मेरे दिमाग में भरा गया था वह कोई नया नहीं था। 

            ऐसा नहीं है कि, बिहार की मेरी यह पहली यात्रा थी। लेकिन इस बार बिहार की मेरी यात्रा धार्मिक नहीं एक विशेष कार्य की थी जो मेरे साथ यात्रा कर रहे रामनाथ के लिए थी और उसमें एक दिन नहीं दो दिन भी लग सकते थे। इसीलिए हमने वापसी का टिकट बुक नहीं कराया था।

            वह सुंदरी लगता है अकेले ही यात्रा कर रही थी। कुछ औपचारिक बातें उसकी हमारी हुई थी बस! वैसे भी वातानुकूलित डिब्बे में ज्यादा दिक्कत नहीं होती है और भीड़भाड़ भी नहीं रहती है, जनरल वाले यहां कम ही तशरीफ लाते हैं।

           रामनाथ भी स्वभाव का अच्छा व्यक्ति था और मेरी उसकी अच्छी खासी पटती थी। हम एक ही वर्तन में खाना पीना कर लेते थे। 

            इस बार की यात्रा से एक नया अनुभव मिलेगा और वहां के सरकारी आफिस और आफिसर के बारे में जानकारी प्राप्त होगी। कार्यालयों की कार्य प्रणाली को जानने समझने का मौका मिलेगा। ऐसे मैं सोच रहा था कि, उस नवयौवना ने बिना किसी भूमिका, औपचारिकता के मुझसे प्रश्न कर दिया, "आपको कहां तक जाना है?" 

            मेरे मन के तार झनझना उठे और मैंने बहुत ही शालीनता से, जितना नम्रता वाणी में बन सकी उतनी नम्रता से कहा, "हमें मुजफ्फरपुर जाना है!" 

            मैं और कुछ कहता पूछता कि उसने पहले ही बताया कि, "मैं भी मुजफ्फरपुर तक ही जाऊंगी!"

            मन तो बहुत कुछ सोच रहा था। अभी तक हम किसी रिश्ते के तहत कोई संबोधन, कोई भी बात नहीं किए थे!

            मैं कल्पना के सागर में डूबने - उतराने लगा था। सोच रहा था कि, बिहार में इतनी सुंदरता है क्या? पता नहीं यह बिहार की है या और किसी अन्य प्रांत की! इसी उहापोह में मैं फंसता जा रहा था कि, इसके साथ कैसा रिश्ता बनाना ठीक रहेगा और इसके मन में क्या है ?

           उसी ने फिर पहल किया। उसने कहा, "क्या सोच रहे हैं आप ?"

             मेरी चोरी जैसे पकड़ी गई हो और मैं नींद से जैसे जगा होऊं, मैंने कहा, "कुछ नहीं, कुछ नहीं!" 

             उसने पूछा, "आप कहां से हैं!" 

             मैंने कहा, "मैं उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश बार्डर से हूं और आप कहां से हैं!" 

             मैंने हिम्मत करके पूछ ही लिया। उसने कहा, "मैं बिहार से ही हूं!" 

             मैं कुछ और पूछना चाहता था कि, उसने फिर कहा, "मेरी आदत है, बातचीत अच्छे लोगों से करने की! मोबाइल बहुत देर तक नहीं देखा करती हूं! यहां इस यात्रा में आप हमारे पड़ोसी हुए भिर भी आप शरमा क्यों रहे हैं ?"

            उसकी इन बातों से मैं आह्लादित हो गया और मेरी हिम्मत बढ़ गई थी। मैं कोई अच्छा आदमी उसे लग रहा हूं, भला बताइए चेहरे से किसी की पहचान संभव है क्या ?

            मैं भी सहयात्री से संपर्क चाहता था लेकिन विषमलिंगी से थोड़ी झिझक महसूस कर रहा था। अब मैं बहुत खुश था। मन साफ होकर भी कुछ सीमाएं लांघने की इच्छा कर रहा था और कोई मजबूत साथ बनाने को मन करता था।

            अब खाना खाने का समय आया और रामनाथ अपनी ऊपर की सीट से उतर आया और मैंने उस वरारोहे से कहा, "खाना आप भी खा लीजिए!"

          "हां, मैं भी यही कहना चाहती थी!" उसने अपने झोले को खोलते हुए कहा था।

            मैंने कहा, "इसी में खाते हैं, आज हमारे यहां के खाने का स्वाद लीजिए न!" 

             उसने कहा, "हम सब भारतीय हैं और थोड़ी बहुत अंतर से खाना खाया करते हैं!"

             मैंने कहा, "आप शायद मछली...! कहते हैं अगर शादी में मछली नहीं परोसी गई तो बाराती नाराज हो जाते हैं!" 

            वह खुलकर हंसी, उसकी हंसी ऐसी लगी थी मुझे जैसे मंदिर में घंटी बजने लगी हो और मैंने देखा जैसे उसके होंठों से गुलाब झड़ रहा हो! उसने कहा, "ऐसी तो कोई बात नहीं है और हम भी शाकाहार पसंद करते हैं!"
            हमारी सब्जी और खटाई उसने लिया और उसने हमें चूड़ा दिया जो खाने में बहुत ही उत्तम, स्वादिष्ट था। 

            समय गुजरने में देर नहीं लगती और रात्रि के नौ बज गए थे। अब सोने की तैयारी करने लगे हम लोग!

            उसी कम्पार्टमेन्ट में बगल की सीट से दो आंखें उस लड़की पर निगाहें गड़ाए हुए थी जो हम लोग नहीं जान पाए थे। 

            सभी लोग सो गए थे। मुझे नींद नहीं आ रही थी। मुझ सुंदर के पुजारी को अभी भी कल्पनाएं सतायमान कर रही थी। 

           गैलरी में से हल्की मद्धिम रोशनी आ रही थी। तभी बगल की सीट पर हलचल हुई और एक भौंड़ा सा आदमी सीट से उतरकर गैलरी में खड़ा होकर इधर उधर देखने लगा था शायद वह कोई जाग तो नहीं रहा है और पुलिस वालों की भी आहट ले रहा था।

           वह चलकर उस नवयुवती के मुह पर से चद्दर हटाया और उसके मुंह को दाब लिया। वह छटपटाई लेकिन आवाज नहीं निकल पा रही थी। वह उसके ऊपर चढ़ता तब तक मैं अपने आपको रोक नहीं पाया और उसके टांगो के बीच में मेरी जोरदार लात पड़ गई। वह झुका था कि, मेरा पैर उठ गया था।

            पता नहीं कहां उसके लगा था मेरा लात, कि वह बिलबिला कर सीधा हो गया और उसकी पकड़ से उस लड़की का मुंह छूट गया था। 

            वह लड़की फुर्ती से खड़ी हो गई और उसने उस दरिंदे को एक लात मारी और वह भाग गया। इतने में रामनाथ भी जाग गया था और मैं उससे कहा, "पुलिस को बुलाऊं, वह ट्रेन से जाएगा कहां!"

            वह बोली,  "तमाशा करने से कोई फायदा नहीं है और पुलिस वालों को आप जानते हैं, सब मिली भगत भी हो सकती है!"

            उसने हाथ जोड़कर मेरा आभार व्यक्त किया और कहा, "यह लीजिए मेरा पता और मोबाइल नंबर, अगर दिक्कत हो तो मुझे बुला लेना! ऐसा भी कर सकते हैं मेरे यहां चलकर नहा-धोकर, खाना खाने के बाद अपने काम के लिए चले जाना! आप चिंता मत करना मैं मछली नहीं खिलाऊंगी!" 

         और हम हंस पड़े थे। गाड़ी अपनी तेज रफ्तार में दौड़ रही थी और वह मुझे अपनी सीट में बैठाकर 'सो जाओ' कह रही थी।

            लेकिन उस घटना से उसकी भी और मेरी भी नींद कोसों दूर भाग गई थी। उसने अपना सिर मेरे कंधे पर रख दिया था। मेरी हालत क्या हो सकती है; आप अनुमान लगा सकते हैं। मैं स्वर्ग के झूले पर झूल रहा था।

            मैंने उसे दूर नहीं किया बल्कि और पास में लाकर अपने बदन में छुपाकर उसे चद्दर ओढ़ा दिया था और वह सो गई थी। जैसे, कुछ हुआ ही नहीं था और वह अपने आपको कवच में सुरक्षित महसूस कर रही हो!

            सुबह का मंजर वही सुबह के चार बजे वह जागी और बैठ कर मुझे पड़ने के लिए मजबूर कर दिया और मेरा सिर अपनी कोमल जांघों पर रख दिया और कहा, "सो जाओ घंटे दो घंटे के लिए, गर्मी उतर जाएगी और यह गाड़ी आठ बजे ही मुजफ्फरपुर पहुंचेगी। अब मैं जागती रहूंगी!"

           मुझे कब नींद आ गई मैं जान नहीं पाया और जब उसने मुझे प्यार से जगाया तब तक स्टेशन आ गया था। हम लोग झोला लेकर तैयार हुए कि गाड़ी रुक गई थी।

            जब हम उसके साथ नहीं गए तो वह रो पड़ी थी और मैंने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा था, "अभी आप जाइए, हम एक बार जरूर आएंगे आपके यहां!" 

            और वह चली गई थी। हमने स्टेशन के सामने एक गेस्ट हाउस में कमरा लिया और नहा धोकर तैयार हुए फिर चल दिए पुलिस हेडक्वार्टर की ओर वहीं हमारा काम होना था।

            हमें शहर के एक थाने में भेजा गया। वहां जाकर हमें बिस्वास ही नहीं हुआ कि, थ्री स्टार वाली वर्दी पहने हुए यह वही खूबसूरत लड़की हमें फिर मिल जाएगी।

            उसने देखते ही हमें पहचान लिया और तुरन्त वह खुद जा जा कर हमारे काम उसी दिन करवा दिये थे।

            काम हो जाने पर हम लोगों ने करंट में रिजर्वेशन करवा लिया। उसके बिना मन हम लोग स्टेशन आ गये थे।

            वह अपनी ड्यूटी करने के बाद सीधे स्टेशन पर पहुंच गई और हमें खिलाती रही। 

            हमारी गाड़ी आई और हमें बैठाते वक्त वह फफक कर रो पड़ी थी। लोग एक पुलिस इंस्पेक्टर को रोते देखकर विस्मित हो गये थे। मैं उसे फिर आने का वादा किया था; जिसे आज तक नहीं निभा पाया हूं।

            इतना सब होने के बावजूद अपने और उसके बीच के रिश्ते को मैं अभी तक नाम नहीं दे पाया हूं और उसकी ओ जाने। 

          उस रात भर के सफर को याद करके मैं आज भी रोमांचित हो जाता हूं और मेरी आंखों से चंद अश्रुबिंदु गिर ही जाते हैं, पता नहीं यह खुशी के हैं या गम के!

                                       - डॉ. सतीश "बब्बा" 


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