साहित्य चक्र

13 September 2024

कविताः तोहफा



मुझे
कभी न देना
कोई तोहफा
मेरे सबसे प्यारे दोस्त…
देना कभी
कोई खूबसूरत मँहगी कलम
जम जाए कुछ रोज़ में जिसकी स्याही
और थका दे मेरा मन
उसके चलने का भारीपन
न खुद से दूर कर पाऊँ
और न ही जिसे हर पल पास रख पाऊँ…
न देना कभी
कोई ग्रीटिंग कार्ड
जो सप्ताह या माह भर बाद
लगने लगे पुराना
बीतती तारीखों के साथ
हो जाए अप्रासंगिक
और कर दिया जाए
किन्हीं पुरानी फाइलों में दबे
चाहे-अनचाहे भावमय शब्दों के
बाकी नए पुराने
ग्रीटिंग्स के साथ नज़रबंद…
न देना कभी
कोई फूल या गुलदस्ता
कि जिसके मुरझाने पर
मुरझा जाए मेरा ही दिल,
शाम ढले
मुरझा कर तिरस्कृत हो
गुलदान से निकाल दिया जाना
यही हो जिसकी नियति,
न देना मुझे
उसे फेंक दिए जाने का दर्द…
.
न देना कभी
मुझे कोई लिबास
कि जिसमें लिपट
रंगने लगूँ तुम्हारे रंगों में
इस कदर
कि सपनों से तैर जाओ तुम
मेरी सम्मोहित आँखों में,
और तुम्हारे पास होने के भ्रम पर
तड़प कर रो पड़ें मेरी आँखें…
कुछ देना
तो देना बस
समय के बेशकीमती सागर से चुरा
अनमोल पलों के बेहिसाब मोती...
जिन्हे कैद कर मन की सीप में
खोई रहूँ फिर
जीवन की लहरों में
हमेशा ! हमेशा ! हमेशा !

- प्राची



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