उम्र की साँझ ढल रही है, और जीवन की दौड़ अब थमने लगी है। इस ठहराव में, दिल बार-बार एक ही ठिकाने की ओर मुड़ता है- वो ठिकाना, जहाँ हमारी आत्मा की नींव पड़ी थी: हमारा गाँव। यह केवल ईंट और मिट्टी का ढाँचा नहीं था, यह जीवन का संपूर्ण कैनवास था, जो आज भी अपनी गंध, अपनी ध्वनि और अपने रंग से हमारे हृदय को भाव-विह्वल कर देता है।
पीपल, नीम और वो ठंडी छाँव
गाँव का दृश्य शुरू होता है पीपल और नीम के विशाल वृक्षों से। पीपल, जिसके नीचे बैठकर दादाजी शाम को हुक्का गुड़गुड़ाते थे और गाँव के लोग चौपाल लगाते थे। उसकी ठंडी, पवित्र छाँव... वो केवल धूप से राहत नहीं थी, वो एक सुरक्षा कवच थी। और नीम, जिसकी कड़वाहट ने हमें रोगों से बचाया और जिसकी टहनियाँ हमारी दातुन बनीं। ये पेड़ महज़ वनस्पति नहीं थे, ये हमारे परिवार के सदस्य थे, हमारी संस्कृति के प्रतीक।
रिश्तों की डोर और बाबूजी
गाँव का जीवन रिश्तों की घनी पगडंडी थी। सबसे पहले याद आते हैं बाबूजी। उनका सख्त अनुशासन, लेकिन आँखों में भरा असीम स्नेह। उनकी पगड़ी और खेतों में उनके पसीने की गंध, जो हमें ईमानदारी और मेहनत का पाठ पढ़ाती थी। फिर दादी, जिनकी झुर्रीदार हथेलियों में दुनिया की सबसे बड़ी ममता थी। वो चूल्हे की धीमी आँच पर पकती कहानी सुनाती थीं, जहाँ राजा-रानी और परियों की बातें हमें सपनों की दुनिया में ले जाती थीं।
और हमारे दोस्त! वे नदी की मछली की तरह चंचल थे। गिल्ली-डंडा, कंचे, और खो-खो का वो उन्मुक्त खेल। आज की वर्चुअल दोस्ती के दौर में, उस मिट्टी पर एक साथ बैठने और दुःख-सुख बाँटने वाले दोस्तों की जगह कोई नहीं ले सकता।
अमराई, नदियाँ और संस्कृति का रंग गाँव की पहचान थी उसकी प्रकृति। नदियाँ, जो जीवनदायिनी थीं। उन नदियों के किनारे घंटों बैठना, पत्थर उछालना, या गर्मी की छुट्टियों में तैरना- वो सब आज भी रोमांच से भर देता है। नदी केवल जलधारा नहीं थी, वह हमारी आत्मा का दर्पण थी।
और हाँ, वो अमराई (आम का बगीचा)! गर्मियों में आम की कच्ची खटास और पके आमों की मिठास! अमराई में छिपा-छिपी खेलना और टूटी हुई डालियों से आम चुराकर खाने का जो मज़ा था, वो आज बड़े-से-बड़े मॉल में भी नहीं मिलता।
गाँव की संस्कृति उसके रगों में थी। तीज-त्योहारों का इंतज़ार साल भर रहता था। होली पर फाग गाना, दिवाली पर मिट्टी के दिए जलाना, और सावन में झूला डालना। ये सिर्फ़ रस्में नहीं थीं, ये एक सामुदायिक जीवन का उत्सव था, जहाँ पूरा गाँव एक परिवार बन जाता था।
गुरुजी और जीवन का ज्ञान
कैसे भूल सकते हैं अपने गुरुजनों को? स्कूल का वह साधारण कमरा, जहाँ गुरुजी छड़ी के भय से नहीं, बल्कि अपने ज्ञान और सम्मान से राज करते थे। उन्होंने किताबी ज्ञान के साथ-साथ जीवन का व्यवहारिक ज्ञान भी दिया। उन्होंने सिखाया कि मेहनत का फल मीठा होता है, और अनुशासन ही जीवन की कुंजी है।
आज, उम्र के इस पड़ाव पर, जब शहरों की भागदौड़ तेज चुकी है, तो यह एहसास गहरा होता है कि वो सुहाने पल बस यादों में रहते हैं। ये वो अनमोल पूंजी है, जो हर किसी के हृदय में नहीं होती। जिनके पास इन अमराईयों की छाँव, इन पगडंडियों की धूल और इन रिश्तों की गर्माहट की यादें हैं, वे वास्तव में सबसे धनी व्यक्ति हैं। और यही यादें, आज भी, हमें इस कृत्रिम दुनिया में भी जीने की ताक़त देती हैं।
- डॉ. मुश्ताक़ अहमद शाह सहज़











