साहित्य चक्र

07 December 2025

आज की प्रमुख रचनाएँ- 7 दिसंबर 2025




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कविता ने समेट लिया

जो प्रेम... आक्रोश...
बेचारगी... नाराजगी...
दिल में थी।
वो कलम ने छेड़ दी,
थोड़ी जहन को ठेस लगी
और भावनाओं का दरिया उबलने लगा,
पाँव जलने को थे कि
कागजों ने अपने दायरें खोल दिए,
आखें खुली, उंगलियां फिसली
कुछ बहुत जरुरी छूट जाने को था कि
शब्दों ने दमन उलझा लिया,
लोग रूठे, कुछ अपने छूटे
और जीवन भी
अपना मुँह मोड़ने को था
कि कविता ने बाहें फैलायी
और मुझे समेट लिया।


- मंजू यादव 'मन'


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किसान रो साथी
रात रौ बेली
एक टांग रौ धणीं
बापड़ो अड़वों
खेत रूखाळ'अ
भूखों तिसायों
एक लता गाबा मांय
स्यावड़ तांई साथ निभावें
बाबो भला हीं गांईतरां करै
पण अड़वो आपरी पूरी ड्यूटी बजावें
अड़वो भला हीं बेजान हुवे
पण बाबा रो (किसान)जीव
पूरी रात अटक्यों रेवै अड़वा मांय
सांझ री बैळ्यां घरां टीपती बगत
बाबो अड़वा नै समळावणीं देवणों कद भूले हैं
समळावणीं लेंवतीं बगत
अड़वा रौ हांडों सो सिर
पून रै थपैड़ा सूं
हालतों बगै
ज्याण्यों अड़वों मुऴकैं हैं
अड़वों आपरी खातर
कद मांगें हैं रोटी
पण अड़वें रै पाण
धान सूं भरिजे हैं
किसान अर देस री कोठी।


- जितेंद्र बोयल


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शब्द

शब्द जुवां से निकल, धर लेते कई रूप,
मूर्त भी गड़ते प्यारी, कर भी देते कुरूप।
ख़ुशी चेहरे की बनते, सीना भी देते चीर,
पुष्प बन खुशबू देते, घाव देते ज्यूँ तीखे तीर।

प्रफुल्लित करते मन, कभी कर देते बोझिल,
सहज लगते कभी, कभी विश्वास जाता हिल।
अजनबी अपने बनते, जोड़ देते हैं रिश्ता,
अपने अजनबी हो जाते, रहता नहीं वास्ता।

जगा देते उम्मीद, कभी करते तोड़-मरोड़,
अनकहे ही रह जाते, कभी करते अति शोर।
मान-सम्मान भी लाते, आते बन कसीदे,
अपमान की बाढ़ बन, बहाते कई उम्मीदें।

कर देते चोटिल ये, बन जाते कभी मरहम,
इनसे ही पैदा होते, इनसे ही मिटते भ्रम।
कहकर भी कभी, नहीं कर पाते ये बयाँ,
बिन कहे भी, सुना देते हैं दिलों की दास्ताँ।

बिन शब्द कुछ नहीं, है बड़ी इनकी अहमियत,
पालन-पोषण और संस्कारों की है ये वसीयत।
कह सके कोई इनको, तो ये हैं अनमोल,
खुल जाता इनसे ही, हर पर्दा, हर पोल।


- लता कुमारी धीमान


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अविचल स्थिर एक टक में मूरत
पत्थर की तरह अविचल स्थिर
एक टक निहारता तुम को
तुम आती हवा की तरह
चंचल अपलक झट-पट
बह जाती आंखों के सामने से
जैसे कोई बिजली कड़की
चमकी
और अदृश्यता में हो गई लीन
लेकिन समझ नहीं पाया कोन सा
रिश्ता है तुमसे जिसने
मुझे बेजान आस्था का
पुजारी बना दिया
मैं आखिर पत्थर था, घूस गया
धीरे-धीरे स्थिरता को खोता गया
लोगों ने उखाड़ फेंका
परन्तु मेरा मौन, उफ़ न कर सका
सच तुम तुम भी मैं भी
ज़मीं आस्मां का दिखने वाला सच
जो झूठा है दूरियां
दूरियां सच सच


- डॉ .एम .ए .शाह


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बुरा इंसान

हां मैं बुरा हूं
क्योंकि मैं चाहता हूं
कि तुम हमेशा खुश रहो।

हां मैं बुरा हूं
क्योंकि मैं चाहता हूं
कि तुम बुरे लोगों से सदा दूर रहो।

हां मैं बुरा हूं
क्योंकि मैं चाहता हूं
कि तुम सदा मुस्कुराते रहो।

हां मैं बुरा हूं
क्योंकि मैं चाहता हूं
कि तुम्हारे जीवन में दुख न आए।

हां मैं बुरा हूं
क्योंकि मैं चाहता हूं
कि तुम मेरे बाद भी खुश रहो।


- डॉ.राजीव डोगरा


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ये आज ही पता चला
खूब सूरत लोग भी
काले दिल के होते
ये आज ही पता चला
तोड़ते थे दिल
और उगलते थे ज़हर
करते थे बातें बहकी-बहकी,
ये आज ही पता चला
खूब सूरत लोग भी
काले दिल के होते
ये आज ही पता चला...
कितना कचरा होता है दिलों में
इनके खिलाफत का,
सुख किसी का पचा नहीं पाते
उबल जाते हैं देखो
थोड़ा सा दुःख आने पर,
खो देते हैं आपा ज़रा सी बात पर और
कैसे रखते हैं दिल में बदले की आग ?
ये आज ही पता चला
खूब सूरत लोग भी
काले दिल के होते
ये आज ही पता चला...
राज इनके किसी से
छुपे नहीं होते,
दिखावा अपने बड़प्पन का
करते हुए नहीं थकते,
अंदर से कितने होते हैं खोखले
ये आज ही पता चला
खूब सूरत लोग भी
काले दिल के होते
ये आज ही पता चला...


- बाबू राम धीमान


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दुआरी पर खड़ी स्त्री

दुआर पर खड़ी वह स्त्री
सुबह की पहली किरण-सी लगती है,
हवा की हल्की खड़खड़ाहट में भी
उसकी चूड़ी की छनक
घर का आसरा बन जाती है।

उसके पैर की आहट
आंगन में फैली ओस को जगा देती है,
और उसकी हथेलियों से उठती खुशबू
रसोई की दहलीज़ तक
सीधी रोशनी बनकर पहुँचती है।

वह थामे रहती है दुनिया का दरवाज़ा,
पर खुद के लिए
एक छोटी-सी खिड़की भी नहीं खोल पाती।

बरामदे की धूल में उसके पांव
कहानी लिखते हैं-
कितनी बार उसने
खुद को पीछे रखकर
घर को आगे बढ़ाया है।

दुआर पर खड़ी वह स्त्री
एक नाव की तरह है-
भरी-पूरी, शांत, टिकाऊ,
जिसने परिवार के हर तट तक
सबको सुरक्षित उतारा है।

और जब सांझ गहराती है,
आंगन की हर लौ
उसके चेहरे पर टिमटिमाती है,
जैसे खुद प्रकाश भी जानता हो-
घर की सच्ची दहलीज़
वह स्त्री ही है
जो हर रात
दुआर पर चुपचाप पहरा देती रहती है।


- आरती कुशवाहा


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बदल दो किस्मत

बदल दो किस्मत की लेख,
लगे यदि वह सताने,
जो नही दिया प्रभु ने,
चलो हाथों से उसे भुनाने।

मानवता का बीज तुम
ऐसे बोओ जग चमन में,
जिसको जरूरत हो जिसकी,
पा जाए करुणा अगन में।

यह धरती हमें बहुत देती है
उसका भरा खजाना है।
हां बंटवारा सही हुआ नही,
इसलिए ही तो रोना है।

जिसके पास हो बहुतायत,
उसको यह फर्ज निभाना है,
निःसंतानों को देकर लाल,
झोली उनका भराना है।

कोई खाए क्यों हलवा पूरी,
क्यों पानी से भूख मिटानी है।
रीत बदल दो प्रभु की तुम,
स्वर्ग यहीं अगर बनानी है।

अपने अपने हिस्से का सुख,
थोड़ा बहुत बांट दो अगर,
दुःख स्वयं ही भागेगा,
मिलकर यदि तुम रहो मगर।

छोटी सी यह बात क्यों,
अब तक समझ न आई,
वृद्धाश्रम से लाओ दादी,
मोबाइल को करो बाई।

अपने ही अपने कब होते हैं,
तुमने ही बात यह बताई।
क्यों न फिर औरों को तुम,
अपना हमदर्द बनाओ भाई।

ऐसी ही रीत व प्रीत,
पहले निभाई जाती थी।
एक दूजै के संग रहकर,
हर रश्म निभाई जाती थी।

वैभव की भले ही कमी रही
पर तरसती न थी कभी आंते,
दुःख सुख मिलकर बांटते थे,
शांति की थी होती बातें।

निश्छल प्यार व त्याग के आगे,
परेशानी न आने पाती थी,
बच्चों की दुनिया न्यारी थी,
जब दादी कहानी सुनाती थी।

रामायण व महाभारत का भी
सहज ज्ञान हो जाता था।
चलचित्र सा कहानी भी,
बच्चों के मन में पलता था।

तभी तो कहावत यह भी,
हर अधरों में होता था,
प्रभु भी प्रेम के वश होकर,
मन मे आनंदित होता था।

पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ,
पंडित भया न कोय।
दो आक्षर प्रेम का,
पढै सों पंडित होय।


- रत्ना बापुली


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सब बंध भ्रमों के खुलने दे
ए मौत बावरी ठहर जरा
मनमीत से जी भर मिलने दे....

जिसके आगत की आस लिए देहरी, दर वाट जोहती थी,
जिसके बातों की सरगर्मी हृदय के भाव मोहती थी,
जिसकी सुधि कर व्याकुल है मन मिलने को अंखियां तरस रहीं,
ये सावन भादों क्या जाने साजन को सावन समझ रहीं,

सौदामिनि सौतन मत बनना
मन सुमन हृदय में खिलने दे
मनमीत से जी भर मिलने दे...

जीवन के सारे व्रत जिनका जप, तप, आराधन करते हैं,
जिनसे इस तन की पूर्णाहुति पूरित सब साधन करते हैं,
जिनके रंगों को पाकर के पल्लवित हुई इस भूतल पर,
इस अर्थहीन को अर्थ मिला मधुमास छा गया इस तन पर,

जो इस तन के आभूषण है
इस तन पर आकर सजने दे
मनमीत से जी भर मिलने दे...

संसार साक्षी है उसका जो सप्तपदी लेकर आयी,
जन्मांतर का संबंध जोड़ सौभाग्यवती मै बन आयी,
दृगबिन्दु नेह के पाकर के संसार पुराना भूल गई,
वह प्रणय अग्नि साक्षी मेरी उनके न कभी प्रतिकूल गई,

प्रस्थान अनुमति की खातिर
अब मिलन तो अंतिम करने दे
मनमीत से जी भर मिलने दे....


- माया सिंह


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डरा हुआ एक आदमी
डरते-डरते बदलता रहता है कपड़े
खोलता है,बंद करता है अपनी आस्तीनें
पुरखों से बचाते हुए नज़रें
कुछ सीखता है उल्टा-सीधा
माॅंजता है चाकू-छुरे-तमंचे-तलवारें
डरा हुआ एक आदमी
बीड़ी-सिगरेट-हुक्का नहीं पीता है
लेकिन जेब में एक माचिस ज़रुर रखता है
जलता है,आग लगाता है आग बुझाने में
बेहतर जानता है वह और
कुछ अधिक ही जानता है इन दिनों
जो भूखे हैं वे ही बॅंटेंगे‌ और कटेंगे
क्या मुफ़्त के राशन से किसी तरह बचेंगे
सोचने-समझने से वंचित करता है सब
डरा हुआ एक आदमी
डरे हुए आदमी के पास है कुर्सी ही विचार
इसलिए वृक्षों की हत्या का शोक़ीन वह
तोपें उसकी,तोपची उसके,तोपख़ाने उसके
न्याय उसका,न्यायाधीश उसके,न्यायालय उसके
ख़बर उसकी,मुख़बिर उसके,अख़बार उसके
फिर भी फिर-फिर डरता रहता है वह
बहती नदी के बहते जल से,जॅंगल से,ज़मीन से
दिन-रात हवा में उड़ता है वह
सरपट दौड़ती हवा से डरता है वह
सड़कों पर नाच रहे बच्चों से
मन की बात करते हुए डरता है वह
डरा हुआ एक आदमी


- राजकुमार कुम्भज


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डॉ. आंबेडकर! कैसे आया तुम्हारे मन में कि समस्त आदम जात एक है। ईश्वर, अल्लाह और जीसस् तक ने स्त्री और पुरुष में भेद किया और मानव को क‌ई जात में बांट दिया। मगर तुमने डॉ. आंबेडकर! सबको समान दृष्टि से देखा और उसी समानता से देश का संविधान लिख डाला। जिसके परिणाम आज दिख रहे हैं- महिला, दलित और आदिवासी देश के राष्ट्रपति तक बन रहे हैं। कौन सोच सकता था कि सामान्य परिवार का व्यक्ति जो चाय बेचता हो! वो भी देश का प्रधानमंत्री बन सकता है। डॉ. आंबेडकर! ये समानता के विचार, तुम्हारे मन में कहां और कैसे आए ?
- दीपक कोहली


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“नारी और मानव अधिकारों के महाशिल्पी"

जिसने जग में दी नई पुकार,
वो हैं बाबासाहेब- नारी के अधिकार।
हिंदू कोड बिल से खोली राह,
सम्मान मिले, न हो कोई आह।

मताधिकार का दिया उजियारा,
नारी बनी अब देश का तारा।
प्रसूति लाभ का आधार दिया,
हर माँ को सम्मान दिया।
केवल नारी ही क्यों- समता उनका स्वप्न महान,
छुआछूत मिटाकर जग में रखा मानवता का मान।
संविधान लिखकर दी हमें- स्वतंत्रता, समानता की ढाल,
न्याय, अधिकार, कर्तव्य- सबका खुला उजला भाल।

दलित, पीड़ित, शोषित सबके थे वो आधार,
कानूनों से दी सबको नई दिशा, नया संसार।
श्रमिक, किसान, मजदूरों का उन्होंने सम्मान लिखा,
हर कमज़ोर के हाथों में उन्होंने नया बल लिखा।

अंबेडकर जी की यही पहचान-
नारी सम्मान, समता, स्वाभिमान।
भारत का सूरज, समाज का दीप,
उनके कार्यों का नहीं कोई नसीब।


- बीना सेमवाल


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