साहित्य चक्र

09 September 2024

कविताः एक शहर




अस्पताल के दरवाजे पर
हक, सच, ईमान और कद्रें,
जाने कितने ही लफ्ज़ बीमार पड़े हैं
इक भीड़ सी इकट्ठी हो गयी है,
जाने कौन नुस्खा लिखेगा
जाने यह नुस्खा लग जायेगा,
लेकिन अभी तो ऐसा लगता है
इनके दिन पूरे हो गये।
इस शहर में एक घर
घर कि जहां बेघर रहते हैं
जिस दिन कोई मजदूरी नहीं मिलती
उस दिन वे परेशान रहते हैं
बुढ़ापे की पहली रात
उनके कानों में धीरे से कह गयी
कि शहर में उनकी
भरी जवानी चोरी हो गयी।
कल रात बला की सर्दी थी
आज सुबह सेवा समिति को
एक लाश सड़क पर पड़ी मिली है
नाम व पता कुछ भी मालूम नहीं
शमशान में आग लग रही है
लाश पर रोने वाला कोई नहीं
या तो कोई भिखारी मरा होगा
या शायद कोई फलसफ़ा मर गया।
किसी मर्द के आगोश में-
कोई लड़की चीख उठी
जैसे उसके बदन से कुछ टूट गिरा हो
थाने में एक कहकहा बुलंद हुआ
कहवाघर में एक हंसी बिखरी
सड़कों पर कुछ हॉकर फिर रहे हैं
एक एक पैसे में खबर बेच रहे हैं
बचा खुचा जिस्म फिर से नोच रहे हैं।
गुलमोहर के पेड़ों तले
लोग एक दूसरे से मिलते हैं
जोर से हंसते हैं गाते हैं
एक दूसरे से अपनी अपनी
मौत की खबर छुपाना चाहते हैं
संगमरमर कब्र का तावीज है
हाथों पर उठाये उठाये फिरते हैं
और अपनी लाश की हिफाजत कर रहे हैं।
दिल्ली इस शहर का नाम है
कोई भी नाम हो सकता है ( नाम में क्या रखा है)
भविष्य का सपना रोज रात को
वर्तमान की मैली चादर
आधी ऊपर ओढ़ता है
आधी नीचे बिछाता है
कितनी देर कुछ सोचता है, जागता है,
फिर नींद की गोली खा लेता है।

- अमृता प्रीतम


No comments:

Post a Comment