साहित्य चक्र

08 December 2025

आलेख- तुरूप



नानाजी अक्सर कहा करते थे कि स्ट्रीट डॉग्स को घर के बाहर ही रखकर प्यार जताना चाहिए क्योंकि उनकी लाइफ हार्ड वर्किंग होती है। हद से ज़्यादा केयर या सुखी जीवन उन्हें रास नहीं आती। स्ट्रीट डॉग्स गलियों में घूमते,लात-फटकार खाते,बाहरी आबोहवा में ही सर्वाइव करने के आदी होते हैं। ज्यादा आराम देने पर अक्सर देखा गया है कि किसी न किसी बहाने बीमार पड़ते हैं और चल भी बसते हैं कभी-कभी। तो वे भी एक स्ट्रीट डॉग को पाले थे नाम था तुरुप।




तुरुप अपने चाल-चरित्र, रहन-सहन, खान-पान में बिल्कुल साधु-संत टाइप था। चूंकि मेरे नानाजी आनन्द मार्ग से जुड़े थे तो दोनों का आपसी लगाव खूब जमता था। जन्म के बाद से ही नानजी की छत्रछाया में रहने की वजह से संस्कार भी आ गया था उसमें। बाक़ी कुत्तों की तरह खाना देखते ही टूट पड़ना या मांसाहार देखकर खुश हो जाना उसके स्वभाव में नहीं था।

वह लिमिट में खाता था और वो भी मूड रहे तब। अगर वह सोया हुआ है और सामने खाना रख दिया गया तो भी वह हल्का सा आंखें खोलकर देखता और वापस सो जाता था। उसकी नींद पूरी होने तक में कोई और कुत्ता उस खाया नहीं तब वो उठकर खाता वरना उसे फ़र्क नहीं पड़ता। शायद इसी कारण नानाजी उसे "कुढ़ी"(आलसी) भी कहा करते थे। बिना सब्जियों के खाना या रात को रोटी छोड़ कर चावल मजाल है कोई खिला दे। वह चावल सिर्फ एक टाइम दोपहर को खाता था।इसी कारण मंझले मामाजी कहते थे कि यह अपनी सेहत के प्रति भी काफ़ी सजग है। इसे डायबिटीज और कॉलेस्ट्रॉल का भी पूरा ख्याल है।




वक्त के साथ अब तुरुप जवान भी हो रहा था। बचपन में शायद किसी वाहन की चपेट में आने के कारण उसकी कमर थोड़ी लचक गई थी और चलते टाइम मूवमेंट साफ झलकता था कि उसे सीधा चलने में दिक्कत होती है। जब भी मैं रांची से आता तो अहले सुबह मेरे साथ जॉगिंग में जाना और दिनभर मेरे साथ रहना उसकी आदतों में शुमार था। आगे-आगे चलते हुए अचानक कोई मजबूत या खतरनाक कुत्ता दिखने पर दुम दबाकर मेरे पीछे छुप जाता था। लेकिन अपने से कमजोर कुत्ते को देखकर गुर्राता भी खूब था। समय के साथ तुरुप के कमर की प्रॉब्लम भी अब जाती रही और वह एक मोटा-ताजा गबरू जवान कुत्ता बन चुका था। अब वह किसी कुत्ते से डरता भी नहीं था।

बीतते वक्त के साथ मुझे भी मामा घर छोड़ना पड़ा। लेकिन जब भी वहां जाता तुरुप मेरे साथ अपनी दिनचर्या नहीं भूला था। अगर मैं समय नहीं दे पा रहा फिर भी सुबह कचौड़ी और आलू-चोप मुझसे वसूल करने के बाद ही मुझे रिलीज़ करता था। नानाजी भी अब बीमार रहने लगे। लेकिन तुरुप की देखभाल घर के बाक़ी सदस्यों सहित पूरे मुहल्ले वाले अच्छी तरह से रखते थे। पूरा मुहल्ला अब उसकी सल्तनत बन चुकी था। तुरुप अब भरे-पूरे परिवार के साथ अपनी अगली पीढ़ी को भी उस मुहल्ले में स्थापित कर चुका था।




जिस दिन नानाजी की मृत्यु हुई उस दिन बार-बार वह घर और बस स्टैंड का दौरा कर हर आती-जाती गाड़ियों का मुआयना करता रहा। देर रात जब एंबुलेंस से उनका शव आया तो कमरे की खिड़की से लटककर बार-बार झांकता रहा। सुबह अंतिम संस्कार के लिए नदी भी गया और अगले तीन दिनों तक उसने कुछ भी नहीं खाया। नानाजी के दशकर्म समाप्त होने के बाद हमलोग वापस घर तो आ गये।

दैनिक जीवन में व्यस्तता के साथ ही तुरुप का ध्यान दिमाग़ से उतरता चला गया। वक्त बीतने के साथ अब तो नज़र नहीं आता है। शाय़द उसकी भी मृत्यु हो चुकी होगी। लेकिन कब, कहां और कैसे किसी को नहीं मालूम। लेकिन अब भी जब मामा घर जाता हूं तुरुप की बतौर हमारे जीवन का हिस्सा यादें हमेशा जीवन में अमर होकर अहसास दिलाती रहती हैं।


- कुणाल


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