साहित्य चक्र

10 September 2024

कविताः बूढ़ी आँखें



ऐसे दोर मे भी खुद को सम्भाले रखा है,
बुरे वक़्त मे भी हौसला बनाये रखा है।

में हमेशा छला गया हुँ मेरे अपनों से,
फिर भी अपनों को अपना बनाये रखा है।

बुढी आँखों में तुम को बिठा के रखा है,
कतरा कतरा आँसू का बचा के रखा है।

खुद को आदि बना डाला तेरे जुल्म का,
ऐसे अपनी इज्जत को बचा के रखा है।

अपने ही मकान में कुछ ऐसे रखा है,
जैसे पिंजरे में बंद किसी तोते को रखा है।

चाह कर भी आजाद हों नहीं सकता,
इन रिश्तों रिवाजो ने जकड़ के रखा है।

दुनिया की नजरों से  छिपा के रखा है,
ऐसे दोर मे भी खुद को सम्भाले रखा है।


                                                     - लीलाधर चौबिसा

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