मैं खड़ा था बस अकेला दूसरा कोई न था।
दूर तक देखा बहुत पर काफ़िला कोई न था।
ले सके उनसे सबक़ तैयार सा कोई न था।
पढ़ रहे थे सब किताबें मानता कोई न था।
आदमीयत के लिए करता रहा सब की मदद,
उन सभी से दूर तक भी वास्ता कोई न था।
अबउन्हेकिस नामसे आखिर पुकारूँआज मैं,
क़त्ल के शाहिद सभी थे बोलता कोई न था।
आदमी से गलतियाँ होती रहीं हर दौर में,
कुछ गलत हर आदमी था पारसा कोई न था।
- अब्दुल हमीद इदरीसी
शुक्रिया जनाब
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