साहित्य चक्र

19 October 2024

कविताः आवाज




नींद में भी उठती हैं
आवाजें वाणी भी तो बंधी है
किनारों में शब्द कब पहुँच पाते है
प्रत्येक पूर्वाग्रहों में...

कितनी पुकारें अनसुनी रहकर
परत दर परत की निस्तब्धता में समा रही हैं।

समयावधि में कृष्ण विवर से टकराकर
कोई रश्मि किरण प्रत्यागत नहीं होती।
वे सारे शब्द, निर्देश, वर्ण और आवाजें
जो अब तक कह नहीं और ना ही सुने गए
उनके आविर्भाव का कोई निशान तलाशती है।

यह मौन का प्रहर यह अकेलापन बड़ा ही
अदभुत है इसमें कल्पनाओं की क्षणिका विद्यमान है।

- डॉ. पल्लवी सिंह 'अनुमेहा'

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