*****
धन कुछ नहीं होता
धन सब कुछ होता तो
बुद्ध गृह त्याग न करते।
धन सब कुछ होता तो;
अनुपम खेर के बाल
उग जाते।
धन सब कुछ होता तो
मुकेश अंबानी का बेटा
का मोटापा कम होता।
धन सब कुछ होता तो
बुढ़ापा रोक लेता।
धन सब कुछ होता तो
जान की दुआ हॉस्पिटल
में न करते।
धन सब कुछ होता तो
अमीर डिप्रेशन की दवा
न खाते।
धन सब कुछ होता तो;
राजा महाराजा चैन से
क्यों नहीं सोते ?
धन सब कुछ होता तो
नीद क्यों नहीं खरीदते ?
धन सब कुछ होता तो
सुकून क्यों नहीं खरीदते?
धन सब कुछ होता तो;
स्टीफन हॉकिंग का स्वास्थ्य
शरीर क्यों नहीं हुआ ?
धन सब कुछ होता तो
बुद्ध गृह त्याग न करते।
धन सब कुछ होता तो;
जिंदगी क्यों नहीं खरीदता?
धन सब कुछ होता तो;
अमिता बच्चन का का लड़का
सुपर स्टार क्यों नहीं हुआ ?
धन सब कुछ होता तो;
मौत को क्यों नहीं रोक लेता ?
धन सब कुछ होता तो सुनी
गोद क्यों नहीं भर जाता ?
- सदानंद गाजीपुरी
*****
पहचान बन गई है ग़ज़ल मेरे नाम की।
बूढ़ा हूॅं मेरी अब नहीं तस्वीर काम की।
आए न जो समझ में गजल वो ग़ज़ल नहीं।
भाषा सरल हो शेर में अदबी पयाम की।।
वहदानियत के सच का ये जब से चढ़ा नशा।
चाहत नहीं है अब मुझे साक़ी के जाम की।।
मंजिल है क़ब्र मेरी मैं उसके क़रीब हूॅं।
तारीफ़ हो रही मेरे फिर भी कलाम की।।
मेहनत की खाऍंगे वो जो ईमानदार हैं।
मक्कार झूठे खा रहे सारे हराम की।।
ख़ामोश हो गए हैं वो कुर्सी पे बैठ कर।
आवाज पहले जो थे उठाते अवाम की।।
बे-ख़ौफ़ हैं दरिंदे ये जिनकी पनाह में।
हाथों में उनके आ गई चाबी निज़ाम की।।
- निज़ाम फतेहपुरी
*****
कैसे कैसे लोग हैं इस दुनियां में
कल तक जिसको खूब नकारा
आज उसको गले हैं लगाते
कैसे कैसे लोग है इस दुनियां में
मौका देखते ही पाला बदल जाते
कोई मौका था देखते ही नाक भौं थे चढ़ाते
हर सभा में देते थे गालियां दूर थे भगाते
समय ने पलटी मारी किस्मत बदल गई
फिरते हैं आज उसी के पीछे दुम है हिलाते
हद से आगे बढ़ने से होता है काम खराब
बड़ी हेकड़ी वालों को कर देता है बर्बाद
समय नहीं रखता किसी का भी उधार
समय आने पर समय कर देता है बराबर हिसाब
समय सब का आता है मत करो अहंकार
दुआएं लीजिये जो कभी नहीं जाती बेकार
कल क्या होगा यह तो केवल वही है जानता
नशा कोई भी हो समय देता है उतार
डूबा जो अहंकार में हो गया सर्वनाश
कई उदाहरण हैं देखिए अपने आस पास
विपदा आने पर वह भी दूर हो गए
अच्छे समय में जो होते थे कभी खास
- रवींद्र कुमार शर्मा
सर्दियों की वो प्यारी ठूंठरन अब कहाँ,
वो लकड़ी के अलाव चिंगारियाँ कहाँ।
सर्दियों की वो दिलकश गर्माहट कहां,
अब वो गाँव के बुजुर्ग बच्चे जवान कहाँ।
अब नजर नहीं आते कोई भी यहां न वहां,
वक्त की भागदौड़ ने चुरा लिया सबको।
भाईचारा, मोहब्बतें, वो अपनापन कहां,
सब गायब हो गया अब तपिश न धुंआ।
शामें याद आतीं हैं ,जिनकी ठंडी हवा,
झोंके गलियों में सरसराते,फिरते थे जो।
न अलाव न लकड़ियां मुस्कुराता वो समां,
अलाव के गिर्द मीठी,चाय की चुस्कियां।
बंद ही नहीं होता था गुफ्तगू का सिलसिला।
दादा की हिकमतें हंसी में घुली उनकी दास्तां,
बच्चों की शरारतें, हँसी महफिल का था समां।
- डॉ. मुश्ताक़ अहमद शाह
*****
चुटकी भर सिंदुर के बदले
कर्ज भरते हैं जनमभर
धन्य हैं वह सब पुरुषवर...
सौंप देते हैं किसी अनजान को घरबार अपना,
नाम कर देते है उसके तीज और त्यौहार अपना,
इक बेरंगी अंक में नवरंग भर देते हैं हंसकर,
लेखा जोखा भी करें न प्रेयसी से वह पलटकर,
ताल कदमों का मिलाकर
चल रहें वो प्रणय पथ पर
धन्य हैं वह सब पुरुषवर....
प्रेम क्रीड़ा के प्रदर्शन रूठना, हंसना, मानना,
लोचनों में एक दूजे की छवि लखकर लजाना,
तुलसिका आंगन की मेरे पल्लवित किस हेतु होगी,
हो कठिन कितनी परीक्षा प्रीति का वह सेतु होगी,
जिंदगी देते लुटा हैं
भामिनी के सुखद क्षण पर
धन्य हैं वह सब पुरुषवर..
खुद कमीजों के फटे टुकड़ों में ही जीवन बिताए,
किंतु गृह लक्ष्मी की ख्वाहिश संकुचित होने न पाए,
हो हिफाजत ज्यों पलक नयनों को राखे ढापकर,
स्वामिनी की आह पर रह जाता हृदय कांपकर,
छोड़ देते हैं सभी अधिपत्य
अपनी बामिनी पर
धन्य हैं वह सब पुरुषवर...
- माया सिंह
*****
आख़िर बात क्या थी ?
सच तो बोल,
बोझ अपने दिल का
हलका तो कर,
कब तक उठाएगा
सिर पर इस गठड़ी को,
बोझ से क्यों दबना चाहता है?
सच तो बोल,
राज दिल का तो खोल
आख़िर बात क्या थी?
सच तो बोल...
छटपटाहट साफ दिख रही है
आपके चेहरे पर,
बदले बदले हुए हैं हाव भाव
पहले तो आप ऐसे न थे,
सिकन साफ़ झलक रही है
हुआ क्या है ? आख़िर आपको
सच तो बोल,
आख़िर बात क्या थी ?
सच तो बोल...
किसी ने बोला, कुछ आपको
सच तो बोल,
गुमसुम से क्यों हो ?
भेद तो खोल,
कब तक छुपाते फिरोगे इस राज को ?
एक न एक दिन
सच्चाई तो सामने आएगी ही,
कब तक मौन धारण करोगे ?
महात्मा विदुर की तरह,
जानना तो हम भी चाहते हैं
कुन्ती नंदन युधिष्ठिर की तरह
हुआ क्या था ?
सच तो बोल
आख़िर बात क्या थी ?
सच तो बोल...
हम कर क्या सकते हैं ?
आप के लिए,
बता तो सही
घुटन क्यों पैदा करते हो ?
अपने मन में,
बोल तो सही
आपका दुःख बांटने के लिए
हम सदैव तत्पर है,
आखिर हुआ क्या है?
सच तो बोल,
आख़िर बात क्या थी?
सच तो बोल...
- बाबू राम धीमान
*****
स्वप्निल-मायाजाल
पहले मैं एक सपना देखता हूॅं
फिर उस एक सपने में देखता हूॅं मैं
अपने सपनों के सपनों का संसार
और फिर देखता हूॅं बार-बार देखता हूॅं मैं
खिलखिलाते सपनों के विभिन्न रॅंग
मैं देखता हूॅं और देखता हूॅं फिर -फिर
किसिम-किसिम के रॅंगों के विभिन्न सपने
कि दूर कहीं दूर एक झुंड है निर्मल-निच्छल
कलरव करते भिन्न-विभिन्न पक्षियों का
जो उड़ा ले जा रहा है मुझे बहुत दूर कहीं
इस पार से उस पार,क्षिति-गगन के पार
बहुतेरा विस्तार है बहुतेरा विस्तार
बद्ज़ुबान बहेलिये का जाल-जंजाल है सब
जिसमें सिमटा है,लिपटा है शताब्दियों से
बहेलिये की लूट-खसोट का छल-कपटभरा
असत्य-प्रेरित स्वप्निल-मायाजाल।
- राजकुमार कुम्भज
*****
कोई कहानी लिखूँ
सोचा फ़िर एक कहानी लिखूँ,
हर सुबह ओ शाम सुहानी लिखूँ!
होशियारी है इस जहां में इतनी,
कैसे किसी की नादानी लिखूँ!
ज़िंदगी तेरा भी इश्क़ अनोखा,
क्या तुझको कोई दीवानी लिखूँ!
मर मिटे हैं जो वतन की ख़ातिर,
ऐसी खौलती हुई जवानी लिखूँ!
ठहर जाती है कलम उसी जगह,
जहाँ तेरी यादों की रवानी लिखूँ!
नई सोच की बहती प्रबल धारा,
कुछ बातें तो वही पुरानी लिखूँ!
इतना ख़्याल दिल में रहता सदा,
तभी तेरी कहानी, ज़ुबानी लिखूँ।
सोचा फ़िर एक कहानी लिखूँ,
हर सुबह ओ शाम सुहानी लिखूँ!
होशियारी है इस जहां में इतनी,
कैसे किसी की नादानी लिखूँ!
ज़िंदगी तेरा भी इश्क़ अनोखा,
क्या तुझको कोई दीवानी लिखूँ!
मर मिटे हैं जो वतन की ख़ातिर,
ऐसी खौलती हुई जवानी लिखूँ!
ठहर जाती है कलम उसी जगह,
जहाँ तेरी यादों की रवानी लिखूँ!
नई सोच की बहती प्रबल धारा,
कुछ बातें तो वही पुरानी लिखूँ!
इतना ख़्याल दिल में रहता सदा,
तभी तेरी कहानी, ज़ुबानी लिखूँ।
- आनन्द कुमार
*****
पतझड़
जीवन में पतझड़ आकर,
ठहर सा गया है।
एक कहर सा बरपा
गया है।
अब खो रहा हूं, धैर्य अपना,
बहुत दी तसल्ली खुद को,
किया बहुत,अब ना होता संभालना,
तार तार हो रहा हर एक मेरा
सपना।
समय अब खत्म है,
बाजुओं और होंसले बेदम है।
दीया जल तो रहा है,
पर लौ,होती जा रही कम है।
फिर भी जिंदा रहना,कैसे
छोड़ दूं।
गैरों से किए वादे तो शायद तोड़
भी देता।
जिसे माना है अपना उसे कैसे,
इस जहां में अकेला छोड़ दूं।
खुद से किया वादा भला कैसे
मैं तोड़ दूं।
- रोशन कुमार झा
जीवन में पतझड़ आकर,
ठहर सा गया है।
एक कहर सा बरपा
गया है।
अब खो रहा हूं, धैर्य अपना,
बहुत दी तसल्ली खुद को,
किया बहुत,अब ना होता संभालना,
तार तार हो रहा हर एक मेरा
सपना।
समय अब खत्म है,
बाजुओं और होंसले बेदम है।
दीया जल तो रहा है,
पर लौ,होती जा रही कम है।
फिर भी जिंदा रहना,कैसे
छोड़ दूं।
गैरों से किए वादे तो शायद तोड़
भी देता।
जिसे माना है अपना उसे कैसे,
इस जहां में अकेला छोड़ दूं।
खुद से किया वादा भला कैसे
मैं तोड़ दूं।
- रोशन कुमार झा
*****
बदला-बदला हर हाल
सुबह-सुबह की शुष्क, ठण्ड,
दिन की चटक तेज ये धूप।
दिसम्बर के मौसम ने ही जैसे,
ले लिया मार्च का है रूप।
शुष्क, सर्द भोर की हवाएं,
लू का दिन को ले रही रूप।
आवरण धूल का, है फैला चहूँ ओर,
मिटटी, धूल सना, वातावरण बना कुरूप।
धुंध घनी, बड़ी आफत है बनी,
परे समझ से है इसका ये बदला स्वरूप।
दिनभर में ही दो-दो मौसम,
सर्दी-गर्मी हो रहे महसूस।
आँख-मिचौनी बादल खेले,
है बदला-बदला कुछ इनका सलूक।
टाँगे फैलाये कोहरा है पसरा,
पड़ा है कानों में रुई ठूंस।
धुंआ-धुंआ है, सांसे हैं अटकी,
शहर बने हैं नरक के कूप।
मानव बदला, बदल गई प्रकृति चाल,
लगता तभी है, बदला-बदला हर हाल।
सुबह-सुबह की शुष्क, ठण्ड,
दिन की चटक तेज ये धूप।
दिसम्बर के मौसम ने ही जैसे,
ले लिया मार्च का है रूप।
शुष्क, सर्द भोर की हवाएं,
लू का दिन को ले रही रूप।
आवरण धूल का, है फैला चहूँ ओर,
मिटटी, धूल सना, वातावरण बना कुरूप।
धुंध घनी, बड़ी आफत है बनी,
परे समझ से है इसका ये बदला स्वरूप।
दिनभर में ही दो-दो मौसम,
सर्दी-गर्मी हो रहे महसूस।
आँख-मिचौनी बादल खेले,
है बदला-बदला कुछ इनका सलूक।
टाँगे फैलाये कोहरा है पसरा,
पड़ा है कानों में रुई ठूंस।
धुंआ-धुंआ है, सांसे हैं अटकी,
शहर बने हैं नरक के कूप।
मानव बदला, बदल गई प्रकृति चाल,
लगता तभी है, बदला-बदला हर हाल।
- धरम चंद धीमान
*****
क्या कहना चाहे दिल…
जो भी दिल कहना चाहे
तुम खुद ही समझ जाओ ना,
ख़्वाब जो देखे इन नयनों ने
अपनी आँखों में सजाओ ना।
‘बाबू–सोना–जानू–बेबी’
लबों पे ला न पाऊँ मैं,
तेरे ही नाम से जानी जाऊँ
ऐसा हुनर दिखाओ ना।
देहरी तेरी छूकर आँगन
अन्न भरा कलश ढलकाऊँ,
जन्मों-जन्मों के बंधन में
बस तेरी होकर रह जाऊँ।
हो सके तो सिर्फ़ तुम
इतना सा कर जाओ ना,
जब भी खुले ये नयन मेरे
तुम ही नज़र आओ ना।
- सविता सिंह मीरा
जो भी दिल कहना चाहे
तुम खुद ही समझ जाओ ना,
ख़्वाब जो देखे इन नयनों ने
अपनी आँखों में सजाओ ना।
‘बाबू–सोना–जानू–बेबी’
लबों पे ला न पाऊँ मैं,
तेरे ही नाम से जानी जाऊँ
ऐसा हुनर दिखाओ ना।
देहरी तेरी छूकर आँगन
अन्न भरा कलश ढलकाऊँ,
जन्मों-जन्मों के बंधन में
बस तेरी होकर रह जाऊँ।
हो सके तो सिर्फ़ तुम
इतना सा कर जाओ ना,
जब भी खुले ये नयन मेरे
तुम ही नज़र आओ ना।
- सविता सिंह मीरा
*****
मानवाधिकार
मनुष्य अधिकारों का दुनियां में जब हुआ हनन,
कुटिल विचारधारा थी करने लगी मानव दमन।
लोग कुछ बुद्धिजीवी, चिंतनशील हुए थे जागृत,
करने मनन अधिकारों पर, देने सबको अहमियत।
हों प्रत्येक व्यक्ति के, कुछ जन्म सिद्ध अधिकार,
उजागर उन्हें करने हेतु, किया गया मसौदा तैयार।
समानता, स्वतंत्रता, गरिमा न हो दर किनार,
सभी के लिए बनाये गये फिर मूल मानवाधिकार।
मानवाधिकार घोषणा को संयुक्त राष्ट्र ने अपनाया,
सदस्य देशों के नागरिकों को सुरक्षित सक्षम बनाया।
प्रत्येक समाज की नींव के, जैसे हैं ये अधिकार,
हर मानव, समुदाय के, सपनों को करते साकार।
रंग, भाषा, नस्ल, धर्म, न राजनीतिक है आधार,
जीवन, सुरक्षा, सम्पति का स्वामित्व है इनमें शुमार।
कानूनी संरक्षण, इन्साफ पाने अदालत भी जा सकते,
अपने अधिकार प्रयोग में कर्तव्यों को भूल नहीं सकते।
सोचो अगर न होते ये मनुष्यों के लिए अधिकार,
कैसा होता जग का स्वरूप, क्या होता इसका आधार।
मानवता का अस्तित्व न होता, न होते कोई संस्कार,
सयुंक्त परिषद् ने अगर प्रदान न किये होते मानवाधिकार।
मनुष्य अधिकारों का दुनियां में जब हुआ हनन,
कुटिल विचारधारा थी करने लगी मानव दमन।
लोग कुछ बुद्धिजीवी, चिंतनशील हुए थे जागृत,
करने मनन अधिकारों पर, देने सबको अहमियत।
हों प्रत्येक व्यक्ति के, कुछ जन्म सिद्ध अधिकार,
उजागर उन्हें करने हेतु, किया गया मसौदा तैयार।
समानता, स्वतंत्रता, गरिमा न हो दर किनार,
सभी के लिए बनाये गये फिर मूल मानवाधिकार।
मानवाधिकार घोषणा को संयुक्त राष्ट्र ने अपनाया,
सदस्य देशों के नागरिकों को सुरक्षित सक्षम बनाया।
प्रत्येक समाज की नींव के, जैसे हैं ये अधिकार,
हर मानव, समुदाय के, सपनों को करते साकार।
रंग, भाषा, नस्ल, धर्म, न राजनीतिक है आधार,
जीवन, सुरक्षा, सम्पति का स्वामित्व है इनमें शुमार।
कानूनी संरक्षण, इन्साफ पाने अदालत भी जा सकते,
अपने अधिकार प्रयोग में कर्तव्यों को भूल नहीं सकते।
सोचो अगर न होते ये मनुष्यों के लिए अधिकार,
कैसा होता जग का स्वरूप, क्या होता इसका आधार।
मानवता का अस्तित्व न होता, न होते कोई संस्कार,
सयुंक्त परिषद् ने अगर प्रदान न किये होते मानवाधिकार।
- लता कुमारी धीमान
*****
पाक सेना का आत्मसमर्पण
16 दिसंबर की सुबह
93,000 सैनिकों के हथियार
डालने की गवाही बन गई-
वह दिन आज भी
विजय दिवस बनकर
धड़कनों में गूँजता है।
भारत के वीर सपूत
सीना ताने खड़े हैं-
उनकी रगों में शौर्य,
नज़रों में तिरंगा लहराता है।
भारत की शांति कमजोरी नहीं,
संयम का तेज है।
इतिहास कहता है-
भारत जब उठता है,
तो विजय लिखता है…
और विजय दिवस मनाता है।
16 दिसंबर की सुबह
93,000 सैनिकों के हथियार
डालने की गवाही बन गई-
वह दिन आज भी
विजय दिवस बनकर
धड़कनों में गूँजता है।
भारत के वीर सपूत
सीना ताने खड़े हैं-
उनकी रगों में शौर्य,
नज़रों में तिरंगा लहराता है।
भारत की शांति कमजोरी नहीं,
संयम का तेज है।
इतिहास कहता है-
भारत जब उठता है,
तो विजय लिखता है…
और विजय दिवस मनाता है।
- गरिमा लखनवी
*****
पराभौतिक
मृत्यु तुम करो न भक्षण मेरा
मैंना भी देखना है
काल बड़ा है या काली।
भाग्यविधाता लिखो ना भाग्य
मैंना भी देखना है
कर्म बड़ा है या कर्मदाता।
समय बदलो न अपना पहिया
मैंना भी देखना है
भविष्यवक्ता बड़ा है या भविष्यकर्ता।
प्रेतराज चलो न करोड़ों प्रेतो के साथ
मैंना भी देखना है
तंत्र बड़ा है या प्रेम मंत्र।
देवराज इंद्र करो तप जरा भंग
मैंने भी देखना है
योगाग्नि बड़ी है या कामाग्नि।
- डॉ. राजीव डोगरा
मृत्यु तुम करो न भक्षण मेरा
मैंना भी देखना है
काल बड़ा है या काली।
भाग्यविधाता लिखो ना भाग्य
मैंना भी देखना है
कर्म बड़ा है या कर्मदाता।
समय बदलो न अपना पहिया
मैंना भी देखना है
भविष्यवक्ता बड़ा है या भविष्यकर्ता।
प्रेतराज चलो न करोड़ों प्रेतो के साथ
मैंना भी देखना है
तंत्र बड़ा है या प्रेम मंत्र।
देवराज इंद्र करो तप जरा भंग
मैंने भी देखना है
योगाग्नि बड़ी है या कामाग्नि।
- डॉ. राजीव डोगरा
*****
प्रान-प्यारी
कज़रा गज़रा मुखड़ा पे बिंदिया,
बा गज़ब ललाई गलिया पर हो।
रूप स्वरूप के कवनो जोड़ नइखे,
लाजवाब तोहार मुस्की चवनिया हो।
चित्र विचित्र बड़ सुनर लागे,
छवि परियन के रानी हऊ।
नयन तोहार चमकेला अइसन,
बगिया बीच खिलल रातरानी हऊ।
खुलल केसीया के का कही गोरी,
सुनर लागे जइसे दादी के लोरी हऊ।
दिल के भीतर हलचल बढ़ावे,
हुस्न-ए-बहार सावली सलोनी हऊ।।
ए मृगनयनी तोहार चाल निराली,
करत बगिया गुलशन मधुकामीनी हऊ।
दिल-ए-रघु बीच राज करत,
हर अदा मे तू बड़ निराली हऊ।
डिम्पल चेहरा के ना नज़र लागे,
सुनर छवि के तू मलकिनी हो।
देखी तस्वीर दिन बने नू लागे,
रहे मन मंदिर हरदम मस्ती हो।
सूट मे बुलु कहर ढाहअ,
पियर सूट बीच का कहीं हो।
रुपमती रुपवंती छवि प्यारी,
हमरा दिल के तू राजधानी हऊ।
नख शिख वर्णन का करी तोहर,
'रघु' के तू नयन-दुलारी हऊ।
हर अदा मदहोशी मे मातल,
'राघवेंद्र' के तू प्रान-प्यारी हऊ।
- राघवेंद्र प्रकाश 'रघु'
कज़रा गज़रा मुखड़ा पे बिंदिया,
बा गज़ब ललाई गलिया पर हो।
रूप स्वरूप के कवनो जोड़ नइखे,
लाजवाब तोहार मुस्की चवनिया हो।
चित्र विचित्र बड़ सुनर लागे,
छवि परियन के रानी हऊ।
नयन तोहार चमकेला अइसन,
बगिया बीच खिलल रातरानी हऊ।
खुलल केसीया के का कही गोरी,
सुनर लागे जइसे दादी के लोरी हऊ।
दिल के भीतर हलचल बढ़ावे,
हुस्न-ए-बहार सावली सलोनी हऊ।।
ए मृगनयनी तोहार चाल निराली,
करत बगिया गुलशन मधुकामीनी हऊ।
दिल-ए-रघु बीच राज करत,
हर अदा मे तू बड़ निराली हऊ।
डिम्पल चेहरा के ना नज़र लागे,
सुनर छवि के तू मलकिनी हो।
देखी तस्वीर दिन बने नू लागे,
रहे मन मंदिर हरदम मस्ती हो।
सूट मे बुलु कहर ढाहअ,
पियर सूट बीच का कहीं हो।
रुपमती रुपवंती छवि प्यारी,
हमरा दिल के तू राजधानी हऊ।
नख शिख वर्णन का करी तोहर,
'रघु' के तू नयन-दुलारी हऊ।
हर अदा मदहोशी मे मातल,
'राघवेंद्र' के तू प्रान-प्यारी हऊ।
- राघवेंद्र प्रकाश 'रघु'
*****
कहानी का अंत
इस कहानी का अंत नहीं...
बस चलते रहता है,
बेसिरपैर के
इधर से उधर, दिशाहीन सा
सब सुनते ही, देखते ही
उबाऊ सा हो जाता है
कि ये कैसी कहानी है ?
जिसका ओर छोर पता ही नही चलता है कि,
कहानी मे क्या है ?
क्या बताने का उदेश्य रखा है
कहानी के रचयिता, चुन्नू कवि भी
अचंभित सा है कि,
आखिर, कहानी से क्या
संदेश देना चाहता है,
समाज को कि,
कहानी रूकती सी नही दिख रही है,
सबकुछ अटपटा सा हो गया है जीवन मे
कुछ सही नही चल रहा है
अत करने को,
इस कहानी को
मन बहुत बार बना चुका है,
चुनू कवि ने
फिर, उसी वक्त
एक नया मोड आ जाता है,
कहानी में और
एक नया अध्याय शुरू हो जाती है
अंत मे थक-हार कर
बस इतना ही लिख दिया कि,
ये जीवन का असली ठौर
ठिकाना कुछ नही है।
लोग आते रहेंगे, जाते रहेंगे
कहानी बनते रहेगी, बिगडते रहेंगे,
जीवन ऐसे ही चलते रहेगा
ताउम्र- इस कहानी का अंत नहीं...
नही है,,इस कहानी का अंत
इस कहानी का अंत नहीं...
बस चलते रहता है,
बेसिरपैर के
इधर से उधर, दिशाहीन सा
सब सुनते ही, देखते ही
उबाऊ सा हो जाता है
कि ये कैसी कहानी है ?
जिसका ओर छोर पता ही नही चलता है कि,
कहानी मे क्या है ?
क्या बताने का उदेश्य रखा है
कहानी के रचयिता, चुन्नू कवि भी
अचंभित सा है कि,
आखिर, कहानी से क्या
संदेश देना चाहता है,
समाज को कि,
कहानी रूकती सी नही दिख रही है,
सबकुछ अटपटा सा हो गया है जीवन मे
कुछ सही नही चल रहा है
अत करने को,
इस कहानी को
मन बहुत बार बना चुका है,
चुनू कवि ने
फिर, उसी वक्त
एक नया मोड आ जाता है,
कहानी में और
एक नया अध्याय शुरू हो जाती है
अंत मे थक-हार कर
बस इतना ही लिख दिया कि,
ये जीवन का असली ठौर
ठिकाना कुछ नही है।
लोग आते रहेंगे, जाते रहेंगे
कहानी बनते रहेगी, बिगडते रहेंगे,
जीवन ऐसे ही चलते रहेगा
ताउम्र- इस कहानी का अंत नहीं...
नही है,,इस कहानी का अंत
- चुनू साहा
*****
शाम की ढलती धूप में,
जब आकाश अपनी
अंतिम सुनहरी साँस ले रहा था,
मैंने देखा- पंखों पर थकान,
आँखों में घर की रोशनी लिए
कुछ पंछी लौट रहे थे
अपने छोटे-से सुरक्षित बसेरे की ओर।
कितना अद्भुत होता है न,
यूँ सांझ के दामन में किसी का लौट आना-
मानो दिन भर की सारी बेचैनियाँ
उन नन्हे पंखों में सिमटकर भी
घर के नाम पर हल्की हो जाती हों।
जहाँ कोई प्रतीक्षा करता होगा
बिना पुकार, बिना शब्द,
सिर्फ़ मौन की गरमाहट में।
उन्हें उड़ते देख
मेरे भीतर भी कोई पुराना रास्ता जाग उठा-
घर सिर्फ़ दीवारों का ठिकाना नहीं,
वह आत्मा का विश्राम है,
जहाँ लौटते ही
दिल का बोझ दहलीज़ पर पिघल जाता है।
और उसी क्षण मन ने
एक धीमी-सी प्रार्थना की-
ईश्वर सभी को घर दे,
ऐसा एक कोना
जहाँ हर थका जीवन
साँझ ढलते ही चैन पा सके।
किसी का बसेरा
खुले आसमान की ठिठुरती हवा में न हो,
न कोई कँपकँपाती रात
किसी को अपना अकेला साथी बनाए।
कितने कठोर हैं वे क्षण
जहाँ कुछ सपनों की हथेलियाँ
अब भी छत की ऊष्मा को नहीं जानतीं,
जहाँ पथरीली ज़मीन
ही उन्हें बिछौना बनकर स्वीकारती है।
इसलिए उन पंछियों की उड़ान में
मैंने एक गहरी सच्चाई सुनी-
हर प्राणी को चाहिए
अपना एक सुरक्षित आकाश,
अपना एक घर,
जहाँ लौटने की खुशी
साँझ की नर्म हवा में
गीत बनकर घुल सके।
ईश्वर करे
हर कदम अपनी दहलीज़ तक पहुँचे,
हर रात किसी उजाले में बदले,
और कोई भी हृदय
ठंडी हवाओं की निर्दयी बाँहों में
अकेला न पड़े।
जब आकाश अपनी
अंतिम सुनहरी साँस ले रहा था,
मैंने देखा- पंखों पर थकान,
आँखों में घर की रोशनी लिए
कुछ पंछी लौट रहे थे
अपने छोटे-से सुरक्षित बसेरे की ओर।
कितना अद्भुत होता है न,
यूँ सांझ के दामन में किसी का लौट आना-
मानो दिन भर की सारी बेचैनियाँ
उन नन्हे पंखों में सिमटकर भी
घर के नाम पर हल्की हो जाती हों।
जहाँ कोई प्रतीक्षा करता होगा
बिना पुकार, बिना शब्द,
सिर्फ़ मौन की गरमाहट में।
उन्हें उड़ते देख
मेरे भीतर भी कोई पुराना रास्ता जाग उठा-
घर सिर्फ़ दीवारों का ठिकाना नहीं,
वह आत्मा का विश्राम है,
जहाँ लौटते ही
दिल का बोझ दहलीज़ पर पिघल जाता है।
और उसी क्षण मन ने
एक धीमी-सी प्रार्थना की-
ईश्वर सभी को घर दे,
ऐसा एक कोना
जहाँ हर थका जीवन
साँझ ढलते ही चैन पा सके।
किसी का बसेरा
खुले आसमान की ठिठुरती हवा में न हो,
न कोई कँपकँपाती रात
किसी को अपना अकेला साथी बनाए।
कितने कठोर हैं वे क्षण
जहाँ कुछ सपनों की हथेलियाँ
अब भी छत की ऊष्मा को नहीं जानतीं,
जहाँ पथरीली ज़मीन
ही उन्हें बिछौना बनकर स्वीकारती है।
इसलिए उन पंछियों की उड़ान में
मैंने एक गहरी सच्चाई सुनी-
हर प्राणी को चाहिए
अपना एक सुरक्षित आकाश,
अपना एक घर,
जहाँ लौटने की खुशी
साँझ की नर्म हवा में
गीत बनकर घुल सके।
ईश्वर करे
हर कदम अपनी दहलीज़ तक पहुँचे,
हर रात किसी उजाले में बदले,
और कोई भी हृदय
ठंडी हवाओं की निर्दयी बाँहों में
अकेला न पड़े।
- मधु शुभम पाण्डे
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मुझे! तुम्हारा मुक़म्मल इश्क़ नहीं,
तुम्हारा सुकून बनना है !
तुम्हारी ज़िंदगी नहीं,
तुम्हारे लम्ह़े का जुनून बनना है !
हाँ मुझे, तुम्हारा मुक़म्मल इश्क़...
मुझे! तुम्हारी आख़िरी मंज़िल नहीं,
तुम्हारा दौड़ता सफ़र बनना है !
तुम्हारी ताउम्र सिसकती यादें नहीं,
तुम्हारे कुछ अश्क़ बेख़बर बनना है !
हाँ मुझे, तुम्हारा मुक़म्मल इश्क़...
मुझे! तुम्हारे मन का सतरंगी आसमां नहीं,
सिंदूर का लाल चुटकी रंग बनना है !
तुम्हारे ख़्बाबों का गुज़रा किस्सा नहीं,
ढूंढे तुम्हारा आज जिसे वो मलंग बनना है!
हाँ मुझे, तुम्हारा मुक़म्मल इश्क़...
- अंशिता त्रिपाठी
तुम्हारा सुकून बनना है !
तुम्हारी ज़िंदगी नहीं,
तुम्हारे लम्ह़े का जुनून बनना है !
हाँ मुझे, तुम्हारा मुक़म्मल इश्क़...
मुझे! तुम्हारी आख़िरी मंज़िल नहीं,
तुम्हारा दौड़ता सफ़र बनना है !
तुम्हारी ताउम्र सिसकती यादें नहीं,
तुम्हारे कुछ अश्क़ बेख़बर बनना है !
हाँ मुझे, तुम्हारा मुक़म्मल इश्क़...
मुझे! तुम्हारे मन का सतरंगी आसमां नहीं,
सिंदूर का लाल चुटकी रंग बनना है !
तुम्हारे ख़्बाबों का गुज़रा किस्सा नहीं,
ढूंढे तुम्हारा आज जिसे वो मलंग बनना है!
हाँ मुझे, तुम्हारा मुक़म्मल इश्क़...
- अंशिता त्रिपाठी
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