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'पूछ रहा आईना मुझ से'
पूछ रहा आईना मुझसे,
दो नावों का तू सवार बना क्यूँ है,
तैरना है या डूबना है,
बस तेरे फैसले पर ही तो टिका है |
आईना झूठ नहीं बोलता,
फिर भी तू समझता ही नहीं क्यूँ है ?
सच कहना मेरी आदत है,
पर तुझे सच सुनने की आदत कहाँ है ?
डर तुझे दूर भगाता मुझसे,
सच जानने को फिर पास मेरे आता क्यूँ है ?
झूठ छुपाना पसंद तुझे है,
पर मुझमें झूठ कहने की आदत कहाँ हैं ?
रोज धोता है तू चेहरा अपना,
देखने को चमक फिर भी पास मेरे आता क्यूँ है ?
धूल से सना रहता हूँ मैं,
साथ झूठ का देना, मुझे गबारा कहाँ है ?
रोज बदलता है तू वेश अपना,
असलियत अपनी छुपा इतना इतराता क्यूँ है ?
सच्चाई की बौछार से ,
परत झूठ की बहते ही, असली चेहरा छुपता कहाँ है ?
जानता हूँ बखूबी फितरत तेरी,
आईने रोज बदलता, फिर भी दिखता वही जो तू है,
मुझे तोड़ कर भी देखा तूने,
हर टुकड़ा मेरा पर सच दिखाने से डरता कहाँ हैं ?
दिखावे के फूलों की गठरी खूब ढोई,
जाना अब सच हल्का इतना, जितनी फूलों की खुशबू है ,
सच्च की सच्च में हस्ती बड़ी है,
सच्च को जो दबा पाए, झूठ का इतना रुतबा कहाँ हैं ?
टूट कर भी मैं सच्च नहीं छोड़ता,
जाने निराधार झूठ बल कैसे रहता चलता तू है ?
पूछता है आईना मुझसे,
है निश्चित डूबना, दो नावों का सवार बचा कहाँ है ?
- धरम चंद धीमान
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बरसात रुमाल को सुखाने नही देता
गमजादा मुझे मुस्कुराने नहीं देता
धूल भरी आंधियों का मंजर है
खौफ दरीचो से पर्दा हटने नही देता
टूटा हुआ ख्वाबों का आईना
ठीक से सजने संवरने नहीं देता
धूप से दरारें पड़ गई है जमीन में
उस इलाके में सावन गुजरने नहीं देता
दिलो में इतने टांके लग चुके हैं
यादें दुःख से उभरने नहीं देता ।
ख्वाहिशों के जुस्तजू में बेहाल जिन्दगी
सुकून से न जीने देता न मरने देता
मुफलिसी ने गजब कमाल कर दिया
किसी के दिलो में उतरने नहीं देता
दिलो पर बर्फ जमने का सिलसिला जारी हैं
कब्बख्त ठंड लिबास को बदलने नही देता
पत्थरों के शहर में घर बना कर रहे हैं
शीशे के घरों को संभलने नहीं देता
मजबूरियों ने जंजीर में जकड़ रखा है
चलना भी चाहे, हालात चलने नही देता
तमन्नए बर्फ के तहखानों में तब्दील है
मुश्किलें मौसम को बदले नहीं देता
इंतजार की भी इंतहा हो गई सदानंद
हिज़्र की अंधेरी रात को ढलने नहीं देता
- सदानंद गाजीपुरी
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किसान गरीब देखा
बनाता जो है चिप्स कुरकुरे,
उसको तो हमने अमीर देखा।
बनाता जो है टोमेटो सॉस,
उसको ना ही हमने गरीब देखा।
पैकेट की जो चावल आटा सत्तू,
कंपनी की खूबसूरत तस्वीर देखा।
लिया जो सिनेमा हॉल में पॉपकॉर्न,
क्या गजब हमने उसका रेट देखा।
बना रहा जो सिगरेट तंबाकू जी,
उसकी अजीब ठाट मौज देखा।
खेत के रेट से बिकते बाजारों तक,
रेट अंतर जमीन आसमान का देखा।
कठिनाइयों से लड़ने के बावजूद,
उस चेहरे पर प्यारी मुस्कान देखा।
रखवारी मे रात भर अखियां मीच,
कर्ज से लदा किसान गरीब देखा।
उगाया जिसने खून पसीने से सिच,
उसके तन पर सिले फ़टे वस्त्र देखा।
धूप ठंड की मार को झेलता,
बस उस किसान को गरीब देखा।
भूख प्यास चिंता छोड़ 'रघु',
खेत खटता किसान गरीब देखा।
केवल उस धरतीपुत्र अन्नदाता को,
सतरंगी दुनिया में बस गरीब देखा।
है अन्नदाता के हमसब कर्जदार,
जिसे हर परिस्थितियों से जूझते देखा।
देश के किसानो को नमन बारम्बार,
जो कितनों का है पेट भरते देखा।
- राघवेन्द्र प्रकाश 'रघु'
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जहर ही जहर
हम उस देश के वासी हैं
जिस देश में गंगा बहती है।
जहां डाल-डाल पर सोने की
चिड़िया करती है बसेरा
वो भारत देश है मेरा।
इन गीतों का महत्व ही
आज समाप्त कर दिया-
लूट खसोट, ठगविद्या, आडंबरी आचरण,
हाय पैसा हाय पैसा,
झूठ ही झूठ, मुंह में जुवां में जहर,
भोजन खाद्य एवं
पेय पदार्थों में भी ज़हर
सब्जी दूध मिष्ठान में भी जहर,
जीवन रक्षक दवाओं में भी जहर,
राजनेताओं के आचरण से भी ज़हर
कानों में शोर का जहर,
सांसों में जहर, जल में जहर,
खान-पान, साज-सज्जा
और वेशभूषा में जहर।
मूल लक्ष्य येन-केन प्रकारेण
धन सम्पत्ति उपार्जन
और तो और नशाखोरी
दिनों-दिन ज़हर जहर
और फिर जिंदगी पर भारी जहर।
हे कलयुगी मानव! जरा ठहर
मत घोल, बन्द कर दे,
जीव-जंतु पशु-पक्षी,
वनस्पति और धरा की
जीवन लीला में
ज़हर का कहर..
जहर ही जहर...
जहर ही जहर...
- बृजलाल लखनपाल
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पता नहीं, ये अजनबी‑सा शहर
मुझे पहचानता भी है या नहीं,
पर मेरी कल्पनाओं के पंखों पर
ये रोज़ मेरे संग उड़ता है कहीं।
कितनी सहजता से
मेरी कलम की नोक पर उतर आता है,
जैसे बरसों पुराना कोई रिश्ता
धीरे‑धीरे फिर से लौट आता है।
कभी गलियों की ख़ामोशी में
मेरे बीते दिनों की आहट सुनाई देती है,
कभी भीड़ में भी
मेरी ही धड़कनों की गूंज समाई रहती है।
पर ये शहर मुझसे अंजान क्यों है,
जबकि मैं इसे हर शब्द में जीती हूँ,
कैसे वाकिफ होगा ये
मेरी कलम की उन राहों से
जिन पर मैं चुपचाप चलती हूँ।
शायद शहरों को पहचानने में
समय नहीं, एहसास लगता है,
और शायद एक दिन
ये शहर भी समझ जाएगा
कि मैं भी कहीं
इसी की कहानी का हिस्सा लगती हूँ।
- अंशिता त्रिपाठी
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इश्क़ हो जायेगा मुझसे
दिसंबर की ये सर्दी है मैं न कहता था,
आ जाओ न क़रीब मैं न कहता था,
नज़र को अपनी नज़र से बचा के रख,
इश्क़ हो जायेगा मुझसे मैं न कहता था,
दयारे राह में चराग़ मत जलाओ तुम,
हिफ़ाज़त नहीं होगी मैं न कहता था,
मिला भी नहीं पता भी देकर नहीं गया,
अब तो तन्हाइयां होंगी मैं न कहता था,
ज़ख्म ये जुदाई के सहे नहीं जाते अब,
मसीहा लौट के न आएगा मैं न कहता था,
अब मैं बनता और संवरता भी नहीं हूँ,
रेत पर बने घरौंदे टूटे जाएंगे मैं न कहता था,
नए ज़माने की ये लहरें आवारा बहुत है,
दिल से दिल लगी अच्छी नहीं होती है,
मेरी बात तुमने मनी ही नहीं मेरे हम नशीं,
दिल टूट जाएगा मुश्ताक़ मैं न कहता था,
- डॉ. मुश्ताक़ अहमद शाह सहज
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बदलते वक्त
बदलते वक्त के साथ
जो बदला
सच मानो तुम
सफलता उसे ही मिली
जो ठहरा रहा अपनी जिद पर
असफलता उसे ही हाथ लगी
फिर दूसरों के सिर दोष मढ़कर
खुद को निर्दोष साबित करता रहा
लेकिन फिर भी खुद में विश्लेषण
नहीं कर देखा कि
गलती मेरी ही था, जो बदल न पाया
झुंझलाहट, उलझन परेशान हो
सबको ही है वो परेशान करता रहा
लाख समझाया अपनों-पराये ने
लेकिन वो कहाँ समझ पाया ?
अंततः वो इंसान...
फिर इंसानियत को भूलकर
यही कदम उठाया,
खामोशी का रूख अपनाकर
सभी से दूर होता गया।
सच कहते है,
बदलते वक्त में
बदलना बहुत ही जरूरी है
यही जीवन का सार सही है
सुनो! चुन्नू कवि तुम भी एक बात
बदलते वक्त के साथ
तुम भी बदल जाओ
रखो सदैव याद
- चुन्नू साहा
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बाप
बाप ने उंगली पकड़ना सिखाई
हर हालात से लड़ने की बारीकियां भी बताई।
तब मन में बहम की बदरी थी छाई
बाप की हर बात समझ नहीं आई।
आज जब ठोकर है लगती
तो उनकी बात पता चलती।
बुरे वक्त से उबरने का सलीका बताते
पर तब उनकी बातों पर गंभीरता नहीं जताते ।
बाप का साया ऐसा ही छाया रहेगा
क्या पता था मन का यह वहम झकझोर करेगा।
दुनिया जो कुछ भी है सिखाती
वो सब बाप की बातों में नजर है आती।
बोलते थे बाप हमेशा नहीं रहेगा
एक दिन तू भी ये शब्द जरूर कहेगा।
काश तुम्हारी बातों को गौर से सुनते
तो आज ये दर्द भरे कांटे नहीं चुभते।
- विनोद वर्मा
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फैलते शहर
फैलते हुए शहरों, अपनी वहशियत रोको ज़रा,
मुझको अपने घर की बस इक साधी छत चाहिए।
हर तरफ़ दीवारें उठती जा रहीं बेहिस्मती से,
इस जहाँ को साँस लेने की भी फ़ुरसत चाहिए।
नख़्ल-ए-उम्मीदें भी सूखें, धूप है तामीर की,
ज़िन्दगी को थोड़ी सी सब्ज़ा-ए-रहमत चाहिए।
शोर-ए-दौराँ में परिंदों की सदा दबने लगी,
शहर को थोड़ी खामोशी की भी आदत चाहिए।
रात में चाँद की सूरत भी नज़र आती कहाँ,
रौशनी को हद में रहने की सियासत चाहिए।
रुख़्सतें देती हैं नदियाँ रोज़ अपने किन्तरों से,
ख़ुश्क लम्हों को बचाने की हिमायत चाहिए।
काट देना जंगलों को कौन सा हासिल हुआ?
मरहला-ए-ज़िन्दगी को कुछ अमानत चाहिए।
ख़ुदगरज़ मीनारें छूने को फ़लक को उठ गईं,
आदमी को पाँव तले थोड़ी ज़राअत चाहिए।
कर्ब-ए-तामीरात ने हमसे हवाएँ छीन लीं,
हसरतों को अब हवा की राहत चाहिए।
फैलते दानव शहर की बढ़ती बेरहम चाल में,
बस्तियों को फिर से थोड़ी सी कुदरत चाहिए।
ग़ालिबो! इस शहर की बेताबियों में खो न जाओ,
ज़िन्दगी को छत भी चाहिए, कुछ फ़ुर्सत भी चाहिए।
- शशि धर कुमार
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सुख़न-वार बने दर-बदर भटकते हैं हम इन महफ़िलों में,
ना जाने क्यूँ सुकून की तलाश में भटकते है हम इन महफ़िलों में।
यहाँ कोई इश्क़ का मारा, कोई ज़माने का सताया हुआ हैं,
और एक हम हैं की अपने ग़मों का इलाज ढूंढते है इन महफ़िलों में।
चाहे उम्मीद कह लो या हमारे इस नादान दिल की जिद,
आज भी उस जाने-पहचाने चेहरे को ढूंढते है हम इन महफ़िलों में।
तालियों की गूंज, वाह-वाही और दाद तो मिल जाती हैं,
फिर भी हम भीड़ में फ़क्र भरी वो दो आँखें ढूंढते है इन महफ़िलों में।
अधूरी ख़्वाहिशें, टूटे ख़्वाबों के निशान मिलते है इन महफ़िलों में,
टूटकर बिखरकर फिर संभलते इंसान देखते हम इन महफ़िलों में।
इश्क़ और मोहब्बत के नए पैमाने समझ आए हमें इन महफ़िलों में,
कई रिश्तों के नए-नए से मायने समझ आए हमें इन महफ़िलों में।
जज़्बातों को एक मकान मिला हैं हमें इन महफ़िलों में,
जिने के लिए कुछ नया सा सामान मिला है हमें इन महफ़िलों में।
बहोत भटके हम बेकस राहों पर,
ना जाने क्यूँ सुकून की तलाश में भटकते है हम इन महफ़िलों में।
यहाँ कोई इश्क़ का मारा, कोई ज़माने का सताया हुआ हैं,
और एक हम हैं की अपने ग़मों का इलाज ढूंढते है इन महफ़िलों में।
चाहे उम्मीद कह लो या हमारे इस नादान दिल की जिद,
आज भी उस जाने-पहचाने चेहरे को ढूंढते है हम इन महफ़िलों में।
तालियों की गूंज, वाह-वाही और दाद तो मिल जाती हैं,
फिर भी हम भीड़ में फ़क्र भरी वो दो आँखें ढूंढते है इन महफ़िलों में।
अधूरी ख़्वाहिशें, टूटे ख़्वाबों के निशान मिलते है इन महफ़िलों में,
टूटकर बिखरकर फिर संभलते इंसान देखते हम इन महफ़िलों में।
इश्क़ और मोहब्बत के नए पैमाने समझ आए हमें इन महफ़िलों में,
कई रिश्तों के नए-नए से मायने समझ आए हमें इन महफ़िलों में।
जज़्बातों को एक मकान मिला हैं हमें इन महफ़िलों में,
जिने के लिए कुछ नया सा सामान मिला है हमें इन महफ़िलों में।
बहोत भटके हम बेकस राहों पर,
अब अपना-सा कारवां मिला है इन महफ़िलों में,
सुख़न-वार बनकर ही सही,
सुख़न-वार बनकर ही सही,
हमें एक मुक्कमल जहाँ मिला है इन महफ़िलों में।
- नाज़िया शेख
- नाज़िया शेख
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मैं आज रोना चाहता हूँ
प्रेम के परिप्रेक्ष्य में
मैं कुछ बताना चाहता हूँ
आज तुम बैठो जरा
मैं कुछ सुनाना चाहता हूँ।
दो मुझे अधिकार थोड़ा
स्वीकृति के रूप में
आज मैं तुमसे वही फिर
हक जताना चाहता हूँ।
हैं उमड़ते आजकल
बादल मेरे जज़्बात के
हाथ कंधे पर रखो
मैं आज रोना चाहता हूँ।
तल्खियां जो भी रहीं
छोड़ो चलो अब जाने दो
प्रेम पथ पर सहपथिक
बनकर मैं चलना चाहता हूँ।
रूठना और फिर मनाना
प्रेम के ही रूप हैं
बन पुजारी प्रेम का
जीवन बिताना चाहता हूँ।
जीवन बिताना चाहता हूँ।
प्रेम के परिप्रेक्ष्य में
मैं कुछ बताना चाहता हूँ
आज तुम बैठो जरा
मैं कुछ सुनाना चाहता हूँ।
दो मुझे अधिकार थोड़ा
स्वीकृति के रूप में
आज मैं तुमसे वही फिर
हक जताना चाहता हूँ।
हैं उमड़ते आजकल
बादल मेरे जज़्बात के
हाथ कंधे पर रखो
मैं आज रोना चाहता हूँ।
तल्खियां जो भी रहीं
छोड़ो चलो अब जाने दो
प्रेम पथ पर सहपथिक
बनकर मैं चलना चाहता हूँ।
रूठना और फिर मनाना
प्रेम के ही रूप हैं
बन पुजारी प्रेम का
जीवन बिताना चाहता हूँ।
जीवन बिताना चाहता हूँ।
- विजय कनौजिया
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साहब! आख़िर हैं तो हम कुत्ते ही
भौंक ही तो सकते हैं ,
इसके अलावा और
कर ही क्या सकते हैं ,
हम आपकी तरह
भव्य और सभ्य तो नहीं ,
कोट, पैंट, स्कार्फ और
टाई तो पहन नहीं सकते ,
केवल और केवल भौंक ही तो सकते हैं
साहब! आख़िर हैं तो हम कुत्ते ही
भौंक ही तो सकते हैं...
साहब! आख़िर आप तो आप ही हैं
भाषण दे सकते हो,
अपनी बात रख सकते हो
अकड़ कर चल सकते हो,
डरा, धमका सकते हो
नीचा दिखा सकते हो, पर
हम तो ऐसा नहीं कर सकते
क्यों नहीं कर सकते?
आख़िर हैं तो कुत्ते ही
साहब! आख़िर हैं तो हम कुत्ते ही
भौंक ही तो सकते हैं...
नस्लें हमारी अलग अलग है पर
भाग्य हमारा इससे भी अलग है,
कोई गाड़ियों में घुमाता है
तो कोई घर में पालता है,
और तो और कोई
गले में पटा डाल कर रखता है ,
आपकी तरह हम साहब तो नहीं बन सकते
क्योंकि हैं तो कुत्ते ही,
साहब! आख़िर हैं तो हम कुत्ते ही
भौंक ही तो सकते हैं...
हमारे बारे में एक कहावत
जरूर प्रचलित है,
ज़रा गौर कीजियेगा
समझो बात को, कुत्ते क्यों भौंकते हैं रात को
भौंकने के सिवाय
और कर ही क्या सकते हैं ?
और वह भी रात में ही
टांका लग गया
तो दिन में भी भौंक लेते हैं ,
अपनी गली में तो
कभी हम भी शेर बन जाते हैं ,
पर उसका क्या फायदा ?
आपकी तरह भव्य और सभ्य तो नहीं
आख़िर हैं तो हम कुत्ते ही ,
साहब! आख़िर हैं तो हम कुत्ते ही
भौंक ही तो सकते हैं...
भौंक ही तो सकते हैं ,
इसके अलावा और
कर ही क्या सकते हैं ,
हम आपकी तरह
भव्य और सभ्य तो नहीं ,
कोट, पैंट, स्कार्फ और
टाई तो पहन नहीं सकते ,
केवल और केवल भौंक ही तो सकते हैं
साहब! आख़िर हैं तो हम कुत्ते ही
भौंक ही तो सकते हैं...
साहब! आख़िर आप तो आप ही हैं
भाषण दे सकते हो,
अपनी बात रख सकते हो
अकड़ कर चल सकते हो,
डरा, धमका सकते हो
नीचा दिखा सकते हो, पर
हम तो ऐसा नहीं कर सकते
क्यों नहीं कर सकते?
आख़िर हैं तो कुत्ते ही
साहब! आख़िर हैं तो हम कुत्ते ही
भौंक ही तो सकते हैं...
नस्लें हमारी अलग अलग है पर
भाग्य हमारा इससे भी अलग है,
कोई गाड़ियों में घुमाता है
तो कोई घर में पालता है,
और तो और कोई
गले में पटा डाल कर रखता है ,
आपकी तरह हम साहब तो नहीं बन सकते
क्योंकि हैं तो कुत्ते ही,
साहब! आख़िर हैं तो हम कुत्ते ही
भौंक ही तो सकते हैं...
हमारे बारे में एक कहावत
जरूर प्रचलित है,
ज़रा गौर कीजियेगा
समझो बात को, कुत्ते क्यों भौंकते हैं रात को
भौंकने के सिवाय
और कर ही क्या सकते हैं ?
और वह भी रात में ही
टांका लग गया
तो दिन में भी भौंक लेते हैं ,
अपनी गली में तो
कभी हम भी शेर बन जाते हैं ,
पर उसका क्या फायदा ?
आपकी तरह भव्य और सभ्य तो नहीं
आख़िर हैं तो हम कुत्ते ही ,
साहब! आख़िर हैं तो हम कुत्ते ही
भौंक ही तो सकते हैं...
- बाबू राम धीमान
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राष्ट्रगीत और राष्ट्रगान आता है या नहीं
इससे कैसे पता चलता है कि आप देशभक्ति है या नहीं!
किसान कड़ाके की ठंड में खेत में पानी डालें या नहीं
मजदूर को उसकी मजदूरी मिली या फिर नहीं
मगर यह कौन तय करेगा कि वो देशभक्त है या नहीं!
सरकारी विद्यालयों में अध्यापक है या नहीं
विधायक जी ने नई गाड़ी खरीदी या नहीं
मगर यह कौन तय करेगा कि वो देशभक्त है या नहीं!
महिलाएं अकेली बाहर निकल सकती है या नहीं
सोशल मीडिया पर कोई गंदा कमेंट करेगा या नहीं
मगर यह कौन तय करेगा कि वो देशभक्त है या नहीं!
अब्दुल व जॉर्ज के धर्म से नफरत होगी या नहीं
एकलव्य व शंबूक का अंगूठा फिर कटेगा या नहीं
मगर यह कौन तय करेगा कि वो देशभक्त है या नहीं!
राष्ट्रगीत और राष्ट्रगान आता है या नहीं
मगर पता कैसे चलेगा आप देशभक्ति है या नहीं!
इससे कैसे पता चलता है कि आप देशभक्ति है या नहीं!
किसान कड़ाके की ठंड में खेत में पानी डालें या नहीं
मजदूर को उसकी मजदूरी मिली या फिर नहीं
मगर यह कौन तय करेगा कि वो देशभक्त है या नहीं!
सरकारी विद्यालयों में अध्यापक है या नहीं
विधायक जी ने नई गाड़ी खरीदी या नहीं
मगर यह कौन तय करेगा कि वो देशभक्त है या नहीं!
महिलाएं अकेली बाहर निकल सकती है या नहीं
सोशल मीडिया पर कोई गंदा कमेंट करेगा या नहीं
मगर यह कौन तय करेगा कि वो देशभक्त है या नहीं!
अब्दुल व जॉर्ज के धर्म से नफरत होगी या नहीं
एकलव्य व शंबूक का अंगूठा फिर कटेगा या नहीं
मगर यह कौन तय करेगा कि वो देशभक्त है या नहीं!
राष्ट्रगीत और राष्ट्रगान आता है या नहीं
मगर पता कैसे चलेगा आप देशभक्ति है या नहीं!
- दीपक कोहली
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