साहित्य चक्र

01 May 2024

लता प्रसार जी की रचनाएँ





हवा की तपिश मौसम के आलिंगन में


लक्ष्य भेदना समय जानता हम तुम बैठे मूर्ख रहे
गपशप सारी उम्र हुई पर ये सारे मंथन सुर्ख़ रहे 
धक्का मुक्की का खेल यहां सत्ता तांडव समझो
मजदूर स्त्री के प्रति सदियों से कैसे कैसे रूख़ रहे!

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खाली पड़े खेत सारे पानी मिला हर ओर निहारे

जुमला जुमला खेल रहे सब
मेहनतकश ये झेल रहे सब
ये चकाचौंध बस कुर्सी का है
वादों के घोड़े पर ठेल रहे सब!

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हाथ बांध कर अन्न बटोरे चाहे बस यही लुटेरे

तितली सी ये डोर प्यार की बांधे जीवन
सौदागर कहां समझ पाए किसी का मन
आंख-मिचौली वक्त करे है जीत हार की
भूल-भुलैया बना बना लूटे जन जीवन!

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पगडंडियों पर तितर-बितर है दाना दाना

दुख की परमिता सम्भाल जाता कठिनाईयां
पीछा करती है हमेशा अपनी ही परछाइयां
उठो जागो निहारो समय बेसमय खुद को
राह मुश्किल बड़ी पा लेना गूंज की रानाइयां!

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लौट कर गांव जब-तक आएंगे गौशालाएं गुम जाएंगी

एक तार जो हमेशा ख़त्म हो जाती किसी अंधेरी गुफा में
फिक्रों से लबरेज़ वक्त बेवक्त दिनों-दिन घुल जाती हवा में
उसे बुत कहा जाए या कठपुतली ना ना स्वप्न की परछाई
वो रहेगी जिंदा रहेगी सदा किसी न किसी फलसफा में !

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खुरपी कुदाल किसी कोने कानाफूसियों में लगा है

बीज की नस्ल तोड़कर कुछ इजाद हो पाएगा क्या
सवाल ये नहीं की हमें चाहिए क्या सोचिए बचेगा क्या
बदलना उसूल है कुदरत का यहां कुदरत ही बदलना चाहते
हड़प्पा ज़मींदोज़ हुआ इतने बरसों बाद भी बना क्या!

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टाल की मिट्टी रोहन की अगुवाई में लगी है

मेहनत की इबारतें कलम छू नहीं पाई
हुक्मरानी तीमारदारी की रही परछाई
तरकीबें गुमराह की सदियां नहीं समझी
खुद को ज़ालिम व उनको माना खुदाई!

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