साहित्य चक्र

04 December 2025

स्मृतियों की सुगंध और गाँव का हृदय, हमारी संस्कृति रिश्तों की डोर


​उम्र की साँझ ढल रही है, और जीवन की दौड़ अब थमने लगी है। इस ठहराव में, दिल बार-बार एक ही ठिकाने की ओर मुड़ता है- वो ठिकाना, जहाँ हमारी आत्मा की नींव पड़ी थी: हमारा गाँव। यह केवल ईंट और मिट्टी का ढाँचा नहीं था, यह जीवन का संपूर्ण कैनवास था, जो आज भी अपनी गंध, अपनी ध्वनि और अपने रंग से हमारे हृदय को भाव-विह्वल कर देता है।




​पीपल, नीम और वो ठंडी छाँव

​गाँव का दृश्य शुरू होता है पीपल और नीम के विशाल वृक्षों से। पीपल, जिसके नीचे बैठकर दादाजी शाम को हुक्का गुड़गुड़ाते थे और गाँव के लोग चौपाल लगाते थे। उसकी ठंडी, पवित्र छाँव... वो केवल धूप से राहत नहीं थी, वो एक सुरक्षा कवच थी। और नीम, जिसकी कड़वाहट ने हमें रोगों से बचाया और जिसकी टहनियाँ हमारी दातुन बनीं। ये पेड़ महज़ वनस्पति नहीं थे, ये हमारे परिवार के सदस्य थे, हमारी संस्कृति के प्रतीक।

रिश्तों की डोर और बाबूजी

​गाँव का जीवन रिश्तों की घनी पगडंडी थी। सबसे पहले याद आते हैं बाबूजी। उनका सख्त अनुशासन, लेकिन आँखों में भरा असीम स्नेह। उनकी पगड़ी और खेतों में उनके पसीने की गंध, जो हमें ईमानदारी और मेहनत का पाठ पढ़ाती थी। फिर दादी, जिनकी झुर्रीदार हथेलियों में दुनिया की सबसे बड़ी ममता थी। वो चूल्हे की धीमी आँच पर पकती कहानी सुनाती थीं, जहाँ राजा-रानी और परियों की बातें हमें सपनों की दुनिया में ले जाती थीं।





​और हमारे दोस्त! वे नदी की मछली की तरह चंचल थे। गिल्ली-डंडा, कंचे, और खो-खो का वो उन्मुक्त खेल। आज की वर्चुअल दोस्ती के दौर में, उस मिट्टी पर एक साथ बैठने और दुःख-सुख बाँटने वाले दोस्तों की जगह कोई नहीं ले सकता।

​अमराई, नदियाँ और संस्कृति का रंग ​गाँव की पहचान थी उसकी प्रकृति। नदियाँ, जो जीवनदायिनी थीं। उन नदियों के किनारे घंटों बैठना, पत्थर उछालना, या गर्मी की छुट्टियों में तैरना- वो सब आज भी रोमांच से भर देता है। नदी केवल जलधारा नहीं थी, वह हमारी आत्मा का दर्पण थी।

​और हाँ, वो अमराई (आम का बगीचा)! गर्मियों में आम की कच्ची खटास और पके आमों की मिठास! अमराई में छिपा-छिपी खेलना और टूटी हुई डालियों से आम चुराकर खाने का जो मज़ा था, वो आज बड़े-से-बड़े मॉल में भी नहीं मिलता।

​गाँव की संस्कृति उसके रगों में थी। तीज-त्योहारों का इंतज़ार साल भर रहता था। होली पर फाग गाना, दिवाली पर मिट्टी के दिए जलाना, और सावन में झूला डालना। ये सिर्फ़ रस्में नहीं थीं, ये एक सामुदायिक जीवन का उत्सव था, जहाँ पूरा गाँव एक परिवार बन जाता था।





गुरुजी और जीवन का ज्ञान

​कैसे भूल सकते हैं अपने गुरुजनों को? स्कूल का वह साधारण कमरा, जहाँ गुरुजी छड़ी के भय से नहीं, बल्कि अपने ज्ञान और सम्मान से राज करते थे। उन्होंने किताबी ज्ञान के साथ-साथ जीवन का व्यवहारिक ज्ञान भी दिया। उन्होंने सिखाया कि मेहनत का फल मीठा होता है, और अनुशासन ही जीवन की कुंजी है।

​आज, उम्र के इस पड़ाव पर, जब शहरों की भागदौड़ तेज चुकी है, तो यह एहसास गहरा होता है कि वो सुहाने पल बस यादों में रहते हैं। ये वो अनमोल पूंजी है, जो हर किसी के हृदय में नहीं होती। जिनके पास इन अमराईयों की छाँव, इन पगडंडियों की धूल और इन रिश्तों की गर्माहट की यादें हैं, वे वास्तव में सबसे धनी व्यक्ति हैं। और यही यादें, आज भी, हमें इस कृत्रिम दुनिया में भी जीने की ताक़त देती हैं।


- डॉ. मुश्ताक़ अहमद शाह सहज़



आज की प्रमुख रचनाएँ- 4 दिसंबर 2025




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उपवन उधार का
रोटी, कपड़ा और मकान
पाने को रोज दे रहे इम्तेहान
बस रह गया जीवन का यही मकशद,
दौड़े भागे हर कोई यहां,
खो कर इत्मीनान।

न ग़मो पर रो पाया,
न ही खुशियों पर मुस्कुराया।
जिससे मिलना था वक्त,
उसे न अपना एक पल दे पाया।

सारे जज्बातों का सौदा कर,
उधार का उपवन सजाया।

रातों की नींदें बेची,
ख्वाबों के पीछे ही भागे।
ललक का मौसम रहा हरदम
एक सा।
इस चूहे दौड़ में, रहे सबसे आगे।

काफूर होता रहा बचपन,
जवानी और अल्हड़ लड़कपन।

सब तुलना चाहे यहां सोने की तराज़ू में।
कम नहीं यहां कोई अपनी जुस्तजू में।

फिर क्या शिकायत रह गया,
जीवन के स्वाद का।
बस जिए जा रहे,
लेकर उपवन उधार का।

- रोशन कुमार झा


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कैसे यक़ीन करूं मैं...

जी तो रहा ही था पहले भी,
समां बदला लेकिन तेरी दस्तक से।
करवट ली ज़िंदगी ने फ़िर,
लौटना अब वापस यहां से...

कैसे यक़ीन करूं मैं ?

छेड़ती ही नहीं गर,पड़ा रहता,
कोने में कहीं किसी हाल में।
खींच लाई थी महफ़िल में मुझे,
तन्हा क़दम खींचना अब यहां से...

कैसे यक़ीन करूं मैं ?

चलने लगी थी ज़िंदगी इक धुन में,
हां ! उतार-चढ़ाव तो थे कुछ मगर,
तुम थी तो न था कोई फ़िक्र,
अब चलना आगे यूं बेगाने से...

कैसे यक़ीन करूं मैं ?

तलब तो लग चुकी है तेरी,
आदत ही नहीं ज़रूरत हो अब तुम।
मुझसे पहले जो समझती थी भावनाएं मेरी,
अब ख़ुद को समझना ख़ुद से...

कैसे यक़ीन करूं मैं ?

हरकतें मेरी हर थीं तेरी मुस्कान,
था मैं तेरे हर अंदाज़ पे कुर्बान,
हर सांस पे मेरे है अब भी तेरा नाम,
यूं मुंह फेर लोगी मुझसे ऐसे...

कैसे यक़ीन करूं मैं...
कैसे यक़ीन करूं मैं ?


- कुणाल दास


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चुस्त चालाकियां साडे नाल
करने वाले कदी चलणे नी,
रंग दे काले चल जाणे
पर दिल दे काले चलणे नी,
नोखे बण के रहन्दे नी
गल्लां होर जियां करदे नी,
कौण विश्वास करूं इन्हां तों
भेद किसी नूं दस्सदे नी,
चुस्त चालाकियां साडे नाल
करने वाले कदी चलणे नी,
रंग दे काले चल जाणे
पर दिल दे काले चलणे नी...

दूजे दे दिल दा भेद लै लेन्दे
अपणा कुछ भी दस्सदे नी,
गल्ला बणाउन्दे बड्डीयां बड्डीयां
अंदली गल्ल कोई दस्सदा नी,
दूरों तों देखदे रहन्दे तमाशा
नेड़े कोई आऊंन्दा नी,
चुस्त चालाकियां साडे नाल,
करने वाले कदी चलणे नी
रंग दे काले चल जाणे
पर दिल दे काले चलणे नी...
समय पर बदल जान्दे लोकी देखो
सच्च कदी कोई बोलदे नी ,
बहकी-बहकी गल्ला करदे
एतबार इन्हां दा कोई करदा नी,
"धीमान" क्या कह सकदे इन्हानू
गल्ला नवीयां करदे नी,
चुस्त चालाकियां साडे नाल,
करने वाले कदी चलणे नी
रंग दे काले चल जाणे
पर दिल दे काले चलणे नी...

- बाबू राम धीमान


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हर वक्त देखा हैं सबको चिल्लाते हुए
जैसे कुत्ते भौंकते है किसी को आते हुए

रिश्तों के फिजा से जहरीला धुआं उठ रहा है
यहां के लोग अब जी रहे है घबराते हुए

कितना भयानक मंजर होते जा रहे हैं यहां
आग रहम नहीं करता है घर को जलाते हुए

हम तो दूसरों के आग बुझाने में मसरूफ थे
लोग हाथ जला लेते, दूसरों को आग लगाते हुए

समंदर इतना खारा हो चुका हैं यहां का
प्यास मर चुकी है पानी को आजमाते हुए

कुत्ते के पूछ में घी लगाया जाता हैं हर रोज
उम्र ढल जाती है इक दूसरे को समझाते हुए

अज़ान देने से क्या फायदा हुआ है यहां
रब भी थक जाता है मुर्दों को जगाते हुए

खुदा से इल्तेजा है,खुशियों का मंजर लौटा दे
फिर से देखना चाहते बस्तियों को जगमगाते हुए

चमन को फिर से हरा भरा कर दो “ सदानंद”
वफ़ा के तितली, भंवरा आए मडराते हुए


- सदानंद गाजीपुरी



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वापस नहीं आते

कुछ लोग अपने
चले जाते हैं।
इतनी ख़ामोशी से
कि उनके जाने की आहट भी
कानों तक नहीं पहुँचती।

फिर हर रोज़
मन यही सोचता है।
क्या वे लौट सकते हैं?
क्या कभी उन्हें
फिर से देख सकेंगे
उन ही मुस्कानों के साथ?

लेकिन
जो एक बार चले जाते हैं,
वो वापस नहीं आते।

उनकी बातें,
उनकी हँसी,
उनका साथ।
सब यादों की दीवारों में
टंग कर रह जाता है।

हम रोज़ दरवाज़े की
आहट सुनते हैं,
छत की ओर देखते हैं,
कभी किसी हवा के झोंके में,
कभी किसी पुराने गीत में
उनकी मौजूदगी तलाशते हैं।

लेकिन वक्त के इस सफर में
बस उनकी यादें लौटती हैं,
वो खुद।
वापस नहीं आते।

उनके बिना उगता सूरज
अब भी रश्मि बिखेरता है,
ज़िंदगी की गाड़ी
रुकती नहीं।
मगर
मन का कोई कोना
हमेशा खाली रह जाता है,
क्योंकि
जो वास्तव में चले गए।
वे कभी
वापस नहीं आते।


- डॉ. मुश्ताक अहमद


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मेरा शहर घुमारवीं

क्या तारीफ करूँ मैं अपने शहर की
मेरे शहर का है अद्बुत नज़ारा
पहाड़ों के बीच बसा शहर घुमारवीं
सीर गंगा का है किनारा

हाइवे बीच में से गुजरता
लोगों के लगे रहते हैं मेले
कोई परिवार दोस्तों संग आता यहां
मौज करता है कोई अकेले

अस्पताल स्कूल कॉलेज सब हैं यहां
यह वो शहर हर चीज़ मिलती जहां
ब्यापारिक गतिविधियां रोजगार से
कईयाँ की जिंदगी की फुलवारी खिलती यहां

सीर गंगा के किनारे यहां लगता है मेला
रौनक लगती है दुकाने हैं सजाते
लोग बहुत आनंद मनाते हैं
शाम ढले लौट कर घर को हैं जाते

सीर गंगा के किनारे बना है सुंदर मोक्ष धाम
शिव भोले का भव्य मन्दिर है आलीशान
बहुत सुंदर बन गया सुनसान था जो स्थान
सीर गंगा पर बने चैक डैम ने लगाए चार चांद

हर गली हर रास्ता रौशनी से है नहाया
हमने अपने शहर को बहुत है चमकाया
साफ सफाई का रखा जाता है विशेष ध्यान
हर गली नुक्कड़ से कूड़ा है उठाया

सोहणी देवी बाबा बसदी की होती जय जयकार
कृपा उनकी होती है करते हैं हम पर उपकार
मेले का आनंद लेते है दूर दूर से आकर
प्रहरी बन कर हैं खड़ी सोहणी देवी तियून सरयून छन्जयार की धार

अब तो मनाली किरतपुर फोरलेन भी है बिल्कुल पास
लम्बा सफर होता था पहले हो जाते थे उदास
रेल भी धीरे धीरे पहुंच रही जिला मुख्यालय बिलासपुर
गोविंद सागर में जब पिलरों पर से गुजरेगी बन जाएगी खास

घुमारवीं हिमाचल के केंद्र में है बसता
सभी सुविधाएं यहां हैं भरपूर
मेरा शहर है सच में बहुत सुंदर
कभी आप भी यहां तशरीफ लाएं जरूर


- रवींद्र कुमार शर्मा



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कृष्ण बनना ही होगा

जब अन्याय बढ़े, अधर्म हँस रहा हो,
सत्य के पथ पर अंधेरा पसरा हो,
लोभ मोह से मन उलझा हो सारा;
कर्म की दिशा में हो संकट किनारा।

तब गीता की वाणी को अपनाना होगा,
संशय के क्षण में दीप जलाना होगा,
मार्ग दिखाना, संग लड़ना भी होगा;
अर्जुन नहीं, कृष्ण बनना ही होगा।

आप समाज जो बिखरता गया,
स्वार्थ की आग में जो जलता गया,
उसे संभालना- उसे जगाना होगा;
अर्जुन नहीं, कृष्ण बनना ही होगा।


- सुभाष 'अथर्व'


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अपनों का साया 

एक प्यारी सी गौरेया घर में आई
संग में अपनी जोड़ी भी लाई।
चीं चीं की आवाज करते
दिनभर दाना भी दोनों चुगते ।
तिनका तिनका चुन चुन कर लाते
एक सुंदर सा घौंसला बनाते।
अब वो दिन भी लगा आने
गौरेया ने अंडे भी दे डाले।
बारी बारी से दाना चुगने जाते
कोई घौंसले की ओर आए तो शोर मचाते।
अंडे अब फूटने को आए
चूजे देख चीं चीं कर खुशियां मनाएं।
नन्हे  चूजों की सेवा में लग जाते 
हौले हौले ये बड़े होने को आते।
चूजे शरीर पर पंख देख खुश होते
पर नहीं जानते ये पंख किस काम है आते।
गौरेया इन्हें उड़ना सिखाती
थोड़ा उड़ते फिर गिर जाते यह देख हौंसला बढ़ाती।
बच्चों ने आज उड़ान भरी मुड़कर घौंसले में नहीं आए
देख यह सब गौरेया रह नहीं पाए।
गौरेया अब बिन बच्चों के दाना न खाए
बस उनकी याद में बेचैन होती जाए।
गौरेया का दुःख साथी सह नहीं पाया 
सुबह उसे मरा हुआ गौरेया ने पाया।
अब गौरेया जोर जोर से चीं चीं करती
पागलों सी अंदर बाहर शोर मचाती।
घरवाले  उसके शोर को जब तक सुनते 
गौरेया नजर आई घौंसले का तिनका तिनका अलग करते।
जिस घौंसले को खुशी खुशी मिलकर था बनाया 
अपनों के न होने पर आज वही लगे मौत का साया।
अपनों का साथ जब तक  है होता 
घौंसला भी महल से कम नहीं लगता।
अपनों  का जब साथ नहीं होता
दुनिया में कुछ भी अच्छा नहीं लगता।


- विनोद वर्मा


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अलभ्य को पाने की अभिलाषा,
अगम्य में जाने की अभिलाषा,
देती है कितना मन को दुराशा।

फिर भी न छूटे जिसकी प्रत्याशा,
क्या यही है जीवन की परिभाषा।
रत्ना बापुली लखनऊ

कितने हैं पथ पर मिलते
कितने हैं बिछुड़ जाते,
पर कोई ही अपना नाम
उर में अंकित कर जाते।

- रत्ना बापुली


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