साहित्य चक्र

01 May 2024

कविताः "फकीर तुम्हारे गाँव में"



आओं लेकर चलें तुम्हें एक ऐसे गाँव में.......
जहाँ आज भी खटिया बिछीं रहतीं है नीम की छाँव में......

क्या तुम्हारे गाँव की धरा को भी पुजा जाता है 
ऐसे ही बिन पहने चप्पल पाँव में........

क्या फकीर तुम्हारे गाँव में भी ऐसा होता है.......
रातें के अंधेरे में मौन रहकर कोई बालक रोता है.......

जैसे पुकारते है.....
मुझे मेरे दादाजी के नाम से.......

क्या तुम्हें भी तुम्हारा गाँव 
तुम्हारे दादाजी के नाम से पुकारता है........

क्या फकीर तुम्हारे गाँव में भी ऐसा होता है.......
दादी की परीयों वाली कहानी और पेडों पर तोता है......

जहाँ गाती है नदियाँ........
आज भी घोसला बनाती है पेडों पर गौरय्या.......

क्या तुम्हारे गाँव की गलियों में भी 
बाँसुरी बजाता है कोई कन्हैया.......

क्या फकीर तुम्हारे गाँव में भी ऐसा होता है.......
पंछी आजाद है और कहां जाता नदियों को माता है......

करती है सौलह श्रृंगार वसुंधरा भी 
जब आकाश प्रेम की बरसात करता है......

पत्तों की गोद में जाकर बैठ जाता है 
बनकर मोति एक बूंद चमकता है......

क्या फकीर तुम्हारे गाँव में भी ऐसा होता है.......
बनकर जुगनू कोई जीव रोशनी देता है......

कर देता है वो हत्या अपने भुख की,
बच्चों की अपने एक दिन की रोटी बचाने के लिए......

जगाकर प्रतिदिन प्रभाकर को,
फिर वो निकल जाता है कमाने के लिए.........

क्या फकीर तुम्हारे गाँव में भी ऐसा होता है.......
कोई किसान ऐसा उपवास रखकर सोता है.......

जब चाँदनियों की बारात 
आसमान में जश्न मनाती है.......

जब बरसात के मौसम में चाँद की छवि 
रास्तों पर दिखाई पड़ती है........

क्या फकीर तुम्हारे गाँव में भी ऐसा होता है.......
कदम पानी में पड़ते ही चाँद हिल जाता है......

जब जब माता सीता बसीं है स्त्री में......
तब तब पुरूष भी श्रीराम बन जाता है......

क्या तुम्हारे गाँव में भी श्याम, राधा को 
पनघट पर पानी भरने के बहाने से बुलाता है.......

क्या फकीर तुम्हारे गाँव में भी ऐसा होता है.......
प्रेम का अर्थ समझाने माधव का रूप नारायण लेता है......

           
                                  - आरती सुधाकर सिरसाट


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