साहित्य चक्र

15 September 2024

मृत्यु की गोद में मेरी सुहानी नींद



जन्म से आज तक 60 वर्ष यानि 21900 दिन गुजर गए जिसमें कई बार ज़िंदगी से खफा होकर मैं जीते जी कई बार मरा हूँ। दुनिया में कोई भी हो अधिकांश के साथ जीवन छल करता है ओर वे अपने में पूरी तरह टूट कर खुद को मरा हुआ मानते है, पर वे मरते नहीं। कारण, मृत्यु तो एक बार ही आती है ओर खूब झूमती हुई, इठलाती हुई सामने खड़ी अट्टहास करती है, जब मृत्यु आती है तो घर के आँगन में खड़ी होकर हँस हँस कर सिर्फ एक बार ताना कसती है कि जल्द से कुछ पलों में अपने घर परिवार के नातेदारों –रिस्तेदारों से ममता की जंजीरों को तोड़ मेरे साथ चलने को तैयार हो जाओ।





मृत्यु का आना यानि एक नागिन के दांतों के बीच साँसों की डोर का होना है ओर मरने वाला मृत्यु को देख अपने होशोहवाश खो देता है, वह किसी से भी अपनी व्यथा नही कह पाता ओर अपने दिल की ज्वाला में धधकता हुआ शांत हो जाता है, सदा के लिए एक तस्वीर बनकर दीवाल पर टँगने के लिए, ये जो 60 वर्ष की मैं बात कर रहा हूँ , वह कम या ज्यादा हो सकता है जिसमें मौत के आने के बाद शरीर सबसे बंधनमुक्त हो जाता है। मेरे अपने जीवन के 60 वर्ष सुख दुख में, स्नेह बांटते प्यार को तरसते, छोटे बड़े भाइयों सहित परिवारजनों का तिरष्कार, अपमान ओर अन्याय की चक्की में पिसते हुये, उन्हे रूठने मनाने में गुजार दिये पर वे रिश्तो को तोड़कर अपनी मस्ती में रहे। मैं जानता हूँ की वे तीस साल यानि आधी उम्र के 10950 दिन अकड़ में जिये, पर उनकी अकड़ की गांठ खुलती ही नहीं की अचानक मृत्यु ने मुझे अपनी गोद की शरण दे दी। बरसों बाद परम शांति महसूस हुई जब मौत की सुहानी गोद में मुझे गहरी मीठी नींद में सुला दिया अब ये आंखे सदा सदा के लिए बंद हो गई ओर पलक झपकते ही दुनिया के सारे नाते रिश्तो के बंधनो के मुक्ति मिल गई ।

इधर मेरे मरने की खबर जैसे ही लोगों के पास पहुंची कुछ जागरूक समाजसेवी सक्रिय हो गए ओर कब प्राणान्त हुये, क्या कर रहे थे, क्या बीमार थे, आखिरी शब्द क्या थे उनका अंतिम संस्कार कब होगों किस घाट पर होगा आदि जानकारी लेकर उसे सोसल मीडिया पर मेरे फोटो के साथ पोस्ट करना शुरू कर दिया की बड़े दुख की बात है हमारे भाई पत्रकार आत्माराम यादव हमारे बीच नही रहे उनका अंतिम संस्कार फला घाट पर इतने बजे किया जाएगा ओर लोग सामान्य घटना की तरह हमदर्दी जताकर मृतक आत्मा की शांति हेतु संवेदना व्यक्त कर दुख जाहीर करेंगे। जिनके मन में मेरे प्रति भावनात्मक जुड़ाव होगा वह सीधा शव को कंधा देने घर पहुचेगा जिसकी साक्षी यह देह नहीं किन्तु मेरे शरीर के प्रति मोह न छोड़ पाने वाली सूक्ष्म आत्मा अवश्य दर्शक दीर्घा में खड़ी होगी जो घर से शव ले जाने के साथ आखिरी समय तक की तमाशवीन होगी।

मेरी सूक्ष्म आत्मा मेरे जन्म से मौत तक की साक्षी रही है वह एक एक घटना को देखकर मेरा मूल्याकन मुझसे कराएगी ओर मेरे सामने हर घटनाक्रम जीवित हो उठेगा कि मैं अपने इस जीवन में अपनी भुजाओ की पूरी ताकत लगाने के बाद, जी भरकर समाचार,लेख, व्यंग्य आदि लिखते हुये इतना नही कमा सका की बच्चों को घर बनवा सकूँ, मैंने बच्चो को पढ़ाने लिखाने में अपने सपने न्योछावर किए, बच्चों के सपनों के आगे में हमेशा बौना ही रहा। अब जबकि मौत की गोद में पहुचा तब मुझे बहुत ख्याल आए कि अब तक मुझसे मेरे भाइयो से प्रेम करने में कहाँ चूक हुई जबकि मेरा हृदय सदैव उनके लिए पूर्ण समर्पित रह उनके साथ अपने सुख दुख बाटने के लिए तड़फता रहा था। मेरे बेटे नादान है, वे मेरे विषय में जो धारणा रखे मैं उन्हे दोष नहीं दूंगा , पर बेटी के लिए सिर्फ पढ़ाई के अलावा कुछ न कर पाने की मेरे दिल में गहरी वेदना रही है, अगर में अपने बच्चों को आसमान कि ऊंचाइयों तक पहुचाकर अपरिमित धन दे सकता तो शायद वे मुझे योग्य पिता मान लेते, न माने तो भी वे मेरे दिल के टुकड़े ही रहेंगे, हा बेटी जब अपने लक्ष्य पर पहुँच जाये तो वह मेरी मेलआईडी के पोस्ट किए सारे लेखों को पुस्तक का स्वरूप देने के अलावा लिखी चारों पुस्तकों को सभी तक पहुंचाने हेतु बेटों से ज्यादा सजग है। परिवार में ओर भी सदस्य है, विशेषकर बड़े घर में बड़ी भाभी, बहू सीता जैसी परीक्षा किसी ने नही दी, जो सक्षम है वे रिश्तों से बहुत दूर है, उनके लिए उनका अपना संसार ही सब कुछ है, बाकी उनके अपने उनके लिए कुछ नहीं। अरे ये क्या मृत्यु कि गोद में भी मोह ममता का बुखार आ गया जबकि यह शरीर मृत्यु के हवाले हो जाने से मृत हो गया है ओर अब लोग जल्द इस शरीर को यहा से हटाने कि तैयारी में जुटने लग गए।

घर के अंतपुर में रोने कि आवाज तेज हो गई है, सभी मेरे मृत शरीर से उमड़ पड़ रहे है ओर ताने दे रहे है कि आखिर हमे भी साथ ले जाते, किसके भरोसे छोड़ जा रहे हो, हम आपके बिना जी के क्या करेंगे, हमे भी साथ ले चलो। हे भगवान कितने निर्दयी हो, हमे क्यो नहीं ले गए, इनकी जगह हमे ले जाते तो अच्छा होता.... बगैरह बगैरह । ये जितने भी मेरे शव पर रोने वाले चीख चीख कर दिखावा कर प्रेम दिखा रहे है वे सब दिखावटी है मेरे घर परिवार के सदस्य जो मोह दिखा रहे है, उनका मोह मैं जानता हूँ इसलिए अब इनके द्वारा मेरे शव को श्मशान ले जाने कि तैयारी हो गई है । मैं अपने शव के इर्द गिर्द देख रहा हूँ, जिस घर में जिस परिवार के साथ मैंने कई साल गुजारे वह घर अब मेरा नहीं रहा, जिस बस्ती में मेरा घर है उस बस्ती से मैं उजड़ गया,यानि अब बह बस्ती मेरे लिए घर नहीं रही थी, मुझे मौत अपने साथ ले गई ...जहा मौत हो वह बस्ती क्यो कहलाती है , यह मेरी आत्मा सोच रही थी । जहा सभी कि शान बराबर हो वह शमशान भूमि जहा से कभी किसी के लौटा कर नही ले जाते वह अब मेरी हो गई है जहा पर चिता की मृदुल गोद मुझे चिर-विश्राम देगी। अब जबकि आप सभी जान गए कि मेरा अवसान हो गया तब एक प्रश्न उनसे जरूर करूंगा कि मैं जब जीवित रहा तब कभी भी आपने मेरी कुशल नही पूछी, जिस भाई भतीजों को चाहा वे घर से घर लगा होने के बाद घर के सामने से ऐसे बिना बोले निकलते थे मानों मैंने उनका सर्वस्य छिन लिया है। मैंने अपने जीवन काल में जिसे कभी जाना नहीं पहचाना नहीं, जिससे मेरी दोस्ती नहीं वह भी तब मेरे विषय में इस प्रकार दुष्प्रचार करता रहा जैसे सच में मैंने उसके घर का चीर हरण किया हो, आखिर मुझे सदमार्ग पर चलने के लिए जीते जी यह संत्रास क्यो झेलना पड़ा। यह अलग बात है कि इसी प्रकार के लोग मृत्यु के पश्चात मेरा सम्मान करने कि प्रतिस्पर्धा करेंगे, जिसे मैं देख नहीं पाऊँगा। मेरी आंखे मुँदने के बाद मेरी मृत्यु पर मुझे अंतिम क्रिया हेतु आज शाम से पहले ही ले जाने का निमंत्रण भी दिया जा चुका है अर्थात पंचायती हंका करा दिया गया है जिससे लोग घर पर जुटने लगे है। जो भी मेरी मौत की खबर सुनता,कहता विश्वास ही नहीं हो रहा कि आखिर अचानक यह कैसे हो गया।

मरने से पहले मैं एक सामान्य आम आदमी रहा हूँ जिसके प्राणों में क्या चलता रहा इसे कोई समझ नहीं सका मेरे मन को मेरे हृदय को जब मेरे भाई नहीं समझ सके तो फिर दुनियादारी के किसी ओर रिश्ते से क्या उम्मीद करता। मैंने सभी के गंभीर से गंभीर कष्टों को झेला है, जब जीवन भर गलतिया करके मेरे भाई गल्तियो को स्वीकारने की ताकत नही जुटा सके तब उन्हे एहसास कराने हेतु में दिल की गहराइओ तक तड़फकर क्षमा कर देता, मेरी इन कमजोरिया को मेरे भाइयों ने अपने लाभ के लिए इस्तेमाल किया । कई रातों में जागते हुये लेखन चिंतन मनन ओर साधना करते मुझे लगा जैसे विधाता मेरे विचारों में इस प्रलय का सामना करने का बल दे रहा है ओर मैं अपने भाइयो के लिए किसी बल की ढाल से सुरक्षा नही चाहता था। मैंने माता ओर पिता का एकांतवास देखा है, जिन्होने अपने खून पसीने से सींचा वे बेटे उनके नहीं हो सके तो मैं उनके सामने किस खेत की मुली था, आश्चर्य होता है की मेरे इन भाइयों को क्या चोदह भुवन का राज्य मिल गया था या तीनों लोकों के वे राजा हो गए थे जिनके समक्ष माँ ओर पिता तिरस्कृत हो जाये ओर उनकी ममता का मूल्य उनसे ज़िंदगी भर की दूरी बनाकर दे ओर अपना स्वार्थ निकालने के लिए ही उन्हे याद किया जाय ये सारी बाते मेरे आत्मा के सामने आ जा रही थी जब घर से मेरे शव को शमशानघाट लेकर जाया जा रहा था ओर मैं जीते जी राम नाम सत्य है, यह सत्य से दूर रह किन्तु मेरे शव को सुनाने के लिए लोग रास्ते भर कहते जा रहे थे, सब शमशान घाट का वह चबूतरा आ गया जहा मेरे शव को एक मिनिट रोककर , मृत्युकर चुकाकर कंधे बदले जाकर चिता पर लिटाया गया।

युगों से निरंतर यही चला आ रहा है कि जिसकी आयु पूरी हो जाये उसे मरना है, यही कारण है कि इस धरती पर कोई भी वीर महावीर, अवतार तक नहीं रुक सका ओर पानी के बुलबुला के तरह मिटकर वह चला गया तब यदि मैं मर गया तो कोई अजूबा नहीं हुआ। जग में जिसने जन्म लिया है उसे मरना पड़ा है,आज मैं मर गया तो इसमें आश्चर्य की कौन सी बात है आखिर कभी तो मरना था। जगत के लोगों ने मेरे साथ कैसा व्यवहार किया या मैंने अपने प्राणों में उठी उमंगों को कुचलकर क्षितिज कि ऊंचाइयों तक क्यो नही पहुँच सका यह मेरे प्रारब्ध के किसी श्राप या बददुआ के कारण हो सकता है, वरना इस जीवन में सभी से वरदान ही मिला था जो कुछ कमाए बिना लोगो से मांगचुंगकर हंसी खुसी जीवन निकल गया। हाँ अब शमशान में मेरी चिता को अग्नि में देने के बाद मेरी कपालक्रिया तक बैठकर या जब भी मेरी याद आए तब मेरी कथनी करनी से लेकर मेरी उपेक्षा, मान, निंदा स्तुति का मुरब्बा तैयार कर अपने-अपने हिसाब से मसाला मिलाकर अपनी श्वासों के कारागार में मुझे बंदी बना सकते हो या मेरे जीवन भर का आँसुओ पर पत्थर बन मुझ अभागे को कोस कर अपनी भड़ास निकल सकते हो , पर ऐसी बहदुरी करने का साहस न कर सभी लोग खाक हो चुके मेरे शव को लकड़ी दे परिक्रमा कर वही शोकसभा आयोजित करके मेरे परिजनो को मेरे न रहने का दुख सहन करने कि ताकत परमात्मा दे, ये कोरे शब्द किसी नसेलची के किए गए नशे की खुराक की तरह बोलकर चल दोगे। कोरे अर्थात खाली, शून्य तिक्त ... ये शून्य तिक्त शब्द अर्थहीन है ,क्योकि इन्हे सिर्फ आपके होंटों ने छुआ है ये हृदय की गहराइयों से निकले शब्द नहीं है।

मेरा शरीर शमशान मे खाक हो चुकने के बाद मेरे जीवन के जुड़े मेरे प्रसंगो को याद कर लोगों को सुनकर मुझे श्रद्धांजलि अर्पित करेंगे। जिसे मेरे जीते जी संपर्क में जो अच्छाई या बुराई मुझमे दिखी वह दुख से साथ याद कर मेरी याद को जिंदा रखने के लिए अपने अपने प्रयास करेगा ओर अधिकारियों से मांग कर ज्ञापन सौपेगा ओर फोटो के साथ समाचार पत्रों में छपवाएगे। मेरी आत्मा मेरे मरने कि सभी शोक सभाए सुनती, किन्तु मेरे स्वजन जिनकी दी गई व्यथा की आग में दिनरात घुल-घुल कर मेरी मौत हुई यह बात की मेरी आत्मा अकेली साक्षी रही है ओर वह गवाही देने तो आएगी नहीं, हा पंद्रह दिन एक महीने बाद मेरा जिक्र ही समाप्त हो गया ओर जैसे मेरे पैदा होने से पहले दुनिया चल रही थी, मेरे मरने के बाद भी वैसे ही दुनिया चलती रहेगी॥



- आत्माराम यादव पीव


पत्रकारिता का उद्देश्य राष्ट्रीयता और जन जागरण : महात्मा गांधी


महात्मा गांधी की पत्रकारिता शैली एवं दर्शन आज भी उतनी ही प्रासंगिक है, जितनी आजादी के अनुभूति है। अगर समाचार पत्रों में भाषा का स्तर गिर रहा है तो इसके पीछे महात्मा गांधी द्वारा अपनाई गई भाषा की शुद्धता एवं सरोकार के मुद्दों का आभाव है। महात्मा गांधी की नजर में पत्रकारिता का उद्देश्य राष्ट्रीयता और जन जागरण था। वह जनमानस की समस्याओं के मुख्यधारा की पत्रकारिता में रखने के प्रबल पक्षधर थे। शब्द किसी हथियार से कमतर नहीं है। इन्हीं को ध्यान में रखकर महात्मा गांधी अपनी पत्रकारिता करते थे। उनकी राय में पत्रकारिता एक सेवा है। पत्रकारिता को कभी-भी निजी हित या आजीविका कमाने का जरिया नहीं बनना चाहिए। उन्होंने अपनी पत्रिका का प्रसार बढ़ाने के लिए किसी गलत तरीके का इस्तेमाल नहीं किया, ना ही कभी दूसरे अखबारों से स्पर्धा की। अंग्रेजी का अखबार निकालने में उनकी कोई विशेष रुचि नहीं थी। उन्होंने हिंदी और गुजराती में नवजीवन के नाम से नया प्रकाशन शुरू किया। इनमें वे रोजाना लेख लिखते थे। उनके अखबारों में कभी-कोई सनसनीखेज समाचार नहीं होता था। वे बिना थके सत्याग्रह, अहिंसा, खान-पान, प्राकृतिक चिकित्सा, हिंदू-मुस्लिम एकता, छुआछूत, सूत काटने, खादी, स्वदेशी, ग्रामीण अर्थव्यवस्था और निषेध पर लिखते थे। वे शिक्षा व्यवस्था के बदलाव और खानपान की आदतों पर जोर देते थे।





गांधी जी का मानना था कि जब बाजार की सभी लाठियां और चाकू बिक गए तो एक पत्रकार यह अनुमान लगा सकता है कि दंगे होने वाले हैं। एक पत्रकार की जिम्मेदारी है कि वह लोगों को बहादुरी का पाठ सिखाए, ना कि उनके भीतर भय पैदा करे। गांधी जी ने कभी-भी कोई बात सिर्फ प्रभाव छोड़ने के लिए नहीं लिखी, न ही किसी चीज को बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया। उनके लिखने का मकसद था, सच की सेवा करना, लोगों को जागरुक करना और अपने देश के लिए उपयोगी सिद्ध होना। वे लोगों के विचारों को बदलना चाहते थे। भारतीयों और अंग्रेजों के बीच मौजूद गलतफहमियों को दूर करना चाहते थे। उन्होंने कहा था कि मैंने एक भी शब्द बिना विचारे, बिना तौले लिखा हो या किसी को केवल खुश करने के लिए लिखा हो अथवा जान-बूझकर अतिशयोक्ति की हो, ऐसा मुझे याद नहीं पड़ता। उनके प्रतिष्ठित पाठकों में भारत में गोपाल कृष्ण गोखले, इंग्लैंड में दादाभाई नौरोजी और रूस में टॉलस्टॉय शामिल थे। उन्हें यह बात बताने में गर्व का अनुभव होता था कि नवजीवन के पाठक किसान और मजदूर हैं, जो कि असली हिंदुस्तानी है।

गांधीजी की पत्रकारिता का सफर अफ्रीका से शुरू होता है। वहां पर एक कोर्ट परिसर में गांधी जी को पगड़ी पहनने से मना कर दिया गया और कहा गया कि उन्हें केस की करवाई बिना पगड़ी के ही करनी होगी। जिसके कारण गांधी जी को अपनी पगड़ी को कोर्ट परिसर में ही उतारनी पड़ गई। अगले ही दिन गांधीजी ने डरबन के स्थानीय संपादक को पत्र लिखकर इस मामले पर अपना विरोध जताया। विरोध के तौर पर लिखी गई उनकी चिट्ठी को अखबार में जस का तस प्रकाशित किया। यह पहली बार था जब गांधी जी का कोई लेख अखबार में प्रकाशित हुआ था। इस प्रकार से गांधी जी की पत्रकारिता का सफर एक दुखद परिस्थिति से शुरू होती है। इसके बाद शायद गांधी जी को यह बात समझ में आ गई थी कि पत्र-पत्रिकाएं ही वह माध्यम है जिसके द्वारा अपनीं बातों को लोगों तक आसानी से पहुंचा सकते हैं। इसके बाद गांधी जी ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। अब वह अपनी बातों को लोगों तक पहुंचाने के लिए लेख के रूप में पत्र-पत्रिकाओं में छपवाने लगे।

सन 1888 से लेकर 1896 तक का समय गांधी जी के पत्रकारिता के संपर्क में आने और स्थापित होने का समय कहा जा सकता है। गांधी जी अखबारों के नियमित पाठक 19 साल की उम्र में इंग्लैंड पहुंचने के बाद बने। 21 साल की उम्र में उन्होंने 9 लेख सरकार के ऊपर एक अंग्रेजी साप्ताहिक वेजिटेरियन के लिए लिखे। दक्षिण अफ्रीका पहुंचने पर गांधी जी ने भारतीयों की शिकायतों को दूर करने और उनके पक्ष में जनमत जुटाने के लिए समाचार पत्रों में लिखना शुरू किया। जल्द ही उन्होंने भारतीय समुदाय के अधिकारों के लिए संघर्ष करने हेतु पत्रकार बनने की आवश्यकता महसूस हुई और अफ्रीका में ही उन्होंने अपने संपादकत्व में इंडियन ओपिनियन नामक साप्ताहिक पत्र निकाल दिया। उस दौर में उन्होंने इस अखबार को पांच भारतीय भाषाओं में प्रकाशित किया। गांधी जी ने अपनी साहित्यिक प्रेम को भी बखूबी तौर से निभाया और कई दशकों तक साहित्यिक लेखक और पत्रकार के रूप में कार्य किया तथा कई समाचार पत्रों का संपादन भी किया। महात्मा गांधी ने उस समय में जब भारत में पत्रकारिता अपने शैशव काल में थी, पत्रकारिता की नैतिक अवधारणा प्रस्तुत की। गांधी ने जिन समाचार पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन अथवा संपादन किया, वह अपने समय में सर्वाधिक लोकप्रिय पत्रों में माने गए, जिनको जानना आज के युवा पीढ़ी के लिए बहुत जरुरी हो गया है।

भारत आने पर युवा भारत के संपादकीय दायित्व को भी संभाला और साथ ही यंग इंडिया और नवजीवन का संपादन भी शुरू किया। 1893 में गांधी जी ने हरिजन बंधु और हरिजन सेवक को क्रमश: अंग्रेजी, गुजराती और हिन्दी में शुरू किया। इन पत्रों के माध्यम से उन्होंने अंग्रेजों पर आंदोलन का संचालन किया। गांधीजी ने चार दशकों के पत्रकारिता काल में कुल 6 पत्रों का संपादन किया। उन्हें समाचार पत्रों का प्रकाशन कई बार बंद करना पड़ा, लेकिन वे ब्रिटिश सरकार की नीतियों के आगे झुके नही। गांधी जी की गिरफ्तारी हुई और उनके पत्र बंद हुए लेकिन मौका मिलते ही उनके प्रकाशन में जुट जाते थे। गांधीजी सबसे महान पत्रकार हुए हैं।

- डॉ. नन्दकिशोर साह


13 September 2024

कविताः तोहफा



मुझे
कभी न देना
कोई तोहफा
मेरे सबसे प्यारे दोस्त…
देना कभी
कोई खूबसूरत मँहगी कलम
जम जाए कुछ रोज़ में जिसकी स्याही
और थका दे मेरा मन
उसके चलने का भारीपन
न खुद से दूर कर पाऊँ
और न ही जिसे हर पल पास रख पाऊँ…
न देना कभी
कोई ग्रीटिंग कार्ड
जो सप्ताह या माह भर बाद
लगने लगे पुराना
बीतती तारीखों के साथ
हो जाए अप्रासंगिक
और कर दिया जाए
किन्हीं पुरानी फाइलों में दबे
चाहे-अनचाहे भावमय शब्दों के
बाकी नए पुराने
ग्रीटिंग्स के साथ नज़रबंद…
न देना कभी
कोई फूल या गुलदस्ता
कि जिसके मुरझाने पर
मुरझा जाए मेरा ही दिल,
शाम ढले
मुरझा कर तिरस्कृत हो
गुलदान से निकाल दिया जाना
यही हो जिसकी नियति,
न देना मुझे
उसे फेंक दिए जाने का दर्द…
.
न देना कभी
मुझे कोई लिबास
कि जिसमें लिपट
रंगने लगूँ तुम्हारे रंगों में
इस कदर
कि सपनों से तैर जाओ तुम
मेरी सम्मोहित आँखों में,
और तुम्हारे पास होने के भ्रम पर
तड़प कर रो पड़ें मेरी आँखें…
कुछ देना
तो देना बस
समय के बेशकीमती सागर से चुरा
अनमोल पलों के बेहिसाब मोती...
जिन्हे कैद कर मन की सीप में
खोई रहूँ फिर
जीवन की लहरों में
हमेशा ! हमेशा ! हमेशा !

- प्राची



12 September 2024

सोशल मीडिया और भारतीय नागरिक!

सोशल मीडिया को भारत में आए हुए करीब 17 या 18 साल हो गए हैं। 2014-15 के बाद से भारत में सोशल मीडिया का एक अलग ही नशा चढ़ा जो भारतीय समाज से उतारने का नाम ही नहीं ले रहा है। सोशल मीडिया आज पूरे विश्व के लिए एक मुसीबत बन गई है। इसके प्रभाव को कम करने के लिए विभिन्न देशों ने अपने देश में अलग-अलग कानून और नियम बनाए हैं। सोशल मीडिया के प्रभाव को देखते हुए अब भारत में भी सोशल मीडिया को लेकर कठोर कानून बनाए जाने की जरूरत है।



सोशल मीडिया का जितना अच्छा प्रभाव है, उतना ही नुकसान भी है। पिछले कुछ सालों में सोशल मीडिया के कारण क‌ई ऐसे केस सामने आए हैं, जो हमारे समाज के लिए चिंताजनक या फिर खतरनाक है। इसके अलावा इन दिनों युवाओं और महिलाओं से लेकर हर किसी में सोशल मीडिया के जरिए लोकप्रिय होने की होड़ मची हुई है। इसके लिए लोग विभिन्न प्रकार की हरकतें करते हुए दिखाई दे देते हैं। उदाहरण के लिए- महिलाओं का अंग प्रदर्शन करना और युवाओं का जान को जोखिम में डालकर वीडियो बनाना आदि। इनके अलावा क‌ई ऐसे उदाहरण हैं जो हमारे समाज के लिए कैंसर का काम कर रही हैं।

आज सोशल मीडिया पर देश का लगभग हर युवा अपना वक्त बर्बाद कर रहा है। चाहे वह घंटों रील देखना हो या फिर चैट करना या इत्यादि वीडियो देखना हो। सोशल मीडिया के आने के बाद से विभिन्न प्रकार की बीमारियां भी हमारे समाज में बढ़ी हैं जैसे- डिप्रेशन और आंखों का कमजोर होना इत्यादि। भारत की जनसंख्या 140 करोड़ से अधिक है और हर देश भारत का डाटा इकट्ठा करना चाहता है। अगर सीधे शब्दों में कहूं तो अमीर देशों द्वारा डाटा के माध्यम से हमें मानसिक गुलाम बनाया जा रहा है। आज हम अपने फोन के सामने अगर कुछ खरीदने को लेकर बात करते हैं तो हमें हमारे फोन में उस चीज के विज्ञापन दिखाई देने लगते हैं। क्या यह मानसिक गुलामी का संकेत नहीं है ? मेरा मानना है यह मानसिक गुलामी का संकेत नहीं बल्कि मानसिक गुलाम हमें बनाया जा चुका हैं।

बतौर भारतीय नागरिक हम सभी को इस पर विचार करना चाहिए कि सोशल मीडिया हमारे जीवन और समाज के लिए कितना जरूरी है ? और हम सोशल मीडिया में अपना कितना समय बर्बाद कर रहे हैं ? इसके इस्तेमाल से हमें क्या फायदे और क्या नुकसान हो रहे हैं ? क्या जीवन का मकसद सिर्फ लोकप्रिय होना रह गया है ?


- दीपक कोहली



11 September 2024

मंटो का अपने चाचा के नाम पत्र



मुकर्रमी-ओ-मुहतरमी चचा जान
तस्लीमात!

अर्सा हुआ मैंने आपकी ख़िदमत में एक ख़त इरसाल किया था। आपकी तरफ़ से तो उसकी कोई रसीद ना आई मगर कुछ दिन हुए आपके सिफ़ारत-ख़ाने के एक साहब जिनका इस्म-ए-गिरामी मुझे इस वक़्त याद नहीं, शाम को मेरे ग़रीब-ख़ाने पर तशरीफ़ लाए। उनके साथ एक स्वदेशी नौजवान भी थे। उन साहिबान से जो गुफ़्तगू हुई, वो मैं मुख़्तसिरन बयान कर देता हूँ।

उन साहब से अंग्रेज़ी में मुसाफ़ा हुआ। मुझे हैरत है चचा जान कि वो अंग्रेज़ी बोलते थे। अमरीकी नहीं, जो मैं सारी उम्र नहीं समझ सकता। बहर-हाल उनसे आध-पौन घंटा बातें हुईं। वो मुझसे मिलकर बहुत ख़ुश हुए, जिस तरह हर अमरीकी, पाकिस्तानी या हिन्दुस्तानी से मिलकर ख़ुश होता है। मैंने भी यही ज़ाहिर किया है कि मुझे बड़ी मुसर्रत हुई है। हालाँकि हक़ीक़त ये है कि मुझे सफ़ेद फ़ाम अमरीकनों से मिलकर कोई राहत या मुसर्रत नहीं होती। आप मेरी साफ़-गोई का बुरा ना मानीएगा। पिछली बड़ी जंग के दौरान में मेरा क़याम बंबई में था। एक रोज़ मुझे बॉम्बे सेंट्रल (रेलवे स्टेशन जाने का इत्तिफ़ाक़ हुआ। उन दिनों वहाँ आप ही के मलिक का दौर-दौरा था। बेचारे टॉमियों को कोई पूछता ही नहीं था। बंबई में जितनी ऐंगलो इंडियन, यहूदी और पारसी लड़कियाँ जो इस्मत-फ़रोशी को अज़-राह-ए-फ़ैशन इख़्तियार किए हुए थीं, अमरीकी फ़ौजियों की बग़ल में चली गईं।

चचा जान, मैं आपसे सच अर्ज़ करता हूँ कि जब आपके अमरीका का कोई फ़ौजी किसी यहूदन, पारसी या ऐंगलो इंडियन लड़की को अपने साथ चिमटाये गुज़रता था तो टॉमियों के सीने पर साँप लोट-लोट जाते थे। अस्ल में आपकी हर अदा निराली है। हमारे फ़ौजी को तो यहाँ इतनी तनख़्वाह मिलती है कि वो उसका आधा पेट भी नहीं भर सकती, मगर आप एक मामूली चपरासी को इतनी तनख़्वाह देते हैं कि अगर उसके दो पेट हैं तो वो उनको भी नाक तक भर दे। चचा जान, गुस्ताख़ी माफ़ क्या ये फ़रॉड तो नहीं... आप इतना रुपये कहाँ से लाते हैं। छोटा मुँह और बड़ी बात है, लेकिन आप जो काम करते हैं, उसमें ऐसा मालूम होता है कि नुमाइश ही नुमाइश है... हो सकता है कि मैं ग़लती पर हूँ मगर गलतीयाँ इन्सान ही करता है और मेरा ख़्याल है कि आप भी इन्सान हैं, अगर नहीं हैं तो उसके मुताल्लिक़ कुछ नहीं कह सकता।

मैं कहाँ से कहाँ चला गया... बात बॉम्बे सेंट्रल रेलवे स्टेशन की थी। मैंने वहाँ आपके कई फ़ौजी देखे। उनमें ज़्यादा-तर सफ़ेद फ़ाम थे... कुछ सियाह फ़ाम भी थे... मैं आपसे सच अर्ज़ करूँ कि ये काले फ़ौजी, सफ़ेद फ़ौजियों के मुक़ाबले में कहीं ज़ियादा तनोमंद और सेहत-मंद थे। मेरी समझ में नहीं आता कि आपके मुल्क के लोग इस कसरत से चश्मा क्यों इस्तिमाल करते हैं। गोरों ने तो ख़ैर चश्मे लगाए हुए थे लेकिन कालों ने भी जिन्हें आप हब्शी कहते हैं और ब-वक़्त-ए-ज़रूरत ''लंच'' कर देते हैं, वो क्यों ऐनक की ज़रूरत महसूस करते हैं। मेरा ख़्याल है कि ये सब आपकी हिक्मत-ए-अमली है... आप चूँकि पाँच आज़ादियों के मुद्दई हैं, इसलिए आप चाहते हैं कि वो लोग जिन्हें आप बड़ी आसानी से हमेशा के लिए आराम की नींद सुला सकते हैं और सुलाते रहे हैं, एक मौक़ा दिया जाए कि वो आपकी दुनिया को आपकी ऐनक से देख सकें।

मैंने वहाँ बॉम्बे सेंट्रल के स्टेशन पर एक हब्शी फ़ौजी को देखा। उसके डंट्रेह मोटे-मोटे थे... वो इतना तनोमंद था कि मैं डर के मारे सिकुड़ के आधा हो गया, लेकिन फिर भी मैंने जुर्अत से काम लिया। वो अपने सामान से टेक लगाए सुस्ता रहा था। मैं उसके पास गया। उसकी आँखें मुंदी हुईं थीं। मैंने बोट के ज़रीए आवाज़ पैदा की। उसने आँखें खोलीं तो मैंने उससे अंग्रेज़ी में कहा, जिसका मफ़्हूम ये था, ''मैं यहाँ से गुज़र रहा था, लेकिन आपकी शख़्सियत देख कर ठहर गया।'' उसके बाद मैंने मुसाफ़े के लिए हाथ बढ़ाया। उस काले-कलूटे फ़ौजी ने, जो चशमा लगाए हुए था, अपना फ़ौलादी पंजा मेरे हाथ में पैवस्त कर दिया। क़रीब था कि मेरी सारी हड्डियाँ चूर-चूर हो जाएं कि मैंने उससे इल्तिजा की, ''ख़ुदा के लिए... बस इतना ही काफ़ी है।'' उसके काले-काले और मोटे-मोटे होंटों पर मुस्कुराहट पैदा हुई और उसने ठीट अमरीकी लहजे में मुझसे पूछा, ''तुम कौन हो?''

मैंने अपना हाथ सहलाते हुए जवाब दिया, ''मैं यहाँ का बाशिंदा हूँ। यहाँ स्टेशन पर तुम नज़र आ गए तो बे-इख़्तियार मेरा जी चाहा कि तुमसे दो बातें करता जाऊँ।'' उसने मुझसे अजीब-ओ-ग़रीब सवाल किया, ''इतने फ़ौजी मौजूद हैं... तुम्हें मुझ ही से मिलने का शौक़ क्यों पैदा हुआ?'' चचा जान सवाल टेढ़ा था, लेकिन जवाब ख़ुद-ब-ख़ुद मेरी ज़बान पर आ गया। मैंने उस से कहा, ''मैं काला हूँ। तुम भी काले हो... मुझे काले आदमियों से प्यार है।'' वो और ज़्यादा मुस्कुराया... उसके काले और मोटे होंट मुझे इतने प्यारे लगे कि मेरा जी चाहता था कि उन्हें चूम लूँ।

चचा जान, आपके हाँ बड़ी ख़ूबसूरत औरतें हैं, मैंने आपका एक फ़िल्म देखा था... क्या नाम था उसका... हाँ याद आ गया, ''बे-दंग ब्यूटी।'' ये फ़िल्म देख कर मैंने अपने दोस्तों से कहा था कि चचा जान इतनी ख़ूबसूरत टाँगें कहाँ से इकट्ठी कर लाए हैं। मेरा ख़्याल है क़रीब-क़रीब दो-ढाई सौ के क़रीब तो ज़रूर होंगी... चचा जान, क्या वाक़ई आपके मुल्क में ऐसी टाँगें आम होती हैं...? अगर आम होती हैं, तो ख़ुदा के लिए (अगर आप ख़ुदा को मानते हैं तो उनकी नुमाइश कम-अज़-कम पाकिस्तान में बंद कर दीजिए। हो सकता है कि यहाँ आपकी औरतों की टाँगों के मुक़ाबले में कहीं ज़ियादा अच्छी टाँगें हों... मगर चचा जान यहाँ कोई उनकी नुमाइश नहीं करता। ख़ुदा के लिए ये सोचिए कि हम सिर्फ़ अपनी बीवी ही की टाँगें देखते हैं, दूसरी औरतों की टाँगें देखना हम अपने आप पर हराम समझते हैं... हम बड़े और थूडू किस क़िस्म के आदमी हैं।

बात कहाँ से निकली थी, कहाँ चली गई... मैं इस की माज़रत नहीं चाहता कि आप ऐसी ही तहरीर पसंद करते हैं। कहना ये था कि आपके वो साहब जो यहाँ के कॉन्सिल-ख़ाने से वाबस्ता हैं, मेरे पास तशरीफ़ लाए और मुझसे दरख़्वास्त की कि मैं उनके लिए एक अफ़साना लिखूँ। मैं बहुत मुतहय्यर हुआ, इसलिए कि मुझे अंग्रेज़ी में लिखना आता ही नहीं। मैंने उनसे अर्ज़ की, ''जनाब मैं उर्दू ज़बान का राईटर हूँ... मैं अंग्रेज़ी लिखना नहीं जानता।'' उन्होंने फ़रमाया, ''मुझे उर्दू में चाहिए... हमारा एक पर्चा है जो उर्दू में शाएअ होता है।'' मैंने उसके बाद मज़ीद तफ़तीश की ज़रूरत ना समझी और कहा, ''मैं हाज़िर हूँ।'' और ख़ुदा वाहिद नाज़िर है कि मुझे मालूम नहीं था कि वो आपके कहे पर तशरीफ़ लाए हैं और आपने उन्हें मेरा वो ख़त पढ़ा दिया था जो मैंने आपको लिखा था।

ख़ैर, इस क़िस्से को छोड़िए... जब तक पाकिस्तान को गंदुम की ज़रूरत है, मैं आपसे कोई गुस्ताख़ी नहीं कर सकता... वैसे ब-हैसीयत पाकिस्तानी होने के (हालाँकि मेरी हुकूमत मुझे इताअत-गुज़ार नहीं समझती, मेरी दुआ है कि ख़ुदा करे कभी आपको भी बाजरे और निक सक के ''साग' की ज़रूरत पड़े और मैं अगर इस वक़्त ज़िंदा हूँ तो आपको भेज सकूँ।

अब सुनिए कि उन साहब ने जिनको आपने भेजा था मुझसे पूछा, ''आप एक अफ़साने के कितने रुपये लेंगे।'' चचा जान, मुम्किन है आप झूट बोलते हों... और आप यक़ीनन बोलते हैं, ब-तौर-ए-फ़न... और ये फ़न मुझे अभी तक नसीब नहीं हुआ। लेकिन उस रोज़ मैंने एक मुब्तदी के तौर पर झूट बोला और उनसे कहा, ''मैं एक अफ़साने के लिए दो सौ रुपये लूँगा अब हक़ीक़त ये है कि यहाँ के नाशिर मुझे एक अफ़साने के लिए ज़ियादा से ज़ियादा चालीस-पच्चास रुपये देते हैं। मैंने ''दो सौ रुपये'' तो कह दिया, लेकिन मुझे इस एहसास से अंदरूनी तौर पर सख़्त निदामत हुई कि मैंने इतना झूट क्यों बोला। लेकिन अब क्या हो सकता था। लेकिन चचा जान मुझे सख़्त हैरत हुई, जब आपके भेजे हुए साहब ने बड़ी हैरत से (मालूम नहीं, वो मस्नूई थी या अस्ली) फ़रमाया, ''सिर्फ़ दो सौ रुपये... कम-अज़-कम एक अफ़साने के लिए पाँच सौ रुपये तो होने चाहिऐं।''

अब मैं हैरत-ज़दा हो गया कि एक अफ़साने के लिए पाँच सौ रुपये... ये तो मेरे ख़्वाब-ओ-ख़्याल में भी नहीं आ सकता था... लेकिन मैं अपनी बात से कैसे हट सकता था... चुनाँचे मैंने चचा जान, उनसे कहा, ''साहब देखिए, वो सौ रुपये ही होंगे... बस अब आप उसके मुताल्लिक़ ज़ियादा गुफ़्तगू ना कीजिए।'' वो चले गए... शायद इसलिए कि वो समझ चुके थे कि मैंने पी रखी है... वो शराब जो मैं पीता हूँ, उसका ज़िक्र मैं अपने पहले ख़त में कर चुका हूँ।

चचा जान, मुझे हैरत है कि मैं अब तक ज़िंदा हूँ... हालाँकि मुझे पाँच बरस हो गए हैं, यहाँ का कशीदा ज़हर पीते हुए। मेरा ख़्याल है अगर आप यहाँ तशरीफ़ लाएंगे, तो मैं आपको ये ज़हर पेश करूँगा। उम्मीद है, आप भी मेरी तरह हैरत-अंगेज़ तौर पर ज़िंदा रहेंगे और आपकी पाँच आज़ादियाँ भी सलामत रहेंगी। ख़ैर... इस क़िस्से को छोड़िए... दूसरे रोज़ सुब्ह-सवेरे जब कि मैं बरामदे में शेव कर रहा था, आपके वही साहब तशरीफ़ लाए। मुख़्तसर सी बातचीत हुई। उन्होंने मुझसे फ़रमाया, ''देखिए... दो सौ की रट छोड़िए... तीन सौ ले लीजिए।'' मैंने कहा चलो ठीक है, चुनाँचे मैंने उनसे तीन सौ रुपये ले लिए... रुपये जेब में रखने के बाद मैंने उनसे कहा, ''मैंने आपसे सौ रुपये ज़ियादा वुसूल किए हैं... लेकिन ये वाज़ेह रहे कि जो कुछ मैं लिखूँगा, वो आपकी मर्ज़ी के मुताबिक़ नहीं होगा। इसके अलावा उसमें किसी क़िस्म के रद्द-ओ-बदल का हक़ भी मैं आपको नहीं दूँगा।

वो चले गए... फिर नहीं आए। चचा जान अगर आपके पास पहुँचे हों और उन्होंने आपको कोई रिपोर्ट पहुँचाई हो, तो अज़ राह-ए-करम अपने पाकिस्तानी भतीजे को इससे ज़रूर मुत्तलाअ फ़रमा दें। मैं वो तीन सौ रुपये ख़र्च कर चुका हूँ... अगर आप वापिस लेना चाहें तो मैं एक रुपया माहवार के हिसाब से अदा कर दूँगा। उम्मीद है कि आप अपनी पाँच आज़ादियों समेत ख़ुश-ओ-ख़ुर्रम होंगे।
आपका भतीजा ख़ाकसार

सआदत हसन मंटो
31 लक्ष्मी मेंशनज़ हाल रोड लाहौर


10 September 2024

कविताः बूढ़ी आँखें



ऐसे दोर मे भी खुद को सम्भाले रखा है,
बुरे वक़्त मे भी हौसला बनाये रखा है।

में हमेशा छला गया हुँ मेरे अपनों से,
फिर भी अपनों को अपना बनाये रखा है।

बुढी आँखों में तुम को बिठा के रखा है,
कतरा कतरा आँसू का बचा के रखा है।

खुद को आदि बना डाला तेरे जुल्म का,
ऐसे अपनी इज्जत को बचा के रखा है।

अपने ही मकान में कुछ ऐसे रखा है,
जैसे पिंजरे में बंद किसी तोते को रखा है।

चाह कर भी आजाद हों नहीं सकता,
इन रिश्तों रिवाजो ने जकड़ के रखा है।

दुनिया की नजरों से  छिपा के रखा है,
ऐसे दोर मे भी खुद को सम्भाले रखा है।


                                                     - लीलाधर चौबिसा

09 September 2024

कविताः ऐयाश मुर्दो



ऐयाश मुर्दो सा जीवन जीते हो
न हंसते हो न रोते हो।

मूक जीवन की सत्ता पर
गुंगे बन तुम
बहरों की तरह फिरते हो।

बेईमानी की परत पर
सदाचार की तावीज़ पहन कर
खुद को खुदा घोषित करते हो।

गणतंत्र की तिरछी राह पर
अपनी अधूरी मूर्त लेकर
जगह- जगह तुम फिसलते  हो।

तट की खोज में
ज़माने की पगडंडी पर चल
भविष्य के भूत से डरते हो ।

ऐयाश मुर्दो सा जीवन जीते हो
न हंसते हो न रोते हो।

                                             - डॉ.राजीव डोगरा

भारतीय संस्कृति में लातों की परम्परा एक लघु गवेषणा


भारतीय संस्कृति अपने आप में रोचक ओर सनातन परम्पराओं की सूचक है जिसका हर पल मूल्यांकन तथा पुनर्मूल्यांकन करने वाले अनेक विद्वानों ने यथेष्ठ निवर्तनीय निर्विवाद सत्यों का उद्घाटन किया है। मानव मात्र की अपनी सीमायें हैं, अपनी संस्कृति है जिसकी व्याख्या समय, परिस्थिति, घटना ओर विषयपरक अध्यात्म अथवा जीवन के प्रसंगों के सभी महत्वपूर्ण पहलुओं पर वह करता रहा है। मनुष्य का शरीर एक ब्रह्मांड माना है जिसमें पंचतत्व, पंचमहाभूत आदि सारा जगत समाहित है। हम यहा शरीर का विशेष ओर महत्वपूर्ण अंग पाद की बात करना चाहेंगे। लात-जिसे पैर, पाँव, गोड़, पद, चरण तथा टाँग, पाद आदि अनेक रूपों से यथा स्थान जरूरत अनुसार पुकारा गया है, न सिर्फ हमारी देह का ही बल्कि हमारी संस्कृति का ही अविच्छिन्न अंग रहा है। फिर प्रश्न उठता है कि इसका क्या कारण है? यह क्यों हुआ? फिर यहीं उत्तर मिलता है कि अनेक अनिर्वचनीय सत्यों की ही भाँति यह भी एक सत्य है कि यदि मानव के पास लात न होते तो वह एक जड प्राणी होता किन्तु इसी जड़ता ने हमें चेतनता की ओर ले जाने वाला साधन यही लात दी है। निश्चय ही हमे यह बात दोहरानी पड़ेगी कि लात ही प्रगति और जीवन का चिन्ह है। लात में सौन्दर्य ओर भक्ति की दिव्यता भी देखी जा सकती है ओर लात को देख वासना आने पर नैतिक पतन एवं मानवीय भाव के तिरोहित होने पर पेड़ पौधे पहाड़ जैसे जड़ता अथवा क्रूरतम पशु बन पाशविकता की चर्मोत्कृष्टता भी कलंक के रूपं में सामने होती है।



आप भी संतुलित ढंग से और बिना पूर्वाग्रहों को मन में लात को एक युगान्तरकारी अस्त्र मानकर स्थान देने का मन बना ले तो लात के विषय में आप जागरूकता होंगे ओर निर्णय लेने को विवश होंगे की सच में ही लात युगांतर करने वाला अस्त्र है जो जाने भूले-भटकों को राह सुझाने वाला एक सशक्त माध्यम रहा है। लात से ही विकास क्रम का मार्ग निकलता है । मानव की प्रगतिशीलता का प्रतिनिधित्व इन्हीं लातों ने किया ओर चाँद तारों सहित अन्तरिक्ष में अपनी विजय का डंका बजाने ये ही लातें पहुंची है किन्तु सर्वत्र अपना लोहा मनवाने वाली इन लातों को हमेशा उपेक्षा ही मिली है ओर साहित्य जगत भी इन लातों के अपने विचारों से लात मारकर उपेक्षित ही किए है। भारतीय संस्कृति में लातों को लेकर अनेक प्रसंग है किन्तु क्या हमारी यह संस्कृति लातों के साथ हुये पक्षपातों ओर पुरोगामी संस्कृति के व्याख्याकारों की उपेक्षाओं का उत्तर देने का साहस करेंगे, शायद कदापि नही। इन्हीं तथ्यपरक विचार में हमारा शीर्षक विषय होने से ये अत्यन्त आवश्यक हो जाता है कि संस्कृति की पूर्ण व्याख्या करते समय हमें लातों की परम्परा पर भी एक दृष्टिपात कर लेना चाहिये । संस्कृति क्या है ? यह सवाल सभी के मन में उठता है ओर मन ही इसका उत्तर देता है की संस्कृति वह है जिसे बिना सोचे विचारे हम बिना झिझक करते है ओर उसके कारण में नहीं झाँकते है। हम से तात्पर्य समाज की वह बिखरी ओर संगठित इकाई है जो एक हो जाये तो अगाध शक्तिशाली हो जाती है ओर यही शक्ति जन जन में प्रवाहित होने लगती है जो संस्कृति का रूप ले लेती है ओर कालांतर में यही वैचारिक जनधारा सबकी चिरपरिचित होने से सभी के लिए सुगम हो जाती है ओर फिर आवश्यक नही की सभी जन एक साथ मिलकर या विचार कर इस परंपरा को अपनाए, सभी इस परंपरा की बन चुकी पगडंडियों पर पूर्व की तरह बिना विचारों पर चलते रहेंगे।

आप सभी सुधिपाठक जन को स्मरण ही होगा कि सुप्रसिद्ध मुनि भृगु ने क्षीर सागर में शेषनाग पर लेटे ओर लक्ष्मी के पैर दबाते समय समस्त लोको के स्वामी सत्ताधारी श्रीहरि विष्णु को जो लात मारी थी और उससे उनका जो कुछ खोया था, सो उसका आज तक पता नहीं चल पाया है, यह सतयुग की बात कलियुग के उनके एक भक्त रहीम ने स्वीकारी है -का रहीम हरि को गयो, जो भृगु मारी लात ? अर्थात् जो भृगु ने लात मारी उससे हरि का क्या गया। यदि शब्दों की आत्मा होती है, तो लात की भी अपनी आत्मा है। लात कहने मात्र से ही एक स्फूर्ति एक आनन्द का बोध होता है। लात ही एक ऐसा शब्द है जो कर्ता भी है कर्म भी है, क्रिया भी है ओर विशेषण आदि भी है जो सभी भाषाओं के विविध रंग रूपों में प्रयोग होता है। इस प्रकार के शब्दों की अवहेलना करना अपनी संस्कृति को ही अस्वीकार कर देने के बराबर समझा जा सकता है।


लात का अपना ही सौन्दर्य है। अगर लात स्त्री की, या पुरुष की बात की जाये तो उसकी सुंदरता के चित्रण में स्त्री की लात का अप्रतिम सौंदर्य को शृंगार रस में अभिव्यक्त करते करते कितने ही दीवाने हो चुके होंगे, कितने बाबा बैरागी हो चुके होंगे, कितने पागल हो चुके होंगे ओर कितने काव्य मर्मज्ञ होंगे इसकी प्रमाणित जानकारी कहीं उपलब्ध नहीं है ओर न ही यह जुटाने का प्रयास किसी ने किया है, आप यह समझने की भूल न कीजिएगा की जो किसी ने नहीं किया है वह मैं आपको करके दूंगा ? यह शोध मेरा विषय नहीं, मैं तो लात खाने वाले, लात मारने वाले, लातों के नीचे दबे कुचले लोगों की पीड़ाए सुनने के बाद यह लातों की परंपरा पर लिखने बैठ गया वरना यह समझ लीजिये यह विषय एक जन्म में पूरा लिखा जाना संभव नहीं है, इसलिए मैं इस विषय को छूकर आगे निकल रहा हूँ। अब लात की बात शुरू करता हूँ, लात तो लात जैसी ही होती है किन्तु उसे सुदरता या कुरूपता की कसौटी पर कसने का काम विवेक पर निर्भर करता है। हमारा विवेक वैचारिकता के मकड़जाल में अगर यथार्थ को देख अन्य कुमार्गी विचारों के संसर्ग में हो तो सुंदरता उसके लिए कुरूप भी हो सकती है तब वह लात मैं सौंदर्य नहीं वासना देखेगा। यहा सुंदरता नही कुरूपता है किन्तु कुरूपों के लिए कुरूपता भी सुंदरता दिखाई देती है। देखा जाये तो भारतीय संस्कृति में लातों को समस्या भी निरूपित किया जाकर सभी की वैचारिकता पर प्रश्नचिन्ह खड़ा किया जा सकता है अथवा लातों को वैचारिक क्रांति की धारा में मोड़कर पदानुवंदन किया जा सकता है।



लात से मोक्षप्राप्ति के मार्ग को रामायण में गोस्वामी तुलसीदास जी ने सुंदर व्याख्या से समझाया है कि अहिल्या को भगवान श्रीराम कि चेतनापुंज लात के स्पर्श से शिला से नारी बनी अर्थात राम के स्पर्श से जड़ता मानवता में परिवर्तित हो गई यानि लात के स्पर्श से मोक्ष प्राप्त किया। इसलिय पाँव का वंदन को मैंने पदानुवन्द्न कहा है। इस उदाहरण के बाद ध्यान रहे लात किसी वर्ग विशेष का प्रतिनिधित्व नहीं करती है, बल्कि यह संदेश देती है कि लात एक जीवित शक्ति का उदाहरण बन सकती है, इसलिए लातों के महत्व को कम नहीं आँका जा सकता है। निशाचर राज साम्राज्यवादी रावण ने अपने भाई विभीषण के देशद्रोही विभीषण को जब देश निकाला का दण्ड, बिना मुकदमा चलाये हुये ही दे दियो तो लात के माध्यम से ही यह क्रिया सम्पन्न हुई थी। त्वयं गोस्वामी तुलसीदास जी ने इसकी पुष्टि करते हुए लिखा है- 'तात-लात रावन मोहि मारा यानि पाँव का वंदन को ही पदानुवन्द्न कहा गया है।



अंत में यह भी बताना चाहूंगा कि हम ओर आप चौबीसों घंटे अपने अपने लेखन में एक दूसरे को लात मारना, लतियाना, लात खाना, दुलत्ती झाड़ना यह सब किसी न किसी रूप में करते आ रहे है ओर अपना नाम उजागर नही होने देना चाहते है। हिन्दी साहित्य जगत में कोई बहुत ही सूक्ष्म रूप में ओर कोई विराट रूप में लात मारते खाते आ रहे है। अनेक साहित्यकारों और कलाकारों के जीवन में लात ने जो विलक्षण व्याकुलता, भावों की टकराहट, चेतना तथा प्रकाश भर दिया है, उससे उऋण होना असम्भव है। प्रसिद्ध है कि तुलसीदास को उनकी पत्नी ने इसी माध्यम से समझाया था। सूरदास को भी चिन्ता-मणि नामक वेश्या के यहाँ इसी प्रकार के मुहावरे का सामना करना पड़ा था। कहा जाता है कि भौजाई की दुलत्ती ने रीतिकाल में भूषण की कविता को जन्म दिया। आधुनिक काल में भी लातों के सौजन्य से प्राप्त अनेक कृतियाँ हमारे साहित्य को गौरवान्वित कर रही है। वस्तुतः सत्य यहीं है कि जब तक कलाकार के मन पर कोई ठेसात्मक अनुभूति नहीं होती तब तक उसमें मानवीय करुणा की भावना का संचार हो ही नहीं पाता ! साहित्य की वाणी का दर्द इत्ती लात के ही माध्यम से फूटता है। यही सच्चे दर्द की कसौटी है।


- आत्माराम यादव


कविताः एक शहर




अस्पताल के दरवाजे पर
हक, सच, ईमान और कद्रें,
जाने कितने ही लफ्ज़ बीमार पड़े हैं
इक भीड़ सी इकट्ठी हो गयी है,
जाने कौन नुस्खा लिखेगा
जाने यह नुस्खा लग जायेगा,
लेकिन अभी तो ऐसा लगता है
इनके दिन पूरे हो गये।
इस शहर में एक घर
घर कि जहां बेघर रहते हैं
जिस दिन कोई मजदूरी नहीं मिलती
उस दिन वे परेशान रहते हैं
बुढ़ापे की पहली रात
उनके कानों में धीरे से कह गयी
कि शहर में उनकी
भरी जवानी चोरी हो गयी।
कल रात बला की सर्दी थी
आज सुबह सेवा समिति को
एक लाश सड़क पर पड़ी मिली है
नाम व पता कुछ भी मालूम नहीं
शमशान में आग लग रही है
लाश पर रोने वाला कोई नहीं
या तो कोई भिखारी मरा होगा
या शायद कोई फलसफ़ा मर गया।
किसी मर्द के आगोश में-
कोई लड़की चीख उठी
जैसे उसके बदन से कुछ टूट गिरा हो
थाने में एक कहकहा बुलंद हुआ
कहवाघर में एक हंसी बिखरी
सड़कों पर कुछ हॉकर फिर रहे हैं
एक एक पैसे में खबर बेच रहे हैं
बचा खुचा जिस्म फिर से नोच रहे हैं।
गुलमोहर के पेड़ों तले
लोग एक दूसरे से मिलते हैं
जोर से हंसते हैं गाते हैं
एक दूसरे से अपनी अपनी
मौत की खबर छुपाना चाहते हैं
संगमरमर कब्र का तावीज है
हाथों पर उठाये उठाये फिरते हैं
और अपनी लाश की हिफाजत कर रहे हैं।
दिल्ली इस शहर का नाम है
कोई भी नाम हो सकता है ( नाम में क्या रखा है)
भविष्य का सपना रोज रात को
वर्तमान की मैली चादर
आधी ऊपर ओढ़ता है
आधी नीचे बिछाता है
कितनी देर कुछ सोचता है, जागता है,
फिर नींद की गोली खा लेता है।

- अमृता प्रीतम


लघु कथाः बंटवारा (जुदा, न्यारा)

प्राचीन समय से ये प्रथा बड़े नैतिकता के साथ चली आई है और जिसे नियत भी समझा गया है की हर एक व्यक्ति का परम कर्त्तव्य और कार्य भी है की अपने पूर्वजों से चली आ रही संपति का संरक्षण एवम् विस्तार करना ही जीवंत है और इसे साबित भी करना पड़ता है ताकि आने वाली पीढ़ी भी उस प्रक्रिया से रूबरू हो सके और अपनी परंपरा को अबाध गति से चलायमान रख सके।





इस पड़ाव तक पहुंचने में लगभग जीवन का पचास फीसदी समय व्यतीत हो जाता है लेकिन उसके बाद भी बड़ी परीक्षा से गुजरना पड़ता है। जीवन के बहुत सारे पड़ाव हैं पर उनमें से सबसे व्यथित जो पड़ाव है वह है बटवारा, जुदा,या फिर न्यार(गढ़वाली शब्द) वो कितनी अजीब बात होगी की जिस कार्य को पहले बड़े मिल जुल के साथ हास्य विनोद के साथ एवम कभी बडे़ आक्रोश के साथ किया जाता था ,जिसे पूरी संपति के रखा रखाव के लिए कठिन परिश्रम किया जाता था घर के लिए हर एक आवश्यक सामग्री जुटाई जाती थी, हर एक रिश्ते को अदब के साथ स्वीकारा जाता था, अंत में एक ऐसा भी मोड़ (परिवर्तन) आता है की केवल अपना हक और सब कुछ संपति रिश्ते सब धरे के धरे रह जाते हैं।और आकांक्षा होती है तो केवल अपनी वस्तु की ,तब वो सब कुछ विस्मृत हो जाता है जिसके लिए जीवन का अमूल्य समय बलिदान किया है । जिसके लिए हर एक वस्तु का त्याग किया।

और वो अटूट विश्वास एवम बंधन जो अपनों के बीच एक विशेष प्रकार की शक्ति प्रदान करता है।उससे विरक्ति यही कटु सत्य है जीवन का जिसके कारण हर एक पायदान से गुजरना पड़ता है और वो भी देखना पड़ता है किसको किसके प्रति कितना अनुराग है । परिवार के सभी सदस्य जब आपस मे मिलजुलकर रहते हैं प्रत्येक कार्य की सामूहिक रणनीति तैयार की जाती है तो वो अभिव्यक्ति उर में एक विशेष प्रकार की शक्ति प्रदान करती है , जिससे कार्य करने में किसी भी प्रकार की असुलभता नहीं होती, लेकिन कार्य वही पर रण नीति अकेले तैयार करनी हो तो बात थोड़ा मार्मिक हो जाती है। 




     अब बात विषय की करते हैं जो मेरा मुख्य उद्देश्य है की बटवारा क्यों इतना संतप्त करता है।क्योंकि बटवारे की परिधि असीमित है जो हर एक व्यक्ति हृदय से उसे स्वीकार नहीं करता क्योंकि जीवन का सबसे महत्वपूर्ण अंश है जुदा होना ,क्योंकि बचपन में दादा - दादी, माता - पिता, चाचा - चाची , बडे़ भाई - बहन  सबके मुंह से एक ही बात सुनने को मिलती है की सभी एक साथ रहो ,मिलजुलकर कर रहो आपस में किसी प्रकार की वैमनस्यता को मत पालो सबका आदर सत्कार करो और कंधे से कंधा मिलाकर चलो लेकिन जैसे जैसे वक्त गुजरता जाता है वैसे वैसे जीवन में परिवर्तन आते रहते और उन्हीं बदलाओं में एक बदलाव आता है बटवारा जो जीवन शांत जीवन को भी झकझोर देता है।

    जब एक थाली में खाकर दो भाई पले बढ़े हो और फिर उस थाली को भी हक दे दिया जाय तो ऐसा प्रतीत होता की अगर धरती फटती तो उसमें समा जाता लेकिन नियति है टूटे मन और दग्ध हृदय से स्वीकारना पड़ता है ,वो चौक जिसमें घुटनों के बल से पूरा भ्रमण किया जाता था, प्रभृति खेल खेला करते थे और अब जब उसके भी हिस्से किए जाते तो उस चौक की भी वो दयनीय स्थिति देखी नहीं जाती, वो कक्ष (कमरा) जिसमें रात भर एक दूसरे के साथ लड़ाई झगड़ा खेल करते थे वो जब किसी एक के हिस्से में आता तो उसे देख कर और उन सारी पुरानी यादों को याद करके आंसू छलक पड़ते, वो मवेशी जिनके साथ दोनो साथ जाया करते थे और जब उनको भी बांट दिया जाता है तब उनकी दशा देखकर भी मन संतप्त हो उठता है और  जो दुख की अनुभूति होती है वो कल्पना के परे है जिससे मन व्याकुल हो उठता है। 

वो खेत खलिहान जिनमें सभी मिलजुलकर खेती करते हल चलाते खेत में बैठ कर मां के द्वारा बनाए गए भोजन को बड़े चाव के साथ खाते और फिर उन थके हारे बैलों को भी खिला कर घर लाते आज जब वही खेत कई हिस्सों में तब्दील दिखता और खेतों में अकेले अकेले काम करती भाभियां बहुएं दिखती तो सीना फटने को आता, जब घर-बार  खेत खलिहान पशु आदि को बांट दिया जाता तब अंत में  वो सबसे व्यथित करने वाली अनुभूति को विभाजित करने की बारी आती जो कभी उनके द्वारा भी नहीं सोचा गया होगा और जो सीख उनके द्वारा कभी नहीं दी गई होगी की अब अंत में माता पिता के बंटवारे की बारी है, जिन्होंने जीवन इस हिस्सेदारी के लायक बनाया आज उनका भी हिस्सा किया जाएगा की कौन कब और कैसे किसके साथ रहेगा क्योंकि दोनों को साथ नहीं रखा जाता, अब माता पिता को भी वो सजा दी जाती है जो मृत्यु से भी परे है और  तब बेटे और बहू मासिक किस्तों के आधार पर माता पिता को भी बांट लेते हैं ,माता पिता का वो जीवन सबसे कारुणिक होता है जब दोनो को कई माह अलग रहकर अपनी इच्छाओं का गला घोंट कर जीवन यापन करना पड़ता है ।अपनी खुशियों का बंटवारे के लिए न्योछावर करना पड़ता है। 

और अतीत के वो क्षण हर पल कचोटते रहते हैं की माता पिता के द्वारा दी गई सीख आज क्यों धूमिल होती नजर आती है। मन में यही प्रश्न उठता रहता है की बच्चों को किस प्रकार से शिक्षित करूं आज सामंजस्य पूर्ण जीवन के लिए या फिर आने वाले भविष में होने वाले जुदा के लिए।ये अभिव्यक्ति अत्यधिक मार्मिक है जो अंत में जीवन को कुंठा की राह के साथ साथ अपनों से भी विरक्त कर देती है।

                                                         - कैलाश उप्रेती "कोमल"


पारिवारिक कर्तव्य के रूप में पितृ ऋण से मुक्ति पाने का माध्यम हैं श्राद्ध

श्राद्ध भारतीय संस्कृति और हिंदू धर्म में एक महत्वपूर्ण धार्मिक अनुष्ठान है। इसे पितरों (पूर्वजों) की आत्मा की शांति और संतुष्टि के लिए किया जाता है। श्राद्ध संस्कार का उल्लेख प्राचीन हिंदू धर्मग्रंथों जैसे कि वेद, पुराण, और स्मृतियों में किया गया है। इसे एक पारिवारिक कर्तव्य के रूप में देखा जाता है, जो पितृ ऋण से मुक्ति पाने का माध्यम है। ।वैसे तो पिंडदान, तर्पण और श्राद्ध कर्म के लिए भारत में कई जगहें हैं लेकिन फल्गु नदी के तट पर स्थित गया शहर का अपना विशेष महत्व है। वायु पुराण, गरुड़ पुराण और विष्णु पुराण में भी गया शहर का महत्व बताया गया है। इस तीर्थ पर पितरों को मोक्ष की प्राप्ति होती है इसलिए गया को मोक्ष की भूमि अर्थात मोक्ष स्थली कहा जाता है। गया शहर में हर साल पितृपक्ष के दौरान एक बड़ा मेला लगता है, जिसे पितृपक्ष का मेला भी कहा जाता है। गया शहर हिंदुओं के साथ साथ बौद्ध धर्म के लिए भी पवित्र स्थल है । 





धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, सर्वपितृ अमावस्या के दिन गया में पिंडदान करने से 108 कुल और 7 पीढ़ियों का उद्धार हो जाता है और पितरों की आत्मा को शांति मिलती है। साथ ही पितरों को मोक्ष की प्राप्ति होती है इसलिए इस स्थान को मोक्ष स्थली कहा जाता है। पुराणों में बताया गया है कि प्राचीन शहर गया में भगवान विष्णु स्वयं पितृदेव के रूप में निवास करते हैं।गया के बारे में एक पौराणिक कथा के अनुसार गया में गयासुर नामक एक असुर ने कड़ी तपस्या की थी और ब्रह्माजी से वरदान मांगा था। गयासुर ने ब्रह्माजी से वरदान मांगा था कि उसका शरीर पवित्र हो जाए और लोग उसके दर्शन कर पाप मुक्त हो जाएं। इस वरदान के बाद लोगों में भय खत्म हो गया और पाप करने लगे।।बड़े बड़े पापी भी स्वर्ग पहुंचने लगे। पाप करने के बाद वह गयासुर के दर्शन करते और पाप मुक्त हो जाते थे। ऐसा होने से स्वर्ग और नरक का संतुलन बिगड़ने लगा। इन सबसे बचने के लिए देवतागण गयासुर के पास पहुंचे और यज्ञ के लिए पवित्र स्थान की मांग की। गयासुर ने अपना शरीर ही देवताओं को यज्ञ के लिए दे दिया और कहा कि आप मेरे ऊपर ही यज्ञ करें। जब गयासुर लेटा तो उसका शरीर पांच कोस में फैल गया और यही पांच कोस आगे चलकर गया बन गया। गयासुर के पुण्य प्रभाव से वह स्थान तीर्थ के रूप में जाना गया। 

गया में पहले विविध नामों से 360 वेदियां थी लेकिन अब केवल 48 ही शेष बची हैं। गया में भगवान विष्णु गदाधर के रूप में विराजमान हैं। गयासुर के विशुद्ध शरीर में ब्रह्मा, जनार्दन, शिव तथा प्रपितामह निवास करते हैं। इसलिए पिंडदान व श्राद्ध कर्म के लिए इस स्थान को उत्तम माना गया है।हिंदू धर्म में मान्यता है कि हर व्यक्ति पर तीन प्रकार के ऋण होते हैं—देव ऋण, ऋषि ऋण और पितृ ऋण। श्राद्ध कर्म पितृ ऋण से मुक्ति का एक महत्वपूर्ण साधन माना जाता है। कोई नहीं बता सकता कि इसमें कितनी सच्चाई है अथवा इसे करने से पितरों की आत्मा को शांति मिलती है और वे मोक्ष की ओर अग्रसर होते हैं,लेकिन हिन्दू धर्म में इसे किये बिना पितरों की मुक्ति नहीं हो सकती ऐसा माना जाता है।

अत्रिसंहिता के अनुसार 'पुत्र, भाई, पौत्र (पोता), अथवा दौहित्र यदि पितृकार्य में अर्थात्‌ श्राद्धानुष्ठान में संलग्न रहें तो अवश्य ही परमगति को प्राप्त करते हैं।पितृ पक्ष में 16 दिनों तक श्राद्ध कर्म होते हैं। ऐसा माना जाता है कि जिस परिवार में किसी सदस्य का देहांत हो चुका है उन्हें मृत्यु के बाद जब तक नया जीवन नहीं मिल जाता तब तक वे सूक्ष्म लोक में वास करते है। ऐसा विश्वास है कि जो व्यक्ति श्राद्ध का आयोजन करता है, उसके परिवार में समृद्धि और शांति बनी रहती है। इसके विपरीत, जो श्राद्ध नहीं करते, उन्हें पितृ दोष का सामना करना पड़ता है, जिसके परिणामस्वरूप परिवार में आर्थिक, मानसिक और शारीरिक समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं।श्राद्ध करना एक धार्मिक कर्तव्य भी है, जो हमें अपनी जड़ों से जोड़ता है। 





यह हमारे पूर्वजों के प्रति सम्मान व्यक्त करने का एक तरीका है, और इससे हमें अपनी सांस्कृतिक धरोहर की सुरक्षा और उसे आगे बढ़ाने का अवसर मिलता है। श्राद्ध से जीवित व्यक्ति और उसके पूर्वजों के बीच एक आध्यात्मिक संबंध स्थापित होता है। यह अनुष्ठान उस कड़ी को मजबूत करता है, जो पितरों और उनके वंशजों के बीच होती है। पुराने समय में श्राद्ध को बहुत साधारण तरीके से किया जाता था क्योंकि सबके पास संसाधनों का अभाव होता था लेकिन अपनी सामर्थ्य के अनुसार सभी लोग अपने पितरों का श्राद्ध करते थे।आजकल देखादेखी में श्राद्ध का तरीका बदल गया है।

दिखावा अधिक हो गया है। ऐसा भी देखा गया है कि जीते जी माता पिता की सेवा नहीं की जाती तथा उनको सम्मानित ज़िन्दगी जीने से वंचित रखा जाता है लेकिन मरने के बाद लोक लाज के लिए तथा दिखावे के लिए लोगों को बुलाकर श्राद्ध किया जाता है। पुराने समय में श्राद्ध को सामूहिक भोज का आयोजन न करके केवल कुछ ब्राह्मणों को तथा जिसका श्राद्ध होता था उसके साथियों को व दोस्तों को बुलाकर भोजन करवाया जाता था तथा कौओं को भी दूध,चावल व खीर आदि परोसी जाती थी।।उसके साथियों या दोस्तों को बुलाने के पीछे केवल उसके साथ जुड़ाव व आत्मीयता ही होती थी जिनके शामिल होने से उसके साथ बिताए पलों के स्मरण करके दिवंगत को श्रंद्धांजलि हो जाती थी।उसके साथ बिताए पलों के संस्मरण भी याद के रूप में ताजा हो जाते थे।उस समय श्राद्ध के दिनों में कौवे बहुत संख्या में घरों के आसपास आकर अपना भोजन ग्रहण करते थे लेकिन आज हम अपने गांवों में देखते हैं कि श्राद्ध के दिनीं में भी कौवे बहुत कम नज़र आते हैं।


 श्राद्ध के लिए एक पवित्र और शांतिपूर्ण स्थान का चयन किया जाता है। इसे किसी भी दिन किया जा सकता है, लेकिन पितृ पक्ष (अश्विन मास के कृष्ण पक्ष) का समय विशेष रूप से शुभ माना जाता है। इस दिन ब्राह्मण या आचार्य को आमंत्रित किया जाता है, जो श्राद्ध की प्रक्रिया को संपन्न करता है।श्राद्ध का पहला चरण तर्पण होता है। इसमें व्यक्ति अपने पितरों को जल अर्पित करता है। यह प्रक्रिया विशेष मंत्रों के साथ संपन्न होती है। जल में काले तिल, दूध, और कुशा (एक पवित्र घास) मिलाकर पितरों को अर्पित किया जाता है। तर्पण के दौरान, व्यक्ति का मुख दक्षिण दिशा की ओर होना चाहिए, क्योंकि इसे यम की दिशा माना जाता है। तर्पण के बाद पिंडदान किया जाता है। इसमें चावल, जौ, तिल, घी, और शहद के मिश्रण से बने पिंड (गोलाकार आटे के गोले) बनाए जाते हैं और पितरों को अर्पित किए जाते हैं। पिंडदान का उद्देश्य पितरों की भूख को शांत करना और उन्हें तृप्ति प्रदान करना होता है। 

पिंडदान के समय भी विशेष मंत्रों का उच्चारण किया जाता है।पिंडदान के बाद ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता है। यह भोजन सात्विक,साफ सुथरा और शुद्ध होना चाहिए। भोजन के साथ-साथ ब्राह्मणों को वस्त्र, अनाज, और अन्य आवश्यक वस्तुएं दान की जाती हैं। यह दान पितरों की आत्मा को संतोष और शांति प्रदान करता है। ब्राह्मण भोजन के बाद पितरों की आत्मा की शांति के लिए हवन किया जाता है। इस हवन में घी, तिल, जौ, और समिधा (विशेष प्रकार की लकड़ी) का प्रयोग होता है।  हवन का धुआं पवित्र और शुद्ध होता है, जो पितरों की आत्मा तक पहुंचता है और उन्हें संतुष्टि प्रदान करता है ऐसा माना जाता है।




श्राद्ध कर्मकांड के बाद, परिवार के सभी सदस्य एक साथ भोजन करते हैं। इस भोजन को पवित्र और संतुष्टि से भरा माना जाता है, क्योंकि इसे पितरों के आशीर्वाद के रूप में ग्रहण किया जाता है। श्राद्ध कई प्रकार से किये जाते हैं।नित्य श्राद्ध:-यह श्राद्ध का एक प्रकार है जो नियमित रूप से किसी विशेष दिन पर किया जाता है। इसे वार्षिक श्राद्ध भी कहा जाता है। यह उस दिन किया जाता है जिस दिन पितर का निधन हुआ था। पार्वण श्राद्ध:-इसे पितृ पक्ष में किया जाता है, जो अश्विन मास के कृष्ण पक्ष में आता है। यह श्राद्ध 15 दिन तक चलता है और इसमें सभी पितरों के लिए श्राद्ध कर्मकांड किए जाते हैं।एकोद्दिष्ट श्राद्ध:-यह श्राद्ध एक विशेष पितर के लिए किया जाता है, जो हाल ही में दिवंगत हुआ हो। इसे उसकी मृत्यु के बाद के पहले साल में किया जाता है।सपिंडीकरण श्राद्ध:- यह श्राद्ध विशेष रूप से माता-पिता की मृत्यु के बाद किया जाता है, जिसमें उनकी आत्मा को अन्य पितरों के साथ मिलाया जाता है।

श्राद्ध केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं है, बल्कि यह हमारे पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता और सम्मान व्यक्त करने का एक तरीका है। यह हमें हमारे पितरों के साथ जुड़े रहने और उनकी आत्मा की शांति के लिए प्रयासरत रहने की प्रेरणा देता है। श्राद्ध के माध्यम से हम अपनी सांस्कृतिक धरोहर और पारिवारिक परंपराओं को भी संरक्षित रखते हैं। यह अनुष्ठान न केवल पितरों की आत्मा को शांति प्रदान करता है, बल्कि हमें भी मानसिक और आध्यात्मिक संतोष का अनुभव कराता है। यह एक ऐसा अनुष्ठान है, जो हमारी संस्कृति की गहराई और हमारी धार्मिक आस्थाओं की पुष्टि करता है। श्राद्ध को उसकी पूरी विधि और शुद्धता के साथ करने से न केवल पितरों की आत्मा को शांति मिलती है, बल्कि हमारे जीवन में भी सुख, शांति और समृद्धि का आगमन होता है। इस प्रकार, श्राद्ध हमारे जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, जो हमें हमारी जड़ों से जोड़ता है और हमें अपने पूर्वजों के प्रति हमारे कर्तव्यों की याद दिलाता है।


                                                                             - रवींद्र कुमार शर्मा