साहित्य चक्र

30 November 2019

लिपट कर रो पड़ी मेरी खुशियां

हंसो  तुम  दर्द  पर  इतना   कि  सारे  जख्म जल जाये,
लिपट कर रो  पड़े  खुशियां  तेरे सब गम भी गल जाये।


सुबक  कर रात भर  तुम  क्यूं  भिगो देते हो तकिये को।
निकालो दिल से यूं उसको  कि वो पानी से जल जाये।

बहारें    लाख    हो    फैलीं    मगर   तन्हा   रहे   इतना,
जो  देखे  खुद  को  आईने  में  उसका  मुंँह  जल जाये।

जले  दिल  इसकदर  उसका   कि  आंखे लाल हो जाये,
वो   देखे  आसमां  जब  भी  वही  पर  चांँद  गल  जाये।

मुहब्बत   पाक   थी   मेरा  भला   क्यूं   मैं   घुटूं  जाना,
मिले  सौतन   मुझे  तेरी ,  तेरा  फिर  जी  मचल  जाये।

खुदा  का  हो  करम  इतना  मुहब्बत  फिर से हों तुमको,
तेरे   जैसा   मिले   तुझको   झगड़कर   दूर  चल  जाये।

नहीं  परवाह  उसको  "मन"  के   जीने  और  मरने  की,
लगे  जो  प्यास  उसको  आब,  सहरा  में  बदल  जाये।

                                             मनीष कुमार विश्वकर्मा


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