साहित्य चक्र

20 October 2024

कविता- आंगन में बेटी




खेलती है बेटी जब आंगन में
किसका मन नहीं खिलता है
बेटी का संग जीवन में
किस्मत वालों को ही मिलता है

आँगन में बेटी जब हंसती है खिलखिलाती है
हंसी उसकी देख खुशी दुगनी हो जाती है
लिपट जाती है जब दौड़ कर वह गले से
सारी थकान दिन भर की पल में उतर जाती है 

आंख से नहीं दिखता था बाप को
बेटी रोज़ वीडियो कॉल लगाती थी
उसका चेहरा तो बाप देख नहीं पाता था
बाप को खुश देखकर बेटी खुश हो जाती थी

दूर हो सकता है बेटा 
बाप की दौलत की चाह में
लेकिन बेटी छोड़ नहीं सकती कभी
माँ बाप को अकेली सुनसान राह में

बेटी से है घर की रौनक 
खुशियां मिलती है अपार
चली जाती है जब बेटी
लगता जैसे रूठ गई हो बहार

                               - रवींद्र कुमार शर्मा


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