साहित्य चक्र

19 October 2024

ग़ज़ल- कोई न था



मैं  खड़ा  था  बस अकेला दूसरा कोई न था।
दूर तक देखा बहुत पर काफ़िला कोई न था।

ले  सके  उनसे  सबक़ तैयार सा कोई न था।
पढ़ रहे थे  सब  किताबें  मानता कोई न था।

आदमीयत के लिए करता रहा सब की मदद,
उन सभी से  दूर तक भी  वास्ता कोई न था।

अबउन्हेकिस नामसे आखिर पुकारूँआज मैं,
क़त्ल के  शाहिद सभी थे बोलता कोई न था।

आदमी से  गलतियाँ  होती  रहीं  हर  दौर  में,
कुछ गलत हर आदमी था पारसा कोई न था। 

                               - अब्दुल हमीद इदरीसी


1 comment:

  1. शुक्रिया जनाब

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