जी में आता है के अब तर्क मुहब्ब्त कर दूं,
ख़त तेरे सारे ही, हवाओं के हवाले कर दूं,
तकाज़ा ए दिल है कि इज़हारे मुहब्बत कर दूं,
नज़दीक से देखूं, और बरपा, क़यामत कर दूं,
बहुत अंधेरा है मेरे दिल के सभी कोनों में,
अब तेरी आमद से घर को मैं रौशन करलूं
तेरे अहसास की शिद्दत से जला जाता हूं,
तु ख़्वाब है,अब तुझको मैं हकी़क़त कर दूं,
"मुश्ताक़" एक हां का ही तलबगार हूं अब तो,
एक इशारे पर तेरे दुनिया से बग़ावत कर लूं,
- डॉ मुश्ताक अहमद शाह
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