साहित्य चक्र

24 May 2024

आधुनिक भारत के मार्गदर्शक- ‘ज्योतिबा’


महान क्रांतिकारी, विचारक, समाजसेवी, लेखक एवं दार्शनिक महात्मा ज्योतिबा फुले को उनकी जयंती पर उन्हें शत्-शत् नमन। ज्योतिबा फुले का जन्म 11 अप्रैल 1827 में पुणे में हुआ था। ज्योतिबा का परिवार फूलों के गजरे आदि बनाने का कार्य करता था। फूलों के गजरे आदि बनाने का काम करने के कारण लोग उन्हें फुले नाम से जानने लगे। ज्योतिबा जब मात्र एक साल के थे, तो उनकी माताजी का निधन हो गया था। जिसके बाद ज्योतिबा का पालन पोषण सगुनाबाई नामक एक दाई ने किया। कहा जाता है सगुनाबाई ज्योतिबा फुले को बहुत ही ममता और दुलार से पाला था। 

सगुनाबाई ने ज्योतिबा को कभी मां की कमी महसूस नहीं होने दी। जिसके कारण ज्योतिबा फुले भी सगुनाबाई से बहुत अच्छा मानते थे। ज्योतिबा फुले को सात साल की उम्र में स्कूल जाने का मौका मिला, लेकिन जात-पात और भेदभाव के कारण उन्हें स्कूल छोड़ना पड़ा था। स्कूल छोड़ने के बाद भी ज्योतिबा की पढ़ने की जिज्ञासा कभी खत्म नहीं हुई। इसलिए सगुनाबाई ने ज्योतिबा को घर में पढ़ाना शुरू किया। सगुनाबाई घरेलू कार्यों खत्म करने के बार रोज ज्योतिबा को किताबें पढ़ाया करती थी। ज्योतिबा बचपन से ही आस-पड़ोस के बजुर्गो से विभिन्न विषयों पर चर्चा किया करते थे। लोग ज्योतिबा की सूक्ष्म और तर्कसंगत वाली बातों से बहुत प्रभावित हुआ करते थे।





ज्योतिबा फुले ने भारतीय समाज में फैली कई कुरीतियों को खत्म करने के लिए काफी संघर्ष किया, चाहे वह छूवाछूत हो या नारी-शिक्षा और विधवा-विवाह। ज्योतिबा की प्रतिभा और शिक्षा के प्रति रुचि अरबी-फारसी के विद्वान गफ्फार बेग मुंशी एवं फादर लिजीट साहब को बेहद प्रभावित कर गई। आपको बता दें, फादर लिजीट ज्योतिबा के पड़ोस में रहा करते थे। ज्योतिबा की इस प्रतिभा को देखते हुए फादर लिजीट ने ज्योतिबा का दोबारा स्कूल में दाखिला दिलाया। जिसके बाद ज्योतिबा फिर से स्कूल जाने लगे। ज्योतिबा स्कूल के उच्च कोटि के विद्यर्थियों में शामिल थे।

ज्योतिबा का मानना था आखिर इतना बड़ा देश यानि भारत गुलाम कैसे हुआ और क्यों है ? देश की गुलामी से ज्योतिबा को सक्त नफरत थी। फुले जी ने अहसास किया था, जब तक यह देश जातियों और पंथों में बंटा है, तब तक इस देश में सुधार संभव नहीं है। इसके लिए सबसे पहले लोगों की मानसिकता बदलनी होगी। उस समय देश में जात-पात, वर्गभेद अपनी चरम सीमा पर थी। स्त्री, दलित की दशा तो बताने लायक नहीं है। 

इस स्थिति को देखकर ज्योतिबा को बहुत ही दुख हुआ करता था। जिससे बाद फुले जी ने इन परिस्थितियों को समझते हुए सबसे पहले स्त्री और दलितों की शिक्षा के लिए सामाजिक संघर्ष का बीड़ा उठाया था। फुले जी का मानना था, अगर एक स्त्री शिक्षित होगी, तो पूरा परिवार शिक्षित होगा। इसलिए स्त्री को शिक्षित करना बेहद जरूरी हो जाता है। इसी समस्या के लिए ज्योतिबा ने दलितों और लड़कियों के लिए उच्च वर्ग से छिपाकर अपने घर में स्कूल चलाना शुरू किया। इस स्कूल में बच्चे छिप कर आते-जाते थे। जैसे-जैसे फुले जी को लोगों का समर्थन मिलने लगा, वैसे-वैसे फुलेजी ने स्कूल को खुलेआम चलना शुरू कर दिया। 

ज्योतिबा को यह स्कूल को चलाने में काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था। सामाजिक दवाब के कारण फुले जी को अपना स्कूल जल्दी बंद करना पड़ता था। इन्हीं कारणों को देखते हुए फुले जी ने अपनी पत्नी सावित्रीबाई को पढ़ना-लिखना सिखाया। जिसके बाद सावित्रीबाई को मिशनरीज के नार्मल स्कूल से प्रशिक्षण दिलवाया। प्रशिक्षण के बाद सावित्रिबाई फुले भारत की प्रथम प्रशिक्षित महिला शिक्षिका बनीं थी। सावित्रीबाई फुले के शिक्षा ग्रहण करने से हमारे समाज का उच्च वर्ग गुस्से के आपे से बाहर हो गया था। जब साबित्री बाई फुले स्कूल जाती, तो लोग उनके ऊपर तरह-तरह के अपमानित शब्द कहते और उनके ऊपर गोबर, कीचड़ फेंकते। 

परंतु सावित्रीबाई इस आपमान को पीकर अपना कार्य करती रहीं। कई बार लोगों ने ज्योतिबा को समाज से अलग करने की धमकियां दी। खुद ज्योतिबा के पिता ने उन्हें नाराज होकर घर से बाहर निकाल दिया। पिता के घर से बाहर निकालने के बाद ज्योतिबा और सावित्रीबाई को कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। मगर इस कठिनाई में वो अपने लक्ष्य पर अटल रहें।

महात्मा ज्योतिबा फुले ने सत्य शोधक समाज नाम के एक संगठन स्थापना की। जो संगठन दलितों और महिलाओं की शिक्षा हेतु काम करता था। धर्म, समाज और हमारी परम्पराओं के सत्य को सामने लाने के लिए उन्होंने कई पुस्तकें लिखी। जिसमें से एक- तृतीय रत्न, छत्रपति शिवाजी, किसान का कोड़ा, अछूतों की कैफियत हैं। 28 नवम्बर 1880 को ज्योतिबा फुले का महापरिनिर्वाण हो गया। ज्योतिबा की पुण्यतिथि को पूरा देश स्मृति दिवस के रूप में जानता हैं। डॉ भीमराव अंबेडकर भी ज्योतिबा फुले के आदर्शो से बहुत प्रभावित थे।

डॉ भीमराव अंबेडकर महात्मा ज्योतिबा फुले के लिए लिखते है- "महात्मा फुले मॉर्डन इंडिया के सबसे महान शूद्र थे। जिन्होंने पिछड़ी जाति के हिंदुओं को अगड़ी जाति के हिंदुओं का गुलाम होने के प्रति जागरूक किया। जिन्होंने महिलाओं, दलितों के शिक्षा के लिए और जागरूक के सबसे ज्यादा संघर्ष किया। इसलिए मैं उन्हें अपना तीसरा गुरू मानता हूं।" ज्योतिबा फुले ने अपने जीवन भर गरीबों, दलितों और महिलाओं के लिए संघर्ष किया। 1888 में मुंबई की एक विशाल सभा में ज्योतिबा को महात्मा की उपाधि दी गई।



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