साहित्य चक्र

09 September 2024

लघु कथाः बंटवारा (जुदा, न्यारा)

प्राचीन समय से ये प्रथा बड़े नैतिकता के साथ चली आई है और जिसे नियत भी समझा गया है की हर एक व्यक्ति का परम कर्त्तव्य और कार्य भी है की अपने पूर्वजों से चली आ रही संपति का संरक्षण एवम् विस्तार करना ही जीवंत है और इसे साबित भी करना पड़ता है ताकि आने वाली पीढ़ी भी उस प्रक्रिया से रूबरू हो सके और अपनी परंपरा को अबाध गति से चलायमान रख सके।





इस पड़ाव तक पहुंचने में लगभग जीवन का पचास फीसदी समय व्यतीत हो जाता है लेकिन उसके बाद भी बड़ी परीक्षा से गुजरना पड़ता है। जीवन के बहुत सारे पड़ाव हैं पर उनमें से सबसे व्यथित जो पड़ाव है वह है बटवारा, जुदा,या फिर न्यार(गढ़वाली शब्द) वो कितनी अजीब बात होगी की जिस कार्य को पहले बड़े मिल जुल के साथ हास्य विनोद के साथ एवम कभी बडे़ आक्रोश के साथ किया जाता था ,जिसे पूरी संपति के रखा रखाव के लिए कठिन परिश्रम किया जाता था घर के लिए हर एक आवश्यक सामग्री जुटाई जाती थी, हर एक रिश्ते को अदब के साथ स्वीकारा जाता था, अंत में एक ऐसा भी मोड़ (परिवर्तन) आता है की केवल अपना हक और सब कुछ संपति रिश्ते सब धरे के धरे रह जाते हैं।और आकांक्षा होती है तो केवल अपनी वस्तु की ,तब वो सब कुछ विस्मृत हो जाता है जिसके लिए जीवन का अमूल्य समय बलिदान किया है । जिसके लिए हर एक वस्तु का त्याग किया।

और वो अटूट विश्वास एवम बंधन जो अपनों के बीच एक विशेष प्रकार की शक्ति प्रदान करता है।उससे विरक्ति यही कटु सत्य है जीवन का जिसके कारण हर एक पायदान से गुजरना पड़ता है और वो भी देखना पड़ता है किसको किसके प्रति कितना अनुराग है । परिवार के सभी सदस्य जब आपस मे मिलजुलकर रहते हैं प्रत्येक कार्य की सामूहिक रणनीति तैयार की जाती है तो वो अभिव्यक्ति उर में एक विशेष प्रकार की शक्ति प्रदान करती है , जिससे कार्य करने में किसी भी प्रकार की असुलभता नहीं होती, लेकिन कार्य वही पर रण नीति अकेले तैयार करनी हो तो बात थोड़ा मार्मिक हो जाती है। 




     अब बात विषय की करते हैं जो मेरा मुख्य उद्देश्य है की बटवारा क्यों इतना संतप्त करता है।क्योंकि बटवारे की परिधि असीमित है जो हर एक व्यक्ति हृदय से उसे स्वीकार नहीं करता क्योंकि जीवन का सबसे महत्वपूर्ण अंश है जुदा होना ,क्योंकि बचपन में दादा - दादी, माता - पिता, चाचा - चाची , बडे़ भाई - बहन  सबके मुंह से एक ही बात सुनने को मिलती है की सभी एक साथ रहो ,मिलजुलकर कर रहो आपस में किसी प्रकार की वैमनस्यता को मत पालो सबका आदर सत्कार करो और कंधे से कंधा मिलाकर चलो लेकिन जैसे जैसे वक्त गुजरता जाता है वैसे वैसे जीवन में परिवर्तन आते रहते और उन्हीं बदलाओं में एक बदलाव आता है बटवारा जो जीवन शांत जीवन को भी झकझोर देता है।

    जब एक थाली में खाकर दो भाई पले बढ़े हो और फिर उस थाली को भी हक दे दिया जाय तो ऐसा प्रतीत होता की अगर धरती फटती तो उसमें समा जाता लेकिन नियति है टूटे मन और दग्ध हृदय से स्वीकारना पड़ता है ,वो चौक जिसमें घुटनों के बल से पूरा भ्रमण किया जाता था, प्रभृति खेल खेला करते थे और अब जब उसके भी हिस्से किए जाते तो उस चौक की भी वो दयनीय स्थिति देखी नहीं जाती, वो कक्ष (कमरा) जिसमें रात भर एक दूसरे के साथ लड़ाई झगड़ा खेल करते थे वो जब किसी एक के हिस्से में आता तो उसे देख कर और उन सारी पुरानी यादों को याद करके आंसू छलक पड़ते, वो मवेशी जिनके साथ दोनो साथ जाया करते थे और जब उनको भी बांट दिया जाता है तब उनकी दशा देखकर भी मन संतप्त हो उठता है और  जो दुख की अनुभूति होती है वो कल्पना के परे है जिससे मन व्याकुल हो उठता है। 

वो खेत खलिहान जिनमें सभी मिलजुलकर खेती करते हल चलाते खेत में बैठ कर मां के द्वारा बनाए गए भोजन को बड़े चाव के साथ खाते और फिर उन थके हारे बैलों को भी खिला कर घर लाते आज जब वही खेत कई हिस्सों में तब्दील दिखता और खेतों में अकेले अकेले काम करती भाभियां बहुएं दिखती तो सीना फटने को आता, जब घर-बार  खेत खलिहान पशु आदि को बांट दिया जाता तब अंत में  वो सबसे व्यथित करने वाली अनुभूति को विभाजित करने की बारी आती जो कभी उनके द्वारा भी नहीं सोचा गया होगा और जो सीख उनके द्वारा कभी नहीं दी गई होगी की अब अंत में माता पिता के बंटवारे की बारी है, जिन्होंने जीवन इस हिस्सेदारी के लायक बनाया आज उनका भी हिस्सा किया जाएगा की कौन कब और कैसे किसके साथ रहेगा क्योंकि दोनों को साथ नहीं रखा जाता, अब माता पिता को भी वो सजा दी जाती है जो मृत्यु से भी परे है और  तब बेटे और बहू मासिक किस्तों के आधार पर माता पिता को भी बांट लेते हैं ,माता पिता का वो जीवन सबसे कारुणिक होता है जब दोनो को कई माह अलग रहकर अपनी इच्छाओं का गला घोंट कर जीवन यापन करना पड़ता है ।अपनी खुशियों का बंटवारे के लिए न्योछावर करना पड़ता है। 

और अतीत के वो क्षण हर पल कचोटते रहते हैं की माता पिता के द्वारा दी गई सीख आज क्यों धूमिल होती नजर आती है। मन में यही प्रश्न उठता रहता है की बच्चों को किस प्रकार से शिक्षित करूं आज सामंजस्य पूर्ण जीवन के लिए या फिर आने वाले भविष में होने वाले जुदा के लिए।ये अभिव्यक्ति अत्यधिक मार्मिक है जो अंत में जीवन को कुंठा की राह के साथ साथ अपनों से भी विरक्त कर देती है।

                                                         - कैलाश उप्रेती "कोमल"


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