साहित्य चक्र

19 October 2024

कविता- तितलियाँ



तिश्नगी मेरी बुझने का नाम कहां लेती है।

मेरे बस में नहीं है कि मैं उनको छू भी पाऊं। 
तितलियां आके आंगन में मेरे बैठ जाती हैं।

राब्ता भी नहीं कोई वास्ता भी नहीं है तुझसे। 
याद आकार के मुझे क्यों ख्वाब में सताती है।

रात ये भारी है और दिन भी है परेशान मेरा।
नींद अक्सर ही मुझे बेवजह रूठ जाती है।

धड़कनों को दिल की मेरे कौन समझेगा।
तस्वीर तेरी देखकर मुझको मुस्कुराती है।

तिश्नगी मेरी बुझने का नाम कहां लेती है।
मद भरी आंखें फ़िर मुझको याद आती हैं।

माज़ी के वो लम्हे जब भी पलट कर देखूं।
दिल की धड़कनों में तू ही तो मुस्कुराती है।

लबों का अपने मैंने सिया तो नहीं है मुश्ताक़।
अंदाजे़ गुफ्तगू मुझको भी तो बड़ी आती है।

                           - डॉ. मुश्ताक़ अहमद शाह 

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