साहित्य चक्र

09 September 2024

जयदीप पत्रिका के लोकप्रिय 45 रचनाकारों की रचनाएँ एक साथ पढ़ें

जयदीप पत्रिका टीम


नहीं भूलते यादों के वह ख़ज़ाने
रहते हैं संग मेरे वो यादों के खजानें
याद आते हैं वो अपने जो अब हो गए बेगाने
नहीं भूलते यादों में रहते हैं हरदम
मिले हुए उनसे हमें हो गए ज़माने
कभी न बिछुड़ने की खाई थी कसमें
झूठे सब निकले उनके वह तराने
बहुत ढूंढा उन्हें अब नज़र नहीं आते
बदल लिए हैं उन्होंने अब अपने ठिकाने
खुशबू का इक झोंका था जो पास से निकल गया
आये थे जो ज़िन्दगी की बगिया महकाने
मिले एक दिन तो मुंह फेर कर यूँ चल दिये
जैसे हमें जानते नहीं हम हों अनजाने
हम आज तक गा रहे हैं उन्हीं के तराने
जानते हैं हम जा चुके हैं वो किसी और का घर बसाने
आज भी अक्सर आ जाते हैं कि इसलोगों की ज़ुबान पर
हमारे और उनके प्यार के अफसाने
छुप छुप कर मिलते थे कभी
ढूंढते थे मिलने के बहाने
वो वादियां और फिजायें करती हैं याद अभी भी
जहां गाये थे कभी प्यार के मिल कर तराने
दिल मत दो यह हुस्नवाले नहीं होते किसी के
सच ही कहते हैं यह लोग पुराने
मोहब्बत का महल तोड़ कर चल देते हैं
उम्र छोटी पड़ जाती है जिसको बनाने

- रवींद्र कुमार शर्मा

*****


!! कौआ !!
काले रंग का हूँ कांव कांव हूँ करता।
कौआ हूँ मैं कहलाता।।
हर कोई मुझे देख मुंह है मोड़ता।
घर की छत पर बैठने तक है रोकता।।
मेहमान आने की सूचना हूँ देता।
अनहोनी होने का संकेत भी हूँ करता।।
पूरा वर्ष कोई खाने को चूग तक नहीं देता।
श्राद्धों में मुझे खूब है पूजा जाता।।
खीर व अन्य पकवानों से भर पेट हूँ खाता।
सोलह दिन आन्नद ही आन्नद हूँ पाता।।
मुझे अपशकुन की दृष्टि से देखा है जाता।
काला हूँ इसलिए किसी को नहीं भाता।।
कोई मुझे देख ही पत्थर है मारता।
तो कोई मुझ जैसी काली कोयल को खूब है दुलारता।।
काले रंग का हूँ कांव कांव हूँ करता।
कौआ हूँ मैं कहलाता।

- विनोद वर्मा

*****


!! बचपन !!
हर सुबह कूड़ा बीनता बचपन,
कूडे़ में‌ जीवन‌ ढूंढता बचपन।
दो वक्त की रोटी को लाचार बचपन,
सर्दी गर्मी से बचने को लाचार बचपन।
खुद के वजूद को बचाने के लिए लड़ता बचपन,
खुद को जिन्दा रखने हेतू खुद से लड़ता बचपन।
कर्कश आवाज़ और तिरस्कार का आदी बचपन,
प्रेम के मीठे दो बोल सुनने को तरसता बचपन।
कभी रद्दी में किताब को देखता बचपन,
किताब के बरके लाचारी से पलटता बचपन।
विद्या की लौ जलाने वाले से वंचित बचपन।
फिर भी शब्दों में अपने अक्स को‌‌‌ ढूंढता बचपन।
शब्दों के बीच खुद को टटोलता बचपन,
शब्दों की अनभिज्ञता में भटकता बचपन।
कोमल‌ हाथों में पडे़ छालों को देखता बचपन,
निर्मम जिम्मेदारियों के बोझ से दबा बचपन।
वक़्त के थपेड़ों को बेबसी से सहता हुआ बचपन,
जीवन की‌ सीख बचपन‌ में ही सीखता बचपन।
काश कोई होता जो संभालता मेरा बचपन,
विद्या के उजाले से रौशन करता मेरा बचपन।

- राज कुमार कौंडल

*****


!! विद्रोही !!
नसीब का फोड़ा जब टपकता है
लबों से शब्द मवाद की तरह बह उठते हैं,
आँखों की सरस्वती सूख जाती है और
देह पर नमक का स्वाद बचा रह जाता है
मेरी कविताओं से तुम्हें मेरे ख़ून की ख़ुश्बू आएगी
मैंने इन्हें तब लिखा जब मेरा दिल खौल रहा था
मैं जानता हूँ तुम्हें ख़ून, पानी और आँसू में फ़र्क़ नहीं मालूम
तुम्हारे लिए ये कविताएँ मात्र वर्णमाला होंगे, किन्तु
एक मज़दूर के लिए ख़ज़ाना,
प्रेमियों के लिए शस्त्र और
क्रांतिकारियों के लिए आवाज़
क्योंकि पीड़ा से उपजी कविताएँ विद्रोही होती है।

- धीरज 'प्रीतो'

*****


बस मुझे आज अब खफा ना कीजिए,
दिल लगाकर कभी अब दगा ना दीजिए।
साथ ही तुम सदा अब दिखाते रहो,
वो कहानी मिरी अब सफा कीजिए ।
फ़ूल बनकर रहो तुम सदा साथ में,
वो क़लम से कभी तो लिखा कीजिए।
मगरुर होकर अभी तो दुखी ना हुए,
फैसलें जिंदगी के खुदा कीजिए।
है फरिश्ता कभी तो यहां पर अभी,
मांग मैंने भरी अब वफा कीजिए।
अश्क भरकर कभी भी हमें ना दिखा,
वो रमा को मिली हर रजा कीजिए।

- रामदेवी करौठिया

*****


तुमने
वैसे कुछ
दिया भी नहीं है
मुझे सहेज कर रखने
लायक,
यदि
दिया भी है तो
उसे चाह कर भी
नहीं रख पाउँगा अपने
पास,
क्योंकि
अपने स्वार्थ में
कभी इतना अंधा नहीं
हो पाउँगा कि अपनी ही
मेरिट न देख सकूँ,
नहीं
गन्दा कर पाउँगा
अपना खून अपने स्वार्थ
की खातिर अपने ही मापदंडो
को तोड़कर,
तुम
खतरे से
बाहर हो और
अपनी खोल से भी
पर तुम बचे भी नहीं
अपनी ही शर्तो से हाथ
मिलाने के लायक,
सच
तो ये है कि
जिसे तुम कलेज़े की
बात कहते हो
वह कलेजे की बात नहीं
कमीनेपन की है,
बुद्धिमान
जब चालाकी के
आवरण को धारण करता है
ऐसी मूर्खतापूर्ण चालाकी पर
बुद्धिमानी भी हँसती है,
तुमने
अपने स्वार्थ को
अपने सामर्थ्य से बड़ा मान
लिया सामर्थ्य हार गया
और तुम खुद मुँह छिपाने
लगे खुद से,
तुमने
मेरे सामर्थ्य
के बदले भले
कुछ नहीं दिया
पर मेरे दर्द सह लेने
का सामर्थ्य मत छीनो
निरपेक्ष
मौन ही आदर्श
व्यक्तित्व का आभूषण है
वरना मौन स्वयं से बनाया
हुआ वो कैदखाना है जहाँ
वक़्त
प्रतिपल अपने ही हाथों
अपने ही गालों पर तमाचे
बरसाने की सजा देता है....
क्यों कि
वक़्त वक़्त होता है...

- राधेश विकास

*****


!! वीरान हो गया !!
शहर मेरा भरा पूरा जाने क्यूं वीरान हो गया
और यूं दिल मेरा मुझसे ही बेईमान हो गया
धड़कता कहां है अब जीने के लिए वो ज़िंदगी
जबसे तू इश्क मेरा दिल तेरा जानो ईमान हो गया
शहर मेरा भरा पूरा जाने क्यूं वीरान हो ...
बेवजह सी लगती हैं उसको अब दिल की बातें
वही जो उम्रभर को दिल ए मेहमान हो गया
शहर मेरा भरा पूरा जाने क्यूं वीरान हो ...
दिल से लगाए बैठो हो क्यों किस्से बदनसीब के
वो बेईमान भुलाकर मुहब्बत दौलत वान हो गया
शहर मेरा भरा पूरा जाने क्यूं वीरान हो ...
क्यों ग़मज़दा हो गए "नरेन्द्र"
उसकी जुदाई पर
वही जो बेवफा निकला और बदजुबान हो गया
शहर मेरा भरा पूरा जाने क्यूं वीरान हो।
- नरेन्द्र सोनकर बरेली

*****


!! डायरी की शायरी !!
रूकावटों का ताला, ख्वाहिशों का दरवाज़ा है,
फिर जाग उठे अहसास,ये अरमां मेरे ताज़ा है!
दफ़न हो गये ख़्वाब, जीवन के इस मोड़ पर,
नहीं होता इश्क़ बयां, ये उम्र का तक़ाज़ा है।
इस रात में अब वो बात कहाँ,
होती थी पहले कभी, वो मुलाक़ात कहाँ!
ना हम बदलें हैं, ना ही तुम बदले हो,
ज़िंदा रहें उम्मीदें, दिल में वो जज़्बात कहाँ।
किसी ने शायर तो किसी ने पागल कहा हमें,
उड़ता फिरे बिन नीर, वो बादल कहा हमें!
जिसकी जैसी सोच, वैसा ही समझते रहे,
किसी ने आँखों की किरकिरी,
तो किसी ने काजल कहा हमें।
ज़िन्दगी के भी अजब वास्ते हैं,
सबकी अपनी अलग चाहतें हैं!
कैसे हो मिलना तुझसे ए हमसफ़र,
मैं अपने रास्ते, तू अपने रास्ते है।
वाह री किस्मत......
तेरे रूठने की वजह क्या है?
हो गया जो ऐतबार, ऐसा सुना क्या है?
रह लेंगे हम भी, ग़मों के साये में मगर,
ये तो बता कि मेरा गुनाह क्या है?
- आनन्द कुमार

*****


!! आंतरिक गुलाम !!
आजाद हुए हम गौरो से
मगर अभी नही हुए औरों से।
जीत चुके हैं हम औरों से
मगर हारे हुए हैं
अभी अपने विचारों से।
छोटे को बड़ा ,बड़े को छोटा
समझना अभी छोड़ा नहीं।
जाति-पाति के कठोर नियमों से
मुख भी अभी मोड नहीं।
क्षितिज से आर जीवन से पार
अभी कुछ देखा नही ।
धर्म कर्म के नाम पर शोषण
अभी तक छोड़ा नही।
जीवन के तराजू पर
कभी खुद को तोला नही।
महोबत के नाम पर जिस्म का शोषण
अभी तक छोड़ा नहीं।

- डॉ. राजीव डोगरा

*****


कितना सस्ता बिक रहा हूं मैं।
कितने जख्मों को पाला सीने में,
बस जीता जा रहा हूं मैं।
कितने दुःख दर्द हो सीने में,
मगर हंसता जा रहा हूं मैं।
कितने कड़वे घूंट हो मुंह में
मगर पीता जा रहा हूं मैं।
ठगों ने लूटा है इस दुनिया में,
बस लुटता ही जा रहा हूं मैं।
झूठों की इस दुनिया में,
यहां तमाशा हो गया हूं मैं।
लोभ-लालच के इस खेल में,
कितना दफन हो गया हूं मैं।
बेवजह,माया के इस जाल में,
फंसते ही जा रहा हूं मैं।
झूठ की इस चासनी में,
डूबता ही जा रहा हूं मैं।
देख सच के आइने में,
झूठ से हाथ मिला रहा हूं मैं।
वक्त की बढ़ती चाल में,।
कदम मिला रहा हूं मैं।
इमान की कड़ियों को जोड़ने में,
हर रोज़ मर रहा हूं मैं।
प्रतीक्षा की इन घड़ियों में,
रोज़ आग पर चल रहा हूं मैं।
यथार्थ जिंदा है मेरे मन में,
मगर खुशामद कर रहा हूं मैं।
दुनिया के इस बाज़ार में,
कितना सस्ता बिक रहा हूं मैं।

- डॉ. कान्ति लाल यादव

*****


हमारे रिश्तों की डोर पर अब गाँठ लग रही है,
बचपन की हे उम्र और अभी साठ लग रही है।
अब जीवन मे तनाव कुछ ऐसा बढ़ने लगा, है,
मोबाइल पर ज्ञान की जो पाठशाला लग रही है।
सात समुंदर पार से वीडियो कॉलिंग चल रही है,
पड़ोस में बैठे भाई की खामोशी भी खल रही है।
मोबाइल ने हमारे हालात कुछ ऐसे कर दिये है,
अब जीवन मे मानो रिश्तों की चिता जल रही है।
ये फोन लिस्ट भी दिनों दिन बड़ी लग रही है,
मोबाइल पर दोस्त यारो की झडी लग रही है।
माँ बाप, भाई बहन की हमको खबर नहीं है,
हमारे रिश्तों की डोर पर अब गाँठ लग रही है।

- लीलाधर चौबिसा 'अनिल'

*****


तेरी अदाओं का कायल हूँ.
मैं तेरी अदाओं का कायल हूँ.
ज़बसे देखा हैं तुझे घायल हूँ.
सोचता हूँ कभी-कभी,
मैं ही तेरे पैरों की पायल हूँ.
चेहरा ऐसे न छुपाया कर,
जानेमन अपने हाथों से
किसी दिन मुझे भी देख लेना,
अपनी नूरानी सी नज़रों से
कहती हैं ये दुनियाँ मैं रॉयल हूँ.
सुना तुझे खूबसूरती पर नाज़ हैं,
पर बड़ी खराब तेरी आवाज़ हैं.
विनम्रता की चादर ओढ़ना,
इसी भाव से सबको जोड़ना.
मैं भले कन्हैया न बन सका,
तू राधा बन मटकी ले दौड़ना.
हाँ, तुझ पर मैं फ़िदा हूँ,
क्योंकि अभी-भी,
मैं तेरी अदाओं का कायल हूँ.

- संजय एम. तराणेकर

*****


ज़ख्म मेरा है, तुम्हारा क्या है।
नशीली नज़र उसकी मेरी जानिब,मैं मुस्कुराया था,
एक हादसा था हुआ, लोगों इसमें तुम्हारा क्या है।
उसको है मुहब्बत,मुझसे, मैं भी उससे प्यार करता हूं।
ज़माने वालों क्यूं परेशान होते हो इसमें तुम्हारा क्या है।
मेरे दर्द की शिद्दतों का अहसास उन्हें क्योंकर होगा।
इश्क़ है,हर पल,पल पल, तस्सव्वुर उसका तुम्हारा क्या है।
कुचए जानां में जाने से क्यों रोकते हो मुझे तुम हरदम।
दिल मेरा है, मुहब्बत मेरी, ज़ख्म मेरा है, तुम्हारा क्या है।
इश्क़ वालों कब मिली हैं, मंज़िलें मुश्ताक़ मुझे बताओ तो।
अब हुआ मालूम के इश्क़ के दरिया का कनारा क्या है।

- डॉ. मुश्ताक़ अहमद

*****


!! गांव में गुजरा बचपन !!
गांव में गुजरा वह बचपन याद आता है,
जब भी याद आता है दिल को बहुत रूलाता है।
जिन दोस्तों संग बैठते थे नीम की छांव में,
अब वे पुराने दोस्त नहीं रहते गांव में।
वे सब दोस्त चले गए शहर में कमाने,
अब गुजर गए वे दिन हसीन पुराने।
बड़े बड़े मकान सुनसान हो गए,
शहरों में जबसे दोस्तों के मुकाम हो गए।
उदासियां व वीरानियां ही अब तो गांव में छाई है,
नहीं मिलती अब कहीं सुकून की परछाई है।
तरक्की की दौड़ गांव को सूना कर गई,
खालीपन का घाव दिल में भर गई।
बाजार में चबूतरे पर बैठने वाले,
कई बुजुर्ग भी अब स्वर्ग सिधार गए।
कईयों की उम्र पूरी हो गई ,
कई बीमारियों से जिन्दगी की जंग हार गए।
कई मकानों में बरसों से लटके तालें हैं,
दीवारों पर दिखते केवल अब जालें हैं।
बेटियां भी शादी होकर ससुराल चली गईं,
जैसे दिवाली की रौनकें व होली की गुलाल चली गई।
खेल का वह मैदान भी रहता अब वीरान है,
गांव की गलियां भी लगती अब सुनसान है।
गांव में गुजरा वह बचपन याद आता है,
जब भी याद आता है दिल को बहुत रूलाता है।

- भुवनेश मालव

*****


!! मौन संवाद !!
तुम थे, सदा से, दृष्टि के क्षितिज में
अवचेतन के विस्तृत नील गगन में
तुम्हारे पदचिह्न रेखांकित होकर
अचेतन से मिलते रहे
पुनः पुनः अनवरत
तुम, जो तथागत की तरह
जीवन में सम्यक् सत्य के अर्थों में घटे
मैं रचती रही शब्दहीन काव्य
जो हमारे पूर्वजन्मों की स्मृतियों की गूंज था
तुम्हारी उपस्थिति
बुद्ध की प्रतिध्वनि-सी
समय के चक्र को थाम लेती
और तुम्हारे अदृश्य हाथ रचते
स्वप्नों का आकाश
जिसके अनगिनत रंध्रों से रिसता तुम्हारा प्रेम
बोधि वृक्ष की पत्तियों पर
ओस कण बन जगमगाता
और तारों की लय में
एक मौन संवाद बहता
जहां कोई प्रश्न नहीं
न उत्तर की तलाश

- अनुजीत इकबाल

*****


केशव तुम जग में आओ ना
हाथ जोड़ विनती है केशव,
फिर से जग में आओ ना।
तुम जैसा कोई मीत ना जग में,
तुम मेरे मीत बन जाओ ना।
भले सुदामा, मैं ना बन पाऊं,
तुम फिर भी प्रीत निभाओ ना।
हे माधव, विनती है तुमसे,
तुम फिर से जग में आओ ना।
तुम्हारी कृष्णा हारी जग से,
तुम फिर से जीत दिलाओ ना।
पग-पग पर दुर्योधन बैठे,
तुम मेरी लाज बचाओ ना।
हे केशव मैं करूं ये विनती,
तुम फिर से जग में आओ ना।
अधर्म, धर्म पर छा गया अब तो,
फिर से गीता ज्ञान सुनाओ ना।
हे माधव मैं करूं विनती,
तुम फिर से धरती पर आओ ना।
तुम बिन मेरा कोई ना जग में,
तुम मेरे मीत बन जाओ ना।
भले मीरां मैं ना बन पाऊं,
फिर भी मेरे कृष्ण बन जाओ ना।
हे कान्हा मैं करूं विनती,
तुम फिर से जग में आ जाओ ना।

- कंचन चौहान

*****


मासूमियत बचाया जाए।
आज शोर बेहिसाब हो रहा है,
हर दिल में अलाव जल रहा है।
सबकी श्रद्धापूर्वक नियत देखिए,
मरी स्त्री प्रति श्राद्ध भाव देखिए।
एक से एक वियोगी लेख, कविता,
फिर भूलते कैसे सुरक्षित हो सबिता।
विरोध सिलसिला चलेगा एक महीना,
फिर मौजी बलात्कारी घूमेगा ताने सीना।
फिर से नई घटना, पुरानी हो जाएगी,
दरिन्दे की पकड़ में मासूम चिल्लाएगी।
पुनः मोमबत्ती हाथ में लेकर देंगे श्रद्धा,
पर संशय में रहेगी नारी सम्मान सुरक्षा।
अब से भी कोई नियम बनाया जाए,
मासूम की मासूमियत को बचाया जाए।

- प्रतिभा पाण्डेय "प्रति"

*****


बर्ज़ख़ है ज़िंदगी हर उस औरत के लिए।
ताउम्र हाथ फैलाती है जो इज्ज़त के लिए।
आवाज़ उठेगी इन बंधी बेड़ियों के खिलाफ,
अब न चुप रहना किसी सहूलियत के लिए।
माना कि ज़ुल्म करना शौक है हैवानों का,
सज़ा ए मौत जरूरी है हैवानियत के लिए।
ख़ुद से प्यार करना जो सीख ले दुनिया में,
वो गिड़गिड़ाते नहीं कहीं मुहब्बत के लिए।
कहीं ठौर न मिलेगा इंसानियत के दुश्मन को,
मिलों चलना होगा कला एक दरख़्त के लिए।

- कला भारद्वाज

*****


दिखाने की ज़रूरत
छिपाने की नहीं,
अब है दिखाने की ज़रूरत
साबित कर दो ख़ुद को,
तुम क्या कर सकती हों,
हुनर छिपाने की नहीं है,
अब है दिखाने की ज़रूरत।
तोड़ो सारी बेड़ियाँ,
हर हद तक तुम लड़ सकतीं हो,
सहास छिपाने की नहीं,
अब है दिखाने की ज़रूरत।
गरजना पड़े या बरसना पड़े,
क़भी स्वयं से तो क़भी अपनो
से लड़ना पड़े,
आवाज़ दबाने की नही,
अब है दहाड़ने कि ज़रुरत।
चार दीवारों के बिल से निकलो,
अपने पँख को मजबुती से खोलों,
तुम्हें अब छिपने की नही,
उड़नें की है ज़रूरत।
यह ज़िन्दगी हे,
क़ोई डरावना सपना नही,
पूरी ज़िंदगी डर क़े नहि,
निड़र हो के जिने की हे ज़रूरत।
दर्द, लड़ाईं, हार ज़िन्दगी के पहलू हे,
में भी क्यू ना ख़ुशी से सह लू ये,
पर हमें सहमे, निर्भर ओर कमजोर होने की नही,
वजूद से, तन से, मन से,
साहस से ज़िंदा रहने की है ज़रुरत ॥

- डॉ. माधवी बोरसे

*****


देखो हम एक दूसरे से
कितने भिन्न हैं
फिर भी एक दूसरे के पूरक हैं
हम हर बात में अलग हैं
तुम्हारी मन की महत्वकांक्षाएँ
दिल की इच्छाएँ
और शरीर की जरूरतें।
मेरी चाहतें, मेरी आरज़ू
और मेरी ज़रूरतें
सब जुदा हैं
एक ही सिक्के को हम
अलग-अलग दिशाओं
से देखते हैं
ऐसा नहीं है कि
हम ही सबसे अलग हैं
अनोखे हैं
इस संसार में
ये हर स्त्री पुरुष की कहानी है
बड़ा कठिन है समझना
दोनों के समीकरण को
हमारा दिल मज़बूत है
तो तुम्हारा शरीर बज्र का
पर दिल
दिल जैसे मोम
इस तरफ़ हमारे दिल की क्या कहें
तूफ़ान भी आ जाए
तो हिला नहीं सकता
बिल्कुल अटल
हाँ अपवाद को छोड़कर।
पर फिर भी
सबसे मज़बूत रिश्ता है ये
जब स्त्री पुरुष मिलते हैं
तब ही ये ब्रह्मांड आगे बढ़ता है
सृष्टि होती है
जीवन बनता है
और फिर ये दुनिया
कोई भी एक यदि न हो
तो सोचिए
क्या होगा भविष्य?
स्त्री समझती है मैं ही
अपने कोख के रथ में
जीवन को पालती हूँ
पुरुष समझता है
मैंने ही बीज बोए हैं
जो जन्म लेने को है
पर ये अहंकार क्यों?
क्या पुरुष बीज देने से इंकार करे
तो स्त्री नया जीवन जन्म दे सकती है?
या स्त्री कोख देने से इंकार करे
तो क्या उस बीज का कोई अस्तित्व है ?
ये बात अगर समझ लें
तो दुनिया की फ़साद
आधी हो जाए।
मैं और तुम में कुछ नहीं है
जब हम बनते हैं तब ही
जीवन की गाड़ी आगे बढ़ती है

- नलिनी राज “मौसम”


*****


पर उससे होता क्या है...
उनको देखते ही वह अकेली
डर गई होगी ना भयंकर
भागने की कोशिश भी की होगी उसने
उन सब ने अपनी टपकती लार को समेटते हुए
खूब हँसी उड़ाई होगी उसकी
वो भन भन करते मच्छर के जैसे
नहीं छोड़ रहे होंगे पीछा
पर उससे होता क्या है
पकड़ा होगा कस के उसे
पटका होगा जमीन पर
फिर मारे होंगे लात घूँसे
खूब दर्द हुआ होगा ना
बहुत चिल्लाई होगी
मछली के जैसे तड़पी होगी
पर उससे होता क्या है
दबा दिया होगा मुँह
ठूँस दिया होगा कोई कपड़ा शायद
या नोच दिया होगा
घुसा दिए होंगे नाखून जगह जगह
या काट दी होगी जीभ ही
खून खून सब कर दिया होगा
पर उससे होता क्या है
तार तार हो गई होगी उसकी रूह ना
जिस्म का क्या है सब सह लेगा
दिल दिमाग मन उम्मीद खुशी
ये तो मर ही गईं होंगी ना
जमीन दीवारें छत दरवाजा
सब गवाह हैं उसकी आहों का
पर उससे होता क्या है
वह लुटी या हम लुटे
वह मरी या हम मरे
उसकी आहें या हमारी आहें
उसपर हमला या हमपर हमला
वह तो निरीह निर्दोष पाकसाफ
लुटा जिस्म यहीं छोड़ चली गई
पर उससे होता क्या है
छोड़ गई एक प्रश्न अनुत्तरित
कह रही थी कि माना मैं लड़कीजात थी गलत
पर तुम तो थे बाशिंदे सभ्य समाज के
बस बता दो कि
क्यों हो, क्या हो, कौन हो
जिंदा या मरे!
पर उससे होता क्या है

- पूनम भाटिया

*****


सिद्धांत यही है सदियों से,
वसुधैव कुटुंब बनाने है।
संदर्भ बदलो चाहे इसका,
लगते यदि पुराने हैं।
पर धरणी के वक्षस्थल पर
परिवर्तन की जो कहानी हैं
वह मृत्यु नही जीवन है
सृष्टि की अपनी निशानी है।
तुम कहने को कुछ भी कह लो
सत्य के सारे ठिकाने हैं
हैं समीर के झोंके वैसे
वही सांसो का कलरव।
चहचहाते पंक्षी का रव।
आज भी है जैसे अभिनव
अर्थ बदलो चाहे तुम जितना
शब्द वही पुराने हैं।
लिख लिख कर हार गये
वे युग कर्ता के महाप्राण।
पर आज भी है हृदय सिक्त
मानव प्रेम का वह महादान।
प्रयत्न तुम्हारे चाहे हो कितने
विधि के खेल मनमाने हैं
संकल्प यदि है कुछ भी शेष
समाज आज यदि देता क्लेश
चाह हो यदि कुछ परिवर्तन की
तो मिलाओ हाथ संगठन की
अकेले जीना जीत नहीं
खुशी मिलकर जीने में है

- रत्ना बापुली

*****


लगन ऐसी लगी मुझे,
आगे बढ़ती जाऊं मैं!
रिश्ते-बंधन को छोड़कर
तितली-सी बन जाऊं मैं!
लगाकर पंख हौसलों के,
आसमान में उड़ती जाऊं मैं!
अपने अरमानों में को
पूरा करने के लिए,
हद से गुजर गुजर जाऊं मैं!
रिश्ते-नाते, रीति-रिवाज,
सारी जंजीरों को तोड़कर,
आजाद हो जाऊं मैं!
पंख लगा कर तितलियों जैसे
हवा में उड़ती जाऊं मैं!
फूलों जैसे विभिन्न रंगों से
सुसज्जित हो जाऊं मैं!
मैं कोरे कागज जैसी न रहूं,
बस आप खुद पर लिखती जाऊं मैं!
कविता लिखना मेरा
जुनून बन गया है,
अभी इसी जुनून से
अपनी पहचान बनाऊं मैं!
आजादी तो
मुझे तब मिलेगी,
जब खुद के लिए
थोड़ा-सा जी पाऊं मैं!

- रेखा चंदेल

*****


किन शब्दों में जिक्र करूं तुम्हारा,
तुम कितने अजीज हो मेरे,
अपने हिस्से की खुशियां देकर,
भाई का बखूबी फर्ज पूरा हो करते।
मेरे मन की उदासी को भी,
यूंँ झट से पढ़ लेते हो,
मेरे चेहरे पर मुस्कान रहे,
इसलिए हर कदम साथ चल लेते हो।
रोरी,मिठाई से थाल सजाकर,
लंबी उम्र की दुआ कर लेती हूँ,
भाई मेरे तुम बहुत आगे जाओ,
मन्नते आरती में कर लेती हूँ।
तुम हमेशा आगे ढाल बनकर,
सुरक्षा का अटूट वचन निभाते हो,
ये अनोखा भाव सिखाकर तुम,
बाबूल जैसा प्यार दिखाते हो है।
राखी में करती हूं तुम्हारा इंतजार,
रीत रही है पसंदीदा ये हर बार,
स्नेह का है, दोनों का मीठा सा संसार,
खुश रहो सदा,
तुम्हारी दुनिया रहे आबाद।

- अंशिता त्रिपाठी

*****


ईश्वर नहीं नींद चाहिए
औरतों को ईश्वर नहीं
आशिक़ नहीं
रूखे-फीके लोग चाहिए आस-पास
जो लेटते ही बत्ती बुझा दें अनायास
चादर ओढ़ लें सिर तक
नाक बजाने लगें तुरंत
नज़दीक मत जाना
बसों, ट्रामों और कुर्सियों में बैठी औरतों के
उन्हें तुम्हारी नहीं
नींद की ज़रूरत है
उनकी नींद टूट गई है सृष्टि के आरंभ से
कंदराओं और अट्टालिकाओं में जाग रही हैं वे
कि उनकी आँख लगते ही
पुरुष शिकार न हो जाएँ
बनैले पशुओं
इंसानी घातों के
वे जूझती रही यौवन में नींद
बुढ़ापे में अनिद्रा से
नींद ही वह क़ीमत है
जो उन्होंने प्रेम, परिणय, संतति
कुछ भी पाने के एवज़ में चुकाई
सोने दो उन्हें पीठ फेर आज की रात
आज साथ भर दुलार से पहले
आँख भर नींद चाहिए उन्हें।

- अनुराधा सिंह


*****


वह बहाता है पसीना जो सुबह से शाम तक
उनसे वो रखता है मतलब बस हमेशा काम तक
इक दफ़ा जिनकी वज़ह से वह छपी अख़बार में
पूछने पर भी उन्हीं का वो लिया नहीं नाम तक
देखकर उसकी ग़रीबी कह दिया लड़के का बाप
क्या ख़रीदेगा अजी मालूम है नहीं दाम तक
आजकल चर्चा इसी की हो रही है ज़ोर से
क्या हुआ जो खेंच लाया आज उसको ज़ाम तक
यूं तो आधी हीं उमर है फिर भी मैं तैयार हूँ
है कोई जो ले चलेगा मुझको मेरे राम तक
'रंग' दुनियां को दिखाने क्यूं भला ऐसा किया
वह मियां अपने बदन का बेच डाला चाम तक

- ललित रंग


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उदयाचल सा निर्मल हूं,
गह्वर हूं पारावारों सा।
हूं कालिदास की कविता सा
मैं सरल चित्त कलियों जैसा।।
पथ जैसी मेरी तितिक्षा है,
श्रम ध्रुव के कठिन तपस जैसा।
वाणी है वीर युधिष्ठिर सी,
मानस निश्छल मानस जैसा।।
मैं हूं मतिमान बृहस्पति सा
बलशाली कुन्तीसुत जैसा
हूं कालचक्र की गति वाला
मधुभृत सरोज की मैं माला।।
विद्या पावन है गंगा सी
कन्दर्पोपम मनभावन हूं।
क्रोधानल नेत्र तृतीय मेरा
मैं महाप्रलय मैं जीवन हूं।।
दृढ़ निश्चय भीष्म प्रतिज्ञा सी
व्यापक हूं तारापथ जैसा।
मैं लीलाधर की सर्वोत्तम
लीला हूं शङ्कर शिव जैसा।।

- अनुराग त्रिपाठी


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ओ कवि
क्या तुम लिख सकते हो
उस अधखिली देह की पीड़ा
जिसको लड़कपन की दहलीज पर ही
रौंद डाला हो
कुछ दरिंदो ने
क्या लिख सकते हो
उसकी आत्मा से रिसते खून का रंग
लिख सकते हो
उस रात के अँधेरे का घिनौनापन
या चीख कि लम्बी गूंज
तुम नहीं लिख सकते
उन सपनों के मर जाने का दुख
जो देखे गए थे
कुछ समय पहले ही
कवि तुम कहां लिख पाओगे
और कितना लिख पाओगे
पीड़ाओं के समुच्चय से घिरी
देह की उदासी
क्या लिख सकते हो
उन आंसुओं का हिसाब
जो बहे हैं रात भर
आत्मा के दुख से
यदि तुम कविताओं में
यह सब नहीं लिख सकते हो
तो माफ करना कवि
तुम कविता नहीं लिख रहे हो
केवल शब्दों को उलीच रहे हो
इस तरह कविता लिखकर
कविता की हत्या मत करो
बख्श दो कविताई को
कविता लिखना
अब तुम्हारे बस की बात नहीं है
तुम्हारी कलम को गठिया हो गया है
स्याही सूख गई है
और पंगु कलम
कहाँ लिख पायेगी कविता.

- मेवा राम गुर्जर


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हे नारी! कब तक और सहेगी ?
कितनी बार और सड़कों पर उतरेगी ?
कितनी बार और कैंडल मार्च करेगी ?
क्या तू अपने अधिकारों की आवाज़
उठाते-उठाते थकती नहीं है ?
अब इस पुरुष को जन्म देना ही
बंद क्यों नहीं कर देती ?
जिस पुरुष को तू जन्म देती है,
वही पुरुष तुझे भेड़िए की तरह नोचता है।
आखिर कब तक अपने शरीर को,
इन भेड़ियों की डर से बचाती रहेगी।
उठा हथियार और इन भेड़ियों की हत्या कर
और समस्त पृथ्वी को पुरुष विहीन बना दे।
हे नारी! कब तक और सहेगी ?

- दीप कोहली


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!! क्या हम आजाद हैं !!
कहने को आज़ाद तो कहलाते हैं, पर आज़ाद रह नहीं पाते हैं।
कोई गुलाम जातिवाद का, कोई राजनीति के गुलाम बन जाते हैं।
साम्प्रदायिकता और दलों के फेर में, बंधकर हम रह जाते हैं।
अन्याय और अत्याचार सह सहकर, यूं ही घुटकर रह जाते हैं।
आज भी देश में दहेज प्रथा, और लिंग भेद का चलन है।
जन्म से मरण तक कन्याओं का, जहां असुरक्षित तन मन है।
छल कपट भ्रष्टाचार से सनी हुई,आज भी राजनीति व लोकतंत्र है।
पूंजीपतियों की चलती मनमानी जहां, कैसे कहें कि हम स्वतंत्र है।
जब तक देश में ये कुरीतियां है, तब तक कैसे कहें आज़ादी है।
देश की राजनीति में जब तक, ऐसा होगा बर्बादी ही बर्बादी है।
आज़ाद कहलाना काफ़ी नहीं, हमें मानसिकता को बदलना होगा।
निज स्वार्थ द्वेष भाव से परे उठ, राष्ट्र हित में आगे चलना होगा।।
आओ सब मिलकर प्रयास करें, देश के परिदृश्य से इन कुरीतियों को हटाएं।
आज़ाद देश तो बन गया है, मिल जुलकर इसे विकसित भारत बनाएं।।

- मुकेश कुमार सोनकर

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उठो नारियों! शस्त्र पकड़ लो ...!
कब तक आस लगाओगी तुम इन बीके हुए लोगों से
उठो नारियों! शस्त्र पकड़ लो
अब कोई कृष्ण नहीं आएंगे तुम्हें बचाने को...!
जने तुम्हारी कोख से वो तुम्हें ही है नोच रहे
ऐसे पुत्रों पर क्यों ही तुम,अपने प्रेम लुटाए बैठी हो
उठो नारियों! शस्त्र पकड़ लो
अब कोई कृष्ण नहीं आएंगे तुम्हें बचाने को ...!
ऐसे पुरुषों पर लानत मारो
अब खड़ी हो तुम स्वयं अपने पैरों पर
जो स्वयं हुए हैं लज्जाहीन,वह क्या ही लाज बचाएंगे
उठो नारियों! शस्त्र पकड़ लो
अब कोई कृष्ण नहीं आएंगे तुम्हें बचाने को...!
वो दौर अलग था जब हुई महाभारत थी
एक द्रोपदी की दुशासन ने चीर मात्र खींची थी
अब समय अलग है दौर अलग है
जन्मे है कायर अब पुरुषत्व मारकर
वह क्या ही स्त्रीत्व बचाएंगे
उठो नारियों! शस्त्र पकड़ लो
अब कोई कृष्ण नहीं आएंगे तुम्हें बचाने को...!
मात्र उठाओ तुम शास्त्र नहीं
ले लो तुम ज्ञान अब शस्त्र का भी
नवदुर्गा का रूप हो समय पर बनो तुम काली भी
बनो नहीं तुम मात्र सुंदर बनो तुम सशक्त भी
उठो नारियों! शस्त्र पकड़ लो
अब कोई कृष्ण नहीं आएंगे तुम्हें बचाने को...!
और सुनो ! चिखकर/ चिल्ला कर/ तड़पकर /
नोच कर /मार दी जाओगी तुम
जलाई जायेंगी मोमबत्तियां निकाली जायेंगी रैलियां
मात्र नहीं लड़ी जाएगी तुम्हारे लिए वास्तविक की लड़ाइयां
बनके रह जाओगी मात्र एक खबर अखबार की
दबा दी जाओगी एक पुराने अखबार की तरह
एक नई खबर की अखबार आने तक
कल दामिनी, आज निर्भया कब तक ऐसे सहोगी तुम
उठो नारियों! शस्त्र उठा लो
अब कोई कृष्ण नहीं आएंगे तुम्हें बचाने को...!

- पल्लवी द्विवेदी


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!! आज़ाद परिंदा !!
आजाद परिंदा आखिर,
आजाद कहां घूम पाया...
ऊंची उड़ान भरकर क्षितिज से
फिर धरती पर लोट आया...
आजादी की कहानी सुनकर,
उसकी आंख मेरी भर आई...
आसमान में भी घूम रहे थे
जाने कितने कसाई...
ना दाना पानी मिला वहां
ना खुली हवा उसने पाई…
प्रदूषित दुनिया हो चुकी अब
जान हथेली पर लेकर लोट आया...
ज्यादा ऊंची उड़ान भरकर
उसने सीख यही पाई...
ख्वाब अच्छे हैं आजादी के
हकीकत में आजादी! सिर्फ आजाद है...
मनुष्य की कृतिम दुनिया ने जाल बिछा रखा है
उसने अपने लिए जगह मुट्ठी भर ना पाई...
आजाद होकर भी वह आजाद रह ना पाया
प्रदूषित हो चुकी दुनिया में वृक्ष की ही शरण पाई।।

- प्रतिभा दुबे


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बहुत कुछ था पहाड़ों में
सब कुछ एक सुंदर स्वप्न जैसा ‌‌‌
फिर ना जाने क्यों पता चला ?
पहाडों में जो ये बर्फ होती है ना
वह बहिष्कृत ही रहती है।
और जो ये नदी है ना
ये रोती है अपनी पवित्रता पे...
ये बांज ये देवदार और बुरांश खड़े तो है
पर डरते है अपनी ऊंचाईयों से...
जो ये खिलती है ना प्यूली और न्यूली
ये सहमी रहती है
कुमडने और कुचलने के डर से..
बुग्यालों में जो ये ओस जमी रहती है
वो निरह-विरह ठिठुरी है
किसी दूब के तोड़े जाने से...
और जो ये चिड़िया काफल के पेड़
पर गाती है करुण गीत
वो रोती है अपनों के
ना लौट के आने पे...

- डॉ. संदीप कुमार


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!! मां !!
माँ एक शब्द नहीं
एक भाव है
एक विज्ञान है
एक महासागर है
एक पूर्ण विराम
एक घर ही नहीं
सम्पूर्ण ब्रह्मांड है
आकाश है
हिमालय जैसी ऊँची
घाटी जैसी गहरी
माँ ही तो है धरा
माँ एक अंक है
माँ एक वेद है
जिसमें सम्पूर्ण भण्डार
वेदों का वेद
जो कोरी सलेट को
भर भर ज्ञान दे
वही तो है माँ
जो अपने कलेजे
के टुकड़े को भी दान दे
धन्य है माँ
माँ मेरी माँ

- सुमन डोभाल काला


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!! धरती मांँ की आह !!
पर्यावरण को मार रहे हैं, फैला भ्रष्टाचार।
अंधे हो गये सबकी गंदी, अंधी हो गई चाह।।
पेड़ पौधे काट रहे हैं, प्राणीयों को मार।
ऊपरवाले सुनलो मेरी, धरती माँ की आह।।
पाणी के लिए धरती माँ पर, लाखो किये वार।
एक दूजे के झगड़े में, किसी और का खून बहाय।।
रहा नाम का पुण्य यहां पर, मचा पाप संहार।
पोथी पूराण ना पढ़ता कोई, किसने इनको कहाय।।
पर्यावरण को मार रहे हैं, फैला भ्रष्टाचार।
अंधे हो गये सबकी गंदी, अंधी हो गई चाह।।

- कृष्णा वाघमारे


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टूटने वाली थी पर टूटने नहीं दिया ख़ुद को,
नाह इस दिल को! और ना ख़ुद को।
संभाला कर रखा इस दिल को
सबसे बचा कर अपने जज़्बातो को।
समेटती रही उन यादों को
कभी नाह वापस आने वाले उन लम्हों को।
टूटने वाली थी पर टूटने नहीं दिया ख़ुद को।
नाह इस दिल को और नाह ही ख़ुद को।
नाह अपने सपनों को और नाही उनसे जुड़े अरमानों को।
अपने हिम्मत को और नाही अपने हौंसले को
जोड़े रखा जिंदगी के हर एक पहलू को।
सजा कर रखा हर एक रिश्ते को,
उनसे मिलने वाली चुनोतिओ को।
टूटने वाली थी पर संभाला है मैंने ख़ुद को।
भूल कर हर एक गम को, जोड़ा हैं मैंने ख़ुद को।
टूटने वाली थी पर टूटने नहीं दिया ख़ुद को,
नाह इस दिल को और नाह ही ख़ुद को।

- दीपशिखा


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!! माँ !!
एक बोझा लकड़ी के लिए
क्यों दिन भर जंगल छानती,
पहाड़ लाँघती,
देर शाम घर लौटती हो?
माँ कहती है :
जंगल छानती,
पहाड़ लाँघती,
दिन भर भटकती हूँ
सिर्फ़ सूखी लकड़ियों के लिए।
कहीं काट न दूँ कोई ज़िंदा पेड़!

- जसिंता केरकेट्टा


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जिंदगी गुजर गई सब को समझने में
खुद को समझते तो बात कुछ और होती
दूसरों की खुशी से ज्यादा खुद का सोचते
तो ना दुःखों की यू बरसात होती
आँसू के सिवा कुछ ना दिया किसी ने
आईना गवाह हैं मेरी उम्र लिखते हुए मेरे अक्स पर
काश तूने खुद को ही सँवारा होता
दूसरों के पीछे खुद को मिटा ना ये हाल तुम्हारा होता।

- कृष्णा


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रिमझिम सावन की बहार
बरसे बादल छमाछम फुहार।
मयूर पपीहा बोले बाग में
सखियां झूले एक साथ में।
हरियाली छाई डाल हर्षायी
उमंग जगी खुशियां है छाई।
मेढ़क टर्राए डुबकी लगाए
ताल ताल पर पंछी मंडराए।
घिरे है बादल चोटी पर छाए
नदी कल कल कर जल बहाए।
रिमझिम सावन और मन बेचैन
पिया मिलन को अब तरसे नैन।
कागज़ की कश्ती पानी में तैराई
इंद्रधनुष के संग चुनरी लहराई।
प्रीत का मौसम लेकर रंग हजार
सावन में करें सखियां सोलह श्रृंगार।

- कांता शर्मा

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!! सिल-बट्टा !!
आज भी रसोईघर के उसी कोने में पड़ा है ,
वो सिल-बट्टा ।
सूखा, बेजान और उदास सा
अब भी दीवार से सटा खड़ा है ,
वो सिल-बट्टा ।
जिस पर माँ रोज़ाना पीसा करती थी ;
खड़े सूखे मसाले ।
साड़ी के पल्लू को कमर में खोंसे ,
पंजो के बल बैठ कर ,
खटखटाहट कि आवाज़ के साथ पीसती थी….
कच्ची कैरी, लालमिर्ची और लहसुन कि चटनियाँ ।
साबुत सौफ़ , हींग और धनिया
जिस दिन पीसा जाता था ,
घर में तो क्या….
पड़ोसियों तक को भी पता पड़ जाता था ,
भरवाँ करेले बन रहे या फिर कढ़ी ?
कभी सिल को कई बार धो पौंछ कर ,
जाइफ़ल घिस कर हमे चटाती थी ,
तो कभी बट्टे से अखरोट तोड़ कर खिलाती थी।
सिल-बट्टा खुटवा लो…. कि
आवाज़ पर माँ चहक-चहक जाती थी ,
छैनी और छोटी सी हथौड़ी से
खुट-खुट कर सिल खुटवाती थी,
मंगौरी कि मूँग दाल हो या कचौड़ी की उड़द...
सब कुछ माँ इसी पर पीस जाती थी।
ना जाने कैसे ?
इतने बड़े कुनबे की ज़िम्मेवारी
ये छोटी सी सिल उठाती थी,
पीस कर ठंडाई माँ
गर्मी में जब मेहमानों को पिलाती थी।
अब सिल-बट्टा उदास है,
आयेगी माँ और पीसेगी कुछ…
अब भी उसको आस है ।

- बबिता नागर छावड़ी


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बात सहरा में आबशारों की
बीच मंझधार में किनारों की
अपना साया भी साथ छोड़ गया
जब ज़रूरत पड़ी थी यारों की
क़ाफ़िले सब नज़र से दूर हुए
दास्ताँ रह गई ग़ुबारों की
क़द्र होती नहीं है दोस्त यहाँ
चाँदनी रात में सितारों की
मेरी क़िस्मत से दूर है मंज़िल
ख़ाक उड़ानी है रह गुज़ारों की
झूठ का ही मुलम्मा ओढ़े हैं
आज तहरीरें इश्तिहारों की
'भारती' उस से बात क्या कीजे
जो न समझे ज़ुबाँ इशारों की

- राजेश 'भारती'


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!! मित्रता की पवित्रता !!
मित्रता छू लेती है, सूरज के सातों रंग,
नदी के दो किनार जैसे हमेशा रहे संग।
मित्रता उस पहाड़ के जैसे अडिग अटल,
जो कठिन से कठिन समय पर भी न करे छल।
मित्रता बारिश की बूंदों सा स्वच्छ और शुद्ध,
जहां, नहीं है तेरा–मेरा का स्वार्थ युद्ध।
मित्रता में जात पात धर्म भाषा न ही उम्र देखी जाती है।
मित्रता, मन का मन से मेल है, जो बस हो जाती है।
शब्दो में ईश्वर के बाद जो सबसे पवित्र,
निसंदेह वह शब्द ही है मित्र।

- सुतपा घोष

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!! रोशनी का खेल !!
स्कूलों को बाज़ार बना दिया गया,
सच्ची ख़बर को अख़बार बना दिया गया।
जो दीपक हैं संसार का यहाँ,
उसको बाज़ार का घर बना दिया गया।
लूट-खसोट हैं ज़माने में किताबों के नाम की जहाँ,
वहाँ शिक्षा के घर को व्यापार बना दिया गया।
और सच ये हैं की वो झूठ बहुत बोलता हैं,
उसको नेता और संसार को व्यापार बना दिया गया।
क़लम का हथियार छिनने की साजिश हैं यहाँ,
शिक्षा को महँगा और युवाओं को
बेरोज़गार बना दिया गया।

- बलराम


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!! उत्सव !!
जीवन के हर पल को
उत्सव रूपी
खुशियों से सजाए हम
जीवन के इस रंगमंच को
रंगीन कर जाए हम।
सुख दुःख को जीवन
संगिनी समझ कर,
बेझिझक इसे अपनाएं हम।
जीवन बहुत सरल हो जाएगा
हर पल में अगर
उत्सव मनाए हम।

- सूरज महतो

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दिल को जन्नत कहने वालों
दिल के टुकड़े मत कर देना
गर टूटा तो कफ़स में क़ैद हो जायेगा

शब ए हिज़्र है ये बड़ी मुश्किल
याद कर लूं महबूब को ज़रा
कल दिल जलाने चांद फिर आयेगा

अपनी जन्नत तुम ही संभालो यारों
टूटा हुआ दिल ही तो है
ये कहीं दोजख़ में भी रह जाएगा

मसला दिल का न होता तो
ख़ामोश ही रह लेते हम
ये हाल ए दिल आंखों से ही बयां हो जाएगा

अपनी कश्ती ख़ुद संभालो मांझी
ये आंखों का समंदर है
दिल बेचारा तो यूं ही डूब जाएगा

इस क़दर न तोड़ मुझे
तेरे फ़िरदौस का ही फूल हूं
फूल तोड़ा तो बाग़ भी उजड़ जाएगा

                                                                        - भावना पांडे


*****



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