पिता को पत्र लिखा था
वह मृत्यु के नगर गए थे
और अब पते की जरूरत थी
सब भाषाओं को देखा
अनंत धर्मग्रंथ खंगाले
शब्दकोषों की धूल खाई
पर पता नहीं मिला
अपने बाल नोचती
सारी पृथ्वी का भ्रमण करती
एक दिन पहुंची चेतना के नगर
ज्ञान की गली में
ध्यान का द्वार और
द्वार के उस पार
“उत्थान” का उद्यान
चित्त छूटा संशय गया
वहीं बोधिवृक्ष के नीचे
तथागत के चरणों के पास
जीवन मृत्यु के संधिकाल पर
अमृतरस से भरा कमंडल
कृष्ण की बंसी की धुन पर
गाते हुए आए कबीर
और नानक के हाथ से लेकर
सिंचित करने लगे एक ‘बीज’
मीरा का नृत्य और
सूफियों के चिमटे का ‘झम्म’
तत्क्षण
“नवपौध” का उद्गम
संख्यातीत सवालों की लपटें
और शीतल सा ‘उत्तर’
पिता का पता मिल चुका था
अब पत्र भेजने की आवश्यकता नहीं थी
अनुजीत इकबाल
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