साहित्य चक्र

19 October 2024

कहानी- जीवन की सबसे बड़ी खुशी


सबसे पहले देश के सही मायने में  सच्चे भारत रत्न, औद्दोगिक क्रान्ति के महानायक स्वर्गीय श्री रतन टाटा जी को विनम्र श्रद्धाञ्जली अर्पित करते हुये आप सभी को यह बताना चाहता हूँ कि उन्होनें जब एक बच्चे से, "मैं आपका चेहरा याद रखना चाहता हूँ ताकि जब मैं आपसे स्वर्ग में मिलूं, तो मैं आपको पहचान सकूं और एक बार फिर आपका धन्यवाद कर सकूं", सुन जीवन की सबसे बड़ी खुशी महसूस की।




उपरोक्त स्वीकारोक्ति उन्होंने एक टेलीफोन साक्षात्कार में  रेडियो प्रस्तोता द्वारा पूछे गये प्रश्न, "सर, आपको जीवन में सबसे अधिक खुशी कब मिली?" के जबाब में कहा था।

उस टेलीफोन साक्षात्कार में  रेडियो प्रस्तोता को उन्होंने विस्तार से समय-समय पर मिली उपलब्धियों के दौरान मिली खुशियों को बताते हुवे कहा -जीवन में चार चरणों से गुजरने के बाद अंततः मुझे सच्चे सुख का अर्थ समझ में आया।"

उस घटना का उल्लेख करते हुवे उन्होंने बताया कि मेरे एक मित्र ने मुझे करीब दो सौ विकलांग बच्चों के लिये पहियेदार कुर्सी उपलब्ध करवा देने की सलाह दी।  मैंने अपने दोस्त के अनुरोध पर तुरन्त पहियेदार कुर्सी खरीदीं। लेकिन मेरे मित्र ने आग्रह किया कि मैं उनके साथ जाकर खुद उन बच्चों को यह भेंट करूं।

मैंने जब सभी बच्चों को अपनी हाथों से पहियेदार कुर्सी दीं तब उनकी आंखों में जो खुशी की चमक देखी, वह मेरे जीवन में एक नया एहसास लेकर आई। उन बच्चों को उन पहियेदार कुर्सीयों पर घूमते और मस्ती करते देखना ऐसा था, मानो वे किसी मनोविनोद स्थल पर हों और किसी बड़े उपहार का आनंद ले रहे हैं।

इन सबके बाद जब उस स्थान से लौटने को हो रहा  था, तभी एक बच्चे ने मेरी टांग पकड़ ली। मैं कुछ समझा नहीं, अतः धीरे से पैर छुड़ाने की कोशिश की तब उसने और जोर से पकड़ लिया। यह देख मैं झुककर उससे पूछा, "क्या तुम्हें कुछ और चाहिये ?"

उस बच्चे का जवाब न केवल खुशी दी बल्कि जीवन बदलने वाला था। उसने कहा - "मैं आपका चेहरा याद रखना चाहता हूँ ताकि जब मैं आपसे स्वर्ग में मिलूं, तो मैं आपको पहचान सकूं और एक बार फिर आपका धन्यवाद कर सकूं।"

इस एक वाक्य ने न केवल मुझे  झकझोर दिया, बल्कि जीवन के प्रति दृष्टिकोण को पूरी तरह से बदल दिया। यह अनुभव मुझे समझा गया कि सच्ची खुशी दूसरों की सेवा में है, न कि भौतिक संपत्तियों में।


उपरोक्त घटनाक्रम से स्वर्गीय रतन टाटाजी अपने जीवन सफर अर्थात २५ वर्ष से ८७ वर्ष तक में आखिरकार सच्चा सुख निस्वार्थ सेवा में निहित है को समझ हम सबको भी एक सीख दे गये हैं।

 
"रतन रतन था, रतन रहेगा, सूरज सा वह दीप्त रहेगा,
युवा दिलों की धड़कन बनकर, हर युग में वो राज करेगा।"



                          - गोवर्धन दास बिन्नाणी 'राजा बाबू' 



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