साहित्य चक्र

08 August 2024

कविताः विनेश फोगाट



सब्जी खरीदते समय
ये जो महिलाएं कहतीं हैं न कि
सो- पचास ग्राम ज़्यादा दे दोगे तो
क्या फ़र्क पड़ जाएगा
इन महिलाओं को
विनेश फोगाट से मिलवाना चाहिए
वह बताएगी कि सो -पचास ग्राम ज्यादा से
कितना फ़र्क पड़ जाता है
इन महिलाओं को
उस कुम्हार से मिलवाना चाहिए
जिसकी माटी में सो- पचास ग्राम
पानी ज्यादा डल जाने से मटकी पर
कितना फ़र्क पड़ जाता है
इन महिलाओं को उन वैज्ञानिकों से
मिलवाना चाहिए
जिनके प्रयोग में एक बूंद केमिकल
ज्यादा गिर जाने से उनके परिणामों पर
कितना फ़र्क पड़ जाता है
इन महिलाओं को रोटी बनाते वक्त
खुद से भी मिलना चाहिए कि
आटे में जरा-सा पानी ज्यादा गिर जाने से
रोटी पर कितना फ़र्क पड़ जाता है
फ़र्क हमेशा सो -पचास ग्राम से,
थोड़े से ही पड़ता है
अधिक होने पर फर्क नहीं पड़ता
स्थितियां ही अलग हो जाती हैं


- डॉ निर्मला शर्मा


कविताः सुकून






“जिसको देखकर आये चेहरे पर हँसी,
वो है सुकून।

जिसकी बातों में दिल खो जाये,
वो है सुकून।

जिसके हाथों का खाना पेट भर जाये,
वो है सुकून।

जहां कुछ ग़म ना सताये,
वो है सुकून।

जिसकी आहट से ख़ुशबू भर जाये,
वो है सुकून।

बातें लगे जिसकी सरगम जैसी,
वो है सुकून।"

- डॉ मंजू तिवारी

हिमालयी लोगों पर लिखने वाले भीष्म कुकरेती

अनादि काल से ही गढ़वाल की भूमि ज्ञानियों, विद्वानों और वीरों की जन्मभूमि और कर्मभूमि रही है। इन भागों में हर विधा के सिद्ध हस्त जन्म ले चुके हैं। स्कंदपुराण में इसे केदार खंड के रूप में वर्णित किया गया है। कालांतर में इस मध्य भाग को गढ़वाल के नाम से जाना जाने लगा। लघु हिमालय के यह भाग प्रशासनिक रूप से ब्रिटिश काल के दौरान ढांगू पट्टी के नाम से जाना जाता था, भौगोलिक रूप से यह क्षेत्र दक्षिण पश्चिमी गढ़वाल में आता है। ढांगू पट्टी को तल्ला, मल्ला और बिछला तीन भागों में बांटा गया था। वर्तमान में यह द्वारीखाल विकासखंड के अंतर्गत आता है। द्वारीखाल ब्लॉक ढांगू मल्ला के अंतर्गत जसपुर नाम से एक गांव है। किसी वक्त इस गांव को गढ़वाल की काशी के नाम से जाना जाता था, यह गांव विद्वानों और प्रबुद्ध व्यक्तियों की जन्मस्थली और कर्मस्थली रही है। (हालांकि गढ़वाल की काशी कुछ अन्य गांवों को भी कहा जाता रहा है, जो गांव शिक्षा दीक्षा में अव्वल रहे उन्हें यह उपाधि मिली)।




जसपुर गांव के साथ हमारे गांव (झैड़, बलोगी) का रोटी बेटी का संबंध हैं। साथ ही हमारे कुल गुरु बहुगुणा भी इसी गांव के निवासी हैं। माना जाता है की कुकरेती लोग सर्वप्रथम गढ़वाल में जसपुर आकर ही बसे, उसके उपरांत समय समय पर अन्य जगह स्थानांतरित होते गए। जसपुर गांव में 02 अप्रैल सन 1952 को श्री कलीराम कुकरेती जी के यहां पुत्र का जन्म हुआ, जिसका नाम कलीराम जी ने भीष्म रखा। भीष्म की माता का नाम श्रीमती दमयंती डबराल कुकरेती था। श्री कलीराम जी रोजगार वस भारत की वाणिज्यिक राजधानी बंबई (अब मुंबई) में नौकरी करते थे। अतः बालक भीष्म की रहन-सहन और देखभाल का जिम्मा उनकी माता ने ही उठाया। भीष्म की प्राथमिक शिक्षा राजकीय प्राथमिक विद्यालय टकांण (बड़ेथ ढांगू) में हुई। राजकीय प्राथमिक विद्यालय टकांण (बड़ेथ ढांगू) ढांगू सहित आसपास की पट्टियों का प्रथम प्राथमिक विद्यालय था। इस विद्यालय में किसी वक्त छात्रावास भी था। प्राथमिक विद्यालय होने के कारण आसपास के गांवों में शिक्षा को बल मिला। यह विद्यालय 1880 के दशक में बना है। भीष्म ने कक्षा 5 उत्तीर्ण कर माध्यमिक शिक्षा के लिए सिलोगी विद्यालय में एडमिशन लिया। सिलोगी विद्यालय संत सदानंद जी द्वारा सन 1926 में स्थापित किया गया था।

सिलोगी से आठवीं कक्षा पास करने के बाद वह कक्षा 9 से 12वीं तक लक्ष्मण विद्यालय देहरादून में पढ़े। भीष्म प्रारंभ से ही विलक्षण प्रतिभा के छात्र थे। भीष्म बताते हैं कि कक्षा 5 में ही उन्होंने भगवत गीता, सत्यार्थ प्रकाश और ओमप्रकाश जी की जासूसी नोबल को पढ़ाना शुरू कर दिया था या यूं कहें पढ़ लिए थे। कक्षा में प्रथम आना शायद उन्हें सबसे ज्यादा पसंद था। प्रारंभिक शिक्षा से स्नातकोत्तर तक वे एक प्रखर छात्र रहे। लक्ष्मण विद्यालय से इंटरमीडिएट करने के उपरांत उन्होंने स्नातक में बीएससी ऑनर्स वनस्पति विज्ञान से उत्तीर्ण की। उन्होंने श्री गुरु राम राय पीजी कॉलेज से यह परीक्षा उत्तीर्ण की। तब यह कॉलेज मेरठ विश्वविद्यालय के अंतर्गत आता था वह बताते हैं कि मेरठ यूनिवर्सिटी से बीएससी ऑनर्स करने वाले वह इस महाविद्यालय के प्रथम छात्र थे। इसके बाद उन्होंने डीएवी पीजी कॉलेज से एमएससी वनस्पति विज्ञान (बॉटनी) की परीक्षा उत्तीर्ण की। मेरे बीएससी के रसायन विज्ञान प्रोफेसर डॉक्टर संतोष डबराल जी भीष्म कुकरेती जी के सहपाठी थे, हालांकि विषय अलग रहे। भीष्म जी उच्च शिक्षा लेने का मूल उद्देश्य अध्यापन और रिसर्च के क्षेत्र मे सेवा करना रहा था वह बताते हैं कि उनका बचपन का सपना था कि वह एक प्रोफेसर के रूप में सेवा दे, लेकिन होता वही है जो भगवान को मंजूर होता है।

वह स्नातकोत्तर परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद मुंबई गए, जहां उनके पिता जी का ट्रांसपोर्ट का व्यापार था। भीष्म कुकरेती जी द्वारा मुंबई जाना एक संयोग ही था। उस समय उनकी छोटी बहन की शादी मुंबई में होनी थी वह इस कारण मुंबई गए, किंतु उनका मुंबई में ही रह जाना और वही अपना संपूर्ण जीवन बिताना भगवान को शायद यही मंजूर रहा होगा। भीष्म कुकरेती जी द्वारा सेल्स और मार्केटिंग लाइन में सेवाएं दी गई, वह बताते हैं कि लगभग 18 देश में हुए भ्रमण कर चुके हैं, यूरोप चीन सहित कई देशों में भ्रमण किया। वे मानते हैं की यात्राएं या भ्रमण कर ज्ञान में बढ़ोत्तरी होती है और हम अनेक सभ्यताओं के विषय में जानकारी अर्जित करते हैं। घुमक्कड़ी जीवन भी अपने आप में एक तपस्या है। भीष्म जी बताते हैं कि उन्हें बचपन से ही जासूसी उपन्यास पढ़ने का बड़ा शौक था। जब वह देहरादून में विद्यालय शिक्षा और उच्च शिक्षा ग्रहण कर रहे थे तो उन्होंने अनेक जासूसी उपन्यासों, कहानियों को पढ़ डाला था, अधिकांश पुस्तकें अंग्रेजी भाषा के पढ़े। इनको पढ़ने के उपरांत ही उन्हें लिखने का शौक आया। भीष्म जी बताते हैं कि देहरादून में पढ़ाई के दौरान उनके साथ रूममेट के रूप में श्री सत्य प्रसाद बड़थ्वाल सिमालू और श्री दयानंद बहुगुणा रहे हैं।

सेल्स और मार्केटिंग लाइन में उन्हें महीने के 30 दिनों में से 20 दिन घर से बाहर भ्रमण करना होता था। भारत के लगभग हर क्षेत्र में भ्रमण करने के उपरांत ही भीष्म जी को यह आभास हुआ कि वह अब लेखन कार्य में भी अपना हाथ आजमाएं। युवा भीष्म की घर वालों द्वारा शादी की तैयारी कर ली गई। विवाह उपरांत जब पत्नी गांव में आई तो उनके साथ परिवार की अन्य दीदी, बहनों, भाभियों ने खूब मजाक किया। इसी दौरान वे अपनी पत्नी के साथ रिश्तेदारी में गए और अनेक स्मृतियां लेकर हुए अपने कार्य क्षेत्र चले गए। भीष्म जी बताते हैं कि इसी दौरान हिलांस पत्रिका में उन्होंने अपने गांव और विवाह उपरांत की स्मृतियों को उकेरा, जिसे "काली चाय" शीर्षक नाम से प्रकाशित किया, यही भीष्म जी का प्रथम लेख था। इसके बाद उन्होंने "शिबू का घर" शीर्षक से एक लेख लिखा, वास्तव में यह लेख सिमालु खंड गांव के श्री प्रेम बड़थ्वाल जी के मुंबई में रहते हुए का संघर्ष पर आधारित था। इन दोनों लेख को अनेक लोगों द्वारा अत्यधिक पसंद किया गया। वास्तव में यह लेख आम आदमी के जीवन पर आधारित थी। जिन भी लोगों ने इन लेखों को पढ़ा वे उसे अपनी कहानी बताते, भीष्म जी को लेख के लिए बधाइयां मिली और यहीं से उन्हें लेखन क्षेत्र में जाने के लिए प्रोत्साहन मिला। भीष्म जी इतिहास लेखन के क्षेत्र में उत्तराखंड के सबसे प्रासंगिक और प्रमाणिक लेखक डॉक्टर शिव प्रसाद डबराल चारण को मानते हैं वह कहते हैं कि डॉक्टर डबराल ने जहां पर इतिहास लेखन को छोड़ा था उसके उपरांत किसी भी व्यक्ति द्वारा प्रमाणिक लेखन नहीं किया गया, आज भी इतिहास वहीं पड़ा हुआ है।

डॉक्टर डबराल को भीष्म कुकरेती जी ऋषि तुल्य मानते हैं और कहते हैं कि उन्होंने अपना घर बार छोड़कर ईश्वर को साक्षी मानकर इतिहास लेखन का जो कार्य किया वह असाधारण और अद्भुत है भीष्म जी कहते हैं कि डॉक्टर शिवप्रसाद डबराल जी ने अनेक जगह घूम घूम कर शोध परख इतिहास लिखा, उनका लेखन प्रमाणिक है, उन्होंने भूगोल के जानकारी जुटाकर इतिहास लिखना शुरू किया था, स्वयं अपने आप को बताते हैं कि वह छात्र तो विज्ञान के थे लेकिन लेखन कार्य इतिहास रहा। भीष्म जी कहते हैं, गढ़वाली लेखन में जो कार्य श्री अबोध बंधु बहुगुणा जी द्वारा किया गया है वह भी असाधारण ही है। श्री अबोध बंधु बहुगुणा जी ने अनेक प्रमाणिक गढ़वाली साहित्य लिखे हैं। भीष्म जी बताते हैं कि गढ़वाली भाषा में लिखी अनेक पुस्तकों की समीक्षा गढ़वाली भाषा को छोड़कर हिंदी और अंग्रेजी में अनेक लेखकों और समीक्षकों द्वारा की गई, लेकिन भीष्म जी कहते हैं कि मैंने ठाना की गढ़वाली भाषा में लिखी पुस्तक की समीक्षा गढ़वाली भाषा में ही हो, इसीलिए मैंने कही पुस्तकों की समीक्षा गढ़वाली में करना शुरू किया, बाजूबंद नामक पुस्तक का मैने सर्वप्रथम गढ़वाली भाषा में समीक्षा की।

भीष्म जी के साथ मेरा भी एक संबंध है, मेरी मां भी कुकरेती जाति से हैं तो वे मेरे मामा हुए, मैं उन्हे मामा जी के रूप में संबोधित करता हूं, साथ ही मेरी बड़ी बुआ (पापा की बुआ) का विवाह उन्ही के कुटुंब में हुआ था। पिछले 8-10 सालों से सोशल मीडिया के माध्यम से उनके अनेक लेख, कहानियों, व्यंग्यों, समीक्षाओं को पढ़ने को मिले, मैं व्यक्तिगत रूप से तो उन्हें मिल नहीं पाया हूं, लेकिन फोन के माध्यम से उनसे अनेक विषयों पर घंटों चर्चा होती रहती है। वे कभी भी कुछ भी बताने में और गलत होने पर डांट ने में हिचकते नहीं है। अमूमन देखा जाता है कि बुद्धिजीवी वर्ग यही सुनाई देते हैं की आजकल के युवा कुछ नहीं जानते, पर भीष्म जी इसके उलट हैं, उन्हें बहुत खुशी मिलती है कि आज कल के युवा उत्तराखंड के इतिहास, यहां की बोली, भाषा, रहन, सहन, साहित्य, संस्कृति के विषय में लिखते हैं। जब मैंने श्री मुकंद राम बड़थ्वाल दैवज्ञ, डॉक्टर शिव प्रसाद डबराल चारण, संत सदानंद कुकरेती के जीवन स्मृति पर लेख लिखे, तो वह बहुत खुश हुए और उनके द्वारा खूब प्रशंसा मिली, फोन कर शाबासी दी, यह मेरे लिए प्रेरणादायक स्मृति रही है। उक्त विभूतियों पर लिखना मेरा सौभाग्य है, अनेक पत्रिकाओं में लेख प्रकाशित हुए।

भीष्म जी ने उत्तराखंड की काष्ट कला एवं पहाड़ी भवन संरचना पर भी अनेक लेख लिखे हैं, भीष्म जी बताते हैं कि नौकरी के दौरान मैंने भ्रमण में "कुमाऊं के घरों के स्ट्रक्चर" के नाम से एक साहित्य का अध्ययन किया, उसके उपरांत मैंने यह पाया की गढ़वाल क्षेत्र में भवन कला पर अभी विस्तृत अध्ययन या साहित्य नहीं तैयार हुआ है, इसके उपरांत मैंने इंटरनेट और कॉल के माध्यम से अपने क्षेत्र के गांव के लोगों को कहा कि वह अपने-अपने घरों और गांवों के तिबारीयों, बाखली, काष्ट कला, भवन कला थी उनकी छायाचित्र और फोटो को मुझे भेजें। वह कहते हैं कि उनके इस आवाहन पर लगभग 3000 से अधिक छायाचित्र उन्हें प्राप्त हुए हुए बताते हैं। भीष्म जी द्वारा आज तक 775 से अधिक भवनों के (पहाड़ी घरों) काष्ट कला पर लिख चुके हैं और अभी भी लगभग ढाई हजार से अधिक चित्रों पर लिखना बाकी है।

भीष्म जी ने मेरे पैतृक घर जो मेरे पड़ दादा जी स्व0 श्री जगतराम मैठाणी द्वारा निर्मित भवन है की काष्ट कला का भी अदभुत वर्णन किया, शायद ही उस घर में रहे थे उन्हे भी वह जानकारी हो। काष्ट कला लेखन पर भीष्म जी की कोई जवाब नहीं है। भीष्म जी युवावस्था में वामपंथी विचारधारा से ताल्लुक रखते थे, हालांकि वर्तमान में हुए कट्टर दक्षिणपंथी विचारधारा का समर्थन करते हुए पाए जाते हैं। भीष्म जी बताते हैं कि उन्होंने "गढ़ ऐना" नामक दैनिक पत्रिका में अनेक व्यंग्य चित्र और व्यंग्य कथाएं लिखी। वह बताते हैं कि दैनिक हिंदुस्तान में प्रकाशित व्यंग्य चित्रों से प्रभावित हुए, उनके लगभग 2000 से अधिक व्यंग्य लेख अनेक पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित की हैं। भीष्म जी बताते हैं कि उन्होंने प्रथम व्यंग्य कहानी "वेस्टर्न हल" लिखी। भीष्म कुकरेती जी काष्ठ कला लेखन, व्यंग्य लेखन के साथ-साथ अनेक गढ़वाली भाषा की कहानी भी लिख चुके हैं उन्होंने गढ़वाली भाषा में पहली कहानी "कैरा को कत्ल" लिखी, वास्तव में इस कहानी में "क" शब्द का अनेक बार प्रयोग किया गया है यह अनुप्रस्थ अलंकार पर आधारित एक कहानी है। भीष्म कुकरेती जितनी अच्छी हिंदी और गढ़वाली भाषा लिखते हैं, उससे भी अच्छा वे अंग्रेजी भाषा में लेखन कार्य करते हैं। वह बताते हैं कि जब उन्होंने स्नातक और स्नातकोतर की परीक्षाएं दी तब से ही उन्हें अंग्रेजी भाषा लिखने और पढ़ने का रुझान बढ़ने लगा, चुकी इन क्लास में पढ़ाई अंग्रेजी में होती और पेपर भी अंग्रेजी में होते। इसलिए अंग्रेजी पढ़ना जरूरी हो गया।

उनका जो जन्मजात सपना प्रोफेसर बनने का था उससे उन्हें यह लगा की अंग्रेजी में उन्हें अनेक लेक्चरर्स देने होंगे, इसलिए उन्होंने अपनी अंग्रेजी को अच्छा बनाया। वह बताते हैं कि उन्होंने जेम्स हेडली और आयरिश लेखक ब्राम स्टॉकर की ड्रैकुला सहित अनेक अंग्रेजी उपन्यास और जासूसी पर आधारित कहानियां पढ़ी। भीष्म जी को सेल्स और मार्केटिंग में सेवा करते थे इसलिए उन्होंने सेल्स और इंटरनेट मार्केटिंग के क्षेत्र में षडदर्शन, उपनिषद और भरतनाट्यम को आधार मानकर अनेक लेख प्रकाशित किए। भीष्म कुकरेती जी द्वारा अनेक हिंदी, गढ़वाली और अंग्रेजी पुस्तकों का प्रकाशन किया गया। उनकी अनेक रचनाएं हैं, जिनको यहां लिखा गया तो लेख बड़ा हो जायेगा, भीष्म कुकरेती जी की रचनाएं कमेंट में हैं। भीष्म जी कहां तो वनस्पति विज्ञान के छात्र थे, कहां उन्होंने सेल्स और मार्केटिंग में नौकरी की और कहां वो एक लेखक बन गए। उन पर मुझे यह पंक्ति याद आती है-

"जिंदगी का भी क्या कहिए, सोचा कहीं, नौकरी कहीं, घर कहीं, अपने कहीं, सपने कहीं ''

वे कई बार सोशल मीडिया पर उन कथित लेख या प्रमाणिक जानकारी न देने वाले व्यक्तियों पर भड़क जाते हैं और वहीं लिख देते आपने यह गलत लिखा है। वह मानते हैं कि यदि साहित्य का सृजन करना है तो सत्य लिखने की ताकत होनी चाहिए, यदि साहित्य के साथ में छेड़छाड़ या उसे कपोलकल्पित बनाया जाता है उससे साहित्य तो खराब होता ही है, इतिहास भी बिगड़ जाता है। लेखन कार्य करते समय युवा वर्ग के लेखकों को सबसे पहले प्रमाणिकता की जानकारी होनी चाहिए। वह भावुक होते हुए कहते हैं कि इस राज्य (देवभूमि उत्तराखंड) का इतिहास अत्यंत ही रोचक और रहस्यमई है। यहां अनेक किले, कोट, गढ़ है किंतु उनका समुचित शोध अभी तक नहीं हो पाया है, डॉक्टर शिव प्रसाद डबराल ने जहां पर इतिहास लेखन का कार्य छोड़ा था, आज भी वहीं है। यदि राज्य सरकार इस ओर ध्यान देकर शोधार्थियों, लेखकों को प्रोत्साहित करें तो अच्छे परिणाम मिलेंगे। भीष्म कुकरेती जी यह भी कहते हैं कि लेखक सदैव गरीब होता है और उसकी प्रशंसा हमेशा तभी की जाती है जब वह इस दुनिया में नहीं रहता है।

साहित्य सृजन करने वाले मनीषियों की सरकारों का संरक्षण होना चाहिए, ताकि उनका साहित्य सृजन में कभी भी उनकी आजीविका कारण ना बने, यदि किसी लेखक के पास उसकी आजीविका ही ना हो, तो वह कैसे साहित्य सृजन करेगा, इसीलिए वह कहते हैं कि एक लेखक सदैव गरीब रहता है और गरीबी दिन काट कर ही वह साहित्य सृजन करता हैं। आज के युग में लेखन कार्य बहुत ही विरले लोग करते हैं। उन्हें सहयोग और संरक्षण दिया जाना चाहिए। युवा लेखकों में भीष्म कुकरेती जी बताते हैं कि गढ़वाली लेखन में श्री मनोज भट्ट गढ़वाली के लेख काफी अच्छे और प्रमाणिक हैं। इसलिए युवा लेखक लेखिकाओं से कहते हैं कि वह भले ही कम लिखे लेकिन सृजनात्मक और प्रमाणिक लेखन करें। युवाओं को हिंदी और इंग्लिश लेखन के साथ-साथ गढ़वाली लेखन में भी हाथ आजमाने चाहिए और गढ़वाल के जितने भी साहित्यकार हुए हैं उनके इतिहास को संग्रह करने की पहल करनी चाहिए।

मैं भीष्म कुकरेती जी को सरस्वती का मानस पुत्र मानता हूं वह मुंबई में रहकर भी गढ़वाल के गाढ़ गधेरों, ग्लेशियरों, वन भूमि, बंजर भूमि काष्ट कला, जागर कला, यात्राएं, लोक वाद्य, लोकगीत, लोक कलाओं, इतिहास, संस्कृति, साहित्य आदि पर लिखते हैं। मैं भीष्म कुकरेती जी को उनके आरोग्यमई जीवन की कामना करते हुए, उन्हें प्रणाम करता हूं और अपेक्षा करता हूं कि आप हम युवाओं के लिए अनेक साहित्य सृजन करें, जिससे हमारा ज्ञान बढ़ेगा। हाल ही में उन्हें बड़थ्वाल कुटुंब द्वारा अपने वार्षिक सम्मान में साहित्य क्षेत्र का सर्वोच्च सम्मान "डॉक्टर पीतांबर दत्त बड़थ्वाल साहित्य सम्मान" से सम्मानित किया गया है, जिसके लिए उन्हें बहुत-बहुत बधाई देता हूं।


- प्रशांत मैठाणी




कविताः काम आएगा




छाया दार पेड़ है, मुसाफिर के काम आयेगा,
कल सुख जायेगा तो जलाने के काम आयेगा।

कच्चा बोल कर जो बेच रहे हो गाव के मकान,
शायद यह कल सर छिपाने के काम आयेगा।।

ऐसे मसलो नही तुम अपने हाथों से जुगनू को,
कभी अँधेरे मे रास्ता दिखाने के काम आयेगा।

मत भेजना वृद्धाश्रमों मे अपने बुजुर्गो को,
हमारी संस्कृति को बचाने के काम आयेगा।

पुराने खंजरों को रखना सजा के घरों में,
 कभी दुश्मनों को डराने के काम आयेगा।।


                    - लीलाधर चौबिसा

प्रकृति ने निःशुल्क पर्याप्त हवा और पानी दिया: महात्मा गांधी

         
          दुनिया ने विकास की गति के जिस रफ्तार को पकड़ा है। उस रफ्तार से पीछे आना संभव नहीं है। आज जो पर्यावरण प्रदूषण की समस्या विकराल रूप धारण करती जा रही है। भारत अगर महात्मा गांधी के पर्यावरणीय वैज्ञानिक सोच को अपना रास्ता स्वयं बनाए तो स्वयं विनाश से बचेगा ही, दुनिया का आदर्श-आत्मक मॉडल भी बन सकेगा। स्वतंत्र भारत का गांधीवादी दृष्टिकोण ग्रामीण पुनरुद्धार पर केंद्रित था। आज लोक कल्याणकारी राज्य को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि सबसे गरीब और कमजोर व्यक्ति का चेहरा हमारे नियोजन और विकास के केंद्र में बना रहे। अन्त्योदय से सर्वोदय हो। प्रकृति की अपनी नियम है। 



मनुष्य धरती पर उस नियम से बंधा है, वह तभी तक जीवित रहेगा, जब तक यह बंधन कायम रहेगी। वनस्पति के बिना इस पृथ्वी पर जीवधारी एक क्षण के लिए भी नहीं रह सकते हैं। गांधीजी का प्रसिद्ध वक्तव्य धरती के पास सभी की जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त साधन है। किंतु किसी के लालच के लिए नहीं। यह समकालीन पर्यावरणीय आंदोलनों के लिए नारा बन गया है।

              आज हमने अपने को अनावश्यक वस्तुओं का भंडार बना रखा है। परिणामतः अनेक अवांछित बीमारी यथा-स्वाइन फ्लू, कैंसर, मधुमेह, किडनी की बीमारियां, कोरोना जैसी बीमारियां मानव जीवन को प्रभावित करने लगी है। गांधी ने कहा है कि आहार में उतनी ही चीजें लेनी चाहिए जो कि प्राकृतिक पदार्थों के अधिक उपयोग से इन सारी बीमारियों से बचा जा सकता है और इसे विज्ञान भी बखूबी मानने लगे हैं।

              गांधीजी का मानना था कि हमारी जीवन पद्धति ऐसी हो कि पर्यावरण को कम-से-कम ठेस पहुंचे। गांधी के द्वारा बताएं उद्योग शिल्प और आवश्यकताओं पर नियंत्रण की नीति को अपनाने की जरूरत है। गांधी के ग्राम उद्योग का विचार आधुनिक परिवेश में पर्यावरण प्रदूषण को रोकने के लिए प्रासंगिक है।  महात्मा गांधीजी यह मानते थे कि मनुष्यों एवं प्रकृति को कम से कम हानि पहुंचा कर सामाजिक परिवर्तन लाया जा सकता है। 

जबकि गांधीजी ने प्रत्यक्ष पर्यावरण पर किसी पुस्तक की रचना नहीं किया लेकिन अपने दैनिक व्यवहार एवं हिंद स्वराज में उनके पर्यावरण व पारिस्थितिकी संबंधी विचार दृष्टिगोचर होते है। गांधीजी के लिए स्वच्छता बहुत ही महत्वपूर्ण सामाजिक मुद्दा था। गांधी जी लिखते हैं कि हमारी जरूरत के हिसाब से प्रकृति ने निःशुल्क पर्याप्त हवा और पानी दिया है, लेकिन आधुनिक सभ्यता ने इसकी कीमत निर्धारित कर दिया। दुनिया को ग्लोबल वार्मिंग से बचने के लिए हमें कम उपयोग, ज्यादा साझेदारी और सरल जीवन को अपनाना होगा। सामूहिक प्रयास करने होंगे।


                                        - डॉ नन्दकिशोर साह



हाॅरर शो : फूड पैकेट में मेढ़क, आइस्क्रीम में कटी अंगुली, पिज्जा में कीड़ा-काक्रोच और पानी की बोतल में छिपकली

देश में पिछले कुछ दिनों से लोगों के स्वास्थ्य को खतरे में डालने वाली घटनाएं घट रही हैं। देश में बड़ीबड़ी ब्रांडेड कंपनियों और रेस्टोरेंट द्वारा दिए जाने वाले फूड पैकेट्स में हानिकारक जीवजंतु और चीजवस्तु मिल रही हैं। गुजरात में एक फूड पैकेट में मरे कीड़े-मकोड़े निकले थे तो एक फूड पैकेट में मरा हुआ मेढ़क निकला था। एक आइस्क्रीम में कटी हुई अंगुली निकली थी। देश के अन्य हिस्सों में भी यही सिलसिला चल रहा है। मशहूर कंपनियों द्वारा देश में बेची जाने वाली खानेपीने की चीजवस्तुओं में कीड़ा, मेढ़क और काक्रोच मिल रहे हैं। विमान के अंदर, परोसे जाने वाले भोजन में इस तरह की हानिकारक और जानलेवा चीजवस्तुएं मिल रही हैं। परिस्थिति इतनी बेकाबू हो चुकी है कि एक ही महीने के पंद्रह दिनों में ये सारी घटनाएं घटी हैं।





6 जून को असम के खाजली जिले में एक जानीमानी कंपनी के फूड पैकेट से कीड़ा मिला। 10 जून को एक विमान बेंगलुरु से अमेरिका के सेन फ्रांसिस्को जा रहा था। उस विमान में परोसे जाने वाले खाने ब्लेड निकली। इस घटना के बाद उस अंतरराष्ट्रीय विमान सर्विस ने अपनी गलती स्वीकार करते हुए माफी मांगी।

13 जून को मुंबई के एक डाक्टर ने ऑनलाइन आर्डर कर के आइस्क्रीम मंगाई और उसने आइस्क्रीम खाना शुरू किया। उसे उसका स्वाद विचित्र लगा। मुंह से आइस्क्रीम बाहर निकाल कर देखा तो वह अंजीर या कोई फ्रूट नहीं था। वह कटी हुई अंगुली थी। यह देख कर डाक्टर के होश उड़ गए।

15 जून को नोएडा में रहने वाली एक महिला ने एक जानीमानी कंपनी की आइस्क्रीम मंगाई। उसमें कनखजूरा निकला।

18 जून को भोपाल से आगरा जा रही ट्रेन में एक मुसाफिर ने ट्रेन की भोजन व्यवस्था से भोजन मंगाया। उस रेलवे कैटरिंग सर्विस द्वारा दिए गए भोजन से काक्रोच निकला। मुसाफिर ने उस काक्रोच का फोटो सोशल मीडिया पर वायरल कर दिया।

18 जून गुजरात के जामनगर की एक युवती ने एक प्रसिद्ध कान्फेक्शनरी कंपनी द्वारा निर्मित चौकलेट सीरप मंगाया और उसे पीते ही युवती बेहोश हो गई। जब उस बोतल को खोल कर देखा गया तो उसमें बाल और एक मरी हुई चुहिया मिली।

ये कुछ उदाहरण हैं। अन्य कुछ मामलों में ब्रांडेड कंपनी की पानी की बोतल से मरे हुए जीवजंतु निकले हैं। लोग रेलवे से यात्रा करते हैं तो प्लेटफौर्म से पानी की बोतल खरीदते हैं। उनमें तमाम बोतलें तो नकली होती हैं। इसका मतलब जानीमानी कंपनी के नाम से बिकने वाली पानी की वे बोतलें नकली होती हैं। भारत में अब खास कर शहरों के परिवारों में ऑनलाइन फूड मंगाने का क्रेज बढ़ा है। इसमें तमाम मामलों में जीवजंतु मिलने की घटनाएं अचानक बढ़ी हैं। ये घटनाएं उपभोक्ताओं के स्वास्थ्य और सुरक्षा के लिए खतरा पैदा कर रही हैं। इन घटनाओं को रोकने के लिए खाद्यसुरक्षा प्रोटोकाल की व्यापक समीक्षा करने की जरूरत है। इन खाद्यपदार्थों के उत्पादों के निर्माण और पैकेजिंग के मापदंडों पर गंभीर सवाल उठ रहे हैं। लोगों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ करने वालों के साथ सख्त कार्रवाई की जरूरत है।

अब रेलवे स्टेशनों, बस स्टेशनों या बाजार में मिलने वाली पानी की बोतलों की बात करते हैं। आज से 50-60 साल पहले देश के लोग कहीं जाते थे तो पानी की सुराही, कूलकेग आदि साथ ले जाते थे। अब यह परंपरा आउट आफ डेट हो गई है। लोग पानी की बोतल खरीद लेते हैं। पानी की बोतलें प्लास्टिक की होती हैं। इसमें पानी भरने के पहले और बाद में विक्रेता सैकड़ों की संख्या में पानी की बोतलें गोडाउन या बाहर धूप में घंटों रखे रहते हैं। प्लास्टिक में हजारों तरह के रसायन होते हैं। इन बोतलों को 40 या 45 डिग्री की धूप में रखने पर बोतलों के प्लास्टिक का खतरनाक रसायन पानी में मिलता है, जो स्वास्थ्य के लिए बड़ा खतरा है। यह जो रसायन पानी के साथ शरीर में जाता है, वह कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी पैदा करता है। इसके अलावा तमाम लोग अनेक बीमारियों का शिकार होते हैं। इतना ही नहीं, कुछ लोग ब्रांडेड कंपनी के नाम की लेबल नकली बोतलों पर लगा कर असली बोतलों में मिला कर बेच देते हैं।

अब बात करते हैं दूध की। एक समय दूध वाला घरघर दूध देता था। अब दूध वितरक प्लास्टिक की थैली में दूध भर कर बेचते हैं। कुछ बदमाश यूरिया के मिश्रण का नकली दूध प्लास्टिक की थैली में भर कर विक्रेताओं को देते हैं। यह यूरिया वाला दूध मानव के लिए बहुत बड़ा खतरा बन चुका है। ऐसा ही पनीर के साथ भी है। वैसे तो पनीर दूध से बनती है। परंतु बहुत लोग नकली पनीर भी बनाते हैं। नकली पनीर बनाने वालों को पकड़ने के मामले अक्सर जानकारी में आते रहते हैं। बहुत से लोग घी खाने के शौकीन होते हैं। पर बहुत लोगों को पता नहीं है कि कुछ लोग आलू को उबाल कर नकली घी बनाते हैं। इस घी को खाकर भी लोग बीमार होते हैं।

ऐसा ही मसाले में भी है। भारतीय व्यंजनों में नमक, मिर्च, हल्दी, लौंग जैसी चीजों द्वारा स्वादिष्ट भोजन बनाया जाता है। पर दूसरा सत्य यह भी है कि मिर्च का पाउडर भी बनावटी होता है और पिसी मिर्च में खतरनाक लाल रंग मिला कर मिर्च चटक लाल बनाया जाता है। मिर्च में मिलाए गए लाल रंग में भी खतरनाक रसायन होता है, जो मानव स्वास्थ्य के लिए खतरनाक होता है। एक समय था, जब महिलाएं लाल मिर्च खरीद कर लाती थीं और घर में कूटती थीं। अब वह जमाना गया। 90 प्रतिशत महिलाएं बाजार से पिसी मिर्च खरीद कर लाती हैं और उसे घर वालों को खिला कर पूरे परिवार के स्वास्थ्य को खतरे में डालती हैं।

यूरोप या अमेरिका जैसे देशों में खाद्यपदार्थों में मिलावट या नकली चीजे तैयार करना गंभीर अपराध माना जाता है। लोगों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ करने वालों को सख्त सजा दी जाती है। भारत जैसे विशाल देश में भी वैसी ही सख्ती की जरूरत है। खाद्यपदार्थों में मिलावट करने वालों या बनावटी दूध या पनीर बनाने और बेचने वालों के लिए सख्त से सख्त सजा की व्यवस्था होनी चाहिए।

अंत में करते हैं नकली शराब की बात। ऐसे भी तमाम लोग हैं, स्काॅच या प्रसिद्ध व्हिस्की का लेबल बोतल पर चिपका कर सस्ती शराब बेचते हैं। एक व्यक्ति ने मजाक में कहा था कि स्काॅटलैंड में बनने वाली स्काॅच व्हिस्की भारत में अधिक बिकती है। मतलब साफ है कि लोग भारत में नकली स्काॅच व्हिस्की बेचते हैं। जबकि शराब पीना ही मानव स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है। एक समय मुंबई के उल्हासनगर में जानेमाने ब्रांड की तमाम नकली चीजें और खाद्यपदार्थ बनता था। पर अब उल्हासनगर में ऐसा नहीं है।


                                                  - वीरेंद्र बहादुर सिंह


रक्षा बंधन: भाई-बहन के प्रेम का प्रतीक

भारत एक ऐसा देश है जहाँ हर त्यौहार की अपनी विशेषता और महत्ता होती है। इन्हीं त्योहारों में से एक है 'रक्षाबंधन', जो भाई-बहन के प्रेम और सुरक्षा का प्रतीक माना जाता है। यह त्योहार भारतीय संस्कृति में बहुत महत्व रखता है और इसे पूरे देश में बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। रक्षाबंधन का यह पर्व न केवल भारत में, बल्कि भारतीय समुदायों द्वारा दुनिया के अन्य हिस्सों में भी मनाया जाता है।





रक्षाबंधन का इतिहास बहुत पुराना है और इसके पीछे कई पौराणिक कथाएँ और कहानियाँ हैं। इनमें से कुछ प्रमुख कथाएँ निम्नलिखित हैं: महाभारत के समय की एक कहानी है कि जब श्रीकृष्ण ने शिशुपाल का वध किया था, तब उनके हाथ में चोट लग गई थी। द्रौपदी ने तुरंत अपने साड़ी के पल्लू को फाड़कर उनकी कलाई पर बांध दिया था। इसके बदले में श्रीकृष्ण ने द्रौपदी की रक्षा का वचन दिया था। इस घटना ने राखी के महत्व को और भी बढ़ा दिया, क्योंकि यह न केवल एक धागा है, बल्कि सुरक्षा का प्रतीक भी है।

   एक अन्य कहानी के अनुसार, जब देवताओं और दानवों के बीच युद्ध हो रहा था, तब देवताओं के राजा इंद्र को बहुत कठिनाई का सामना करना पड़ा। उनकी पत्नी इंद्राणी ने एक रक्षासूत्र तैयार किया और इसे इंद्र के कलाई पर बांध दिया, जिससे उन्हें युद्ध में विजय प्राप्त हुई। यह घटना इस बात का प्रतीक है कि राखी केवल भाई-बहन के बीच का बंधन नहीं है, बल्कि यह सुरक्षा और विजय का प्रतीक भी है।

   एक अन्य कहानी में विष्णु पुराण के अनुसार, भगवान विष्णु ने अपने भक्त राजा बलि को वचन दिया था कि वे उसकी रक्षा करेंगे। इसके परिणामस्वरूप, लक्ष्मीजी ने राजा बलि को अपना भाई बना लिया और उसे राखी बांधकर भगवान विष्णु को वापस ले आईं। इस कथा से यह स्पष्ट होता है कि राखी केवल रिश्तों का बंधन नहीं है, बल्कि यह ईश्वर और भक्त के बीच के संबंधों को भी मजबूत करता है।

रक्षाबंधन का अर्थ है "रक्षा का बंधन"। इस दिन बहनें अपने भाइयों की कलाई पर राखी बांधती हैं और उनकी लंबी उम्र और खुशहाली की कामना करती हैं। इसके बदले में भाई अपनी बहनों को उपहार देते हैं और जीवन भर उनकी रक्षा करने का वचन देते हैं। यह त्योहार भाई-बहन के बीच विश्वास, प्रेम और सुरक्षा की भावना को बढ़ावा देता है। रक्षाबंधन का आध्यात्मिक महत्त्व भी बहुत बड़ा है। यह त्योहार हमें यह सिखाता है कि जीवन में सुरक्षा और रक्षा का कितना महत्व है। यह हमें आत्म-बलिदान, निःस्वार्थ प्रेम और सेवा का महत्व समझाता है।

रक्षाबंधन का सामाजिक महत्त्व भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह त्योहार समाज में एकता और सहयोग की भावना को बढ़ावा देता है। यह समाज में प्रेम, सुरक्षा और सहयोग की भावना को मजबूत करता है तथा मान मर्यादा में रहते हुए रिश्तों के महत्व पर भी बल देता है।

रक्षाबंधन के दिन कई विशेष परंपराएं निभाई जाती हैं। सुबह से ही बहनें पूजा की थाली सजाती हैं जिसमें राखी, चावल, रोली और दीपक होते हैं। भाई की कलाई पर राखी बांधते समय बहनें तिलक करती हैं और मिठाई खिलाती हैं। यह प्रक्रिया बहुत पवित्र और धार्मिक होती है और इसे पूरे विधि-विधान के साथ शुभ मुहूर्त में ही किया जाता है। भाई अपनी बहन को अपनी सामर्थ्य के अनुसार उपहार देते हैं और जीवन भर उसकी रक्षा करने का वचन देते हैं। 

यह वचन भाई-बहन के रिश्ते को और भी मजबूत बनाता है। उपहारों में अक्सर मिठाई, कपड़े, गहने आदि शामिल होते हैं लेकिन कुछ अमीर लोग बड़े बड़े उपहार भी देते हैं।  इस दिन परिवार के सभी सदस्य एकत्र होते हैं और मिलकर भोजन करते हैं। यह समय परिवार के सदस्यों के बीच प्रेम और सामंजस्य को बढ़ाता है। आजकल तो विभिन प्रकार की राखियां अलग अलग कीमतों में बाजार में उपलब्ध रहती हैं लेकिन पहले केवल पुरोहित द्वारा हाथ से रुई व धागे से बनाई गई तथा खुद बनाये गए रंगों से रंगी गई राखियां पुरोहित द्वारा अपने यजमानों के घर पहुंचाई जाती थी।आज उन राखियों को कोई नहीं पहनता है तथा बाजार में आई नए नए डिज़ाइनों की राखियों को ही पसंद किया जाता है। रक्षाबंधन का यह पर्व पूरे परिवार को एक साथ लाता है और परिवार के सदस्यों के बीच संबंधों को मजबूत करता है।

   रक्षाबंधन का पर्व भारत की विविधता और सांस्कृतिक धरोहर को भी प्रदर्शित करता है। विभिन्न राज्यों और समुदायों में इसे मनाने के तरीकों में भिन्नता होती है, लेकिन मूल भावना हमेशा एक ही रहती है। आधुनिक समय में रक्षाबंधन के त्योहार ने कई नए रूप और रीतियाँ अपना ली हैं। अब यह केवल भाई-बहन के बीच ही नहीं, बल्कि मित्रों, सहकर्मियों और यहां तक कि समाज के विभिन्न वर्गों के बीच भी मनाया जाने लगा है। राखी अब ऑनलाइन भेजी जा सकती है, जिससे दूर-दराज के भाई-बहनों को भी जोड़ा जा सकता है।

आज के डिजिटल युग में, राखी ऑनलाइन भेजना बहुत ही आसान हो गया है। विभिन्न ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म और वेबसाइट्स के माध्यम से राखी और उपहार ऑनलाइन ऑर्डर किए जा सकते हैं और सीधे भाइयों के घर पर भेजे जा सकते हैं। यह सुविधा विशेष रूप से उन लोगों के लिए लाभदायक है जो अपने भाई-बहनों से दूर रहते हैं तथा जिनका इस विशेष त्योहार पर एक दूसरे के पास पहुंचना सम्भव नहीं हो पाता।

समाज में बदलाव के साथ, रक्षाबंधन का स्वरूप भी बदल रहा है। आजकल, न केवल भाई-बहन, बल्कि मित्र और सहकर्मी भी एक-दूसरे को राखी बांधते हैं और अपनी सुरक्षा और सहयोग का वचन देते हैं। इससे रक्षाबंधन का त्योहार और भी व्यापक हो गया है और यह समाज के सभी वर्गों में स्वीकार किया जा रहा है।

रक्षाबंधन का त्योहार सामाजिक दृष्टिकोण से भी बहुत महत्वपूर्ण है। यह त्योहार हमें भाईचारे, प्रेम और सहयोग की भावना सिखाता है। रक्षाबंधन के दिन समाज के विभिन्न वर्गों में एकता और सद्भावना का माहौल बनता है।सभी लोग आपस में मिलते हैं तथा एक दूसरे को बधाई व शुभकामनाएं देते हैं। रक्षाबंधन का पर्व समाज में एकता और सद्भावना का प्रतीक है। यह त्योहार हमें सिखाता है कि भले ही हम विभिन्न जातियों, धर्मों और समुदायों से हों, लेकिन प्रेम और सुरक्षा का बंधन हमें एकजुट करता है।

रक्षाबंधन का त्योहार महिला सशक्तिकरण का भी प्रतीक है। यह त्योहार महिलाओं को अपनी सुरक्षा और सम्मान के प्रति जागरूक करता है और उन्हें आत्मनिर्भर और सशक्त बनने के लिए प्रेरित करता है। रक्षाबंधन का त्योहार न केवल धार्मिक और सामाजिक महत्व रखता है, बल्कि इसका मनोवैज्ञानिक पहलू भी है। यह त्योहार भाई-बहन के बीच विश्वास, प्रेम और सुरक्षा की भावना को बढ़ाता है। रक्षाबंधन का पर्व मानसिक संतुलन और सुरक्षा का प्रतीक है। यह त्योहार हमें यह सिखाता है कि जीवन में सुरक्षा और समर्थन कितना महत्वपूर्ण है। यह हमें मानसिक रूप से मजबूत और स्थिर बनाता है। रक्षाबंधन का त्योहार आत्मीयता और विश्वास का प्रतीक है। यह त्योहार भाई-बहन के बीच विश्वास और आत्मीयता को बढ़ावा देता है और उन्हें एक-दूसरे के प्रति समर्पित और जिम्मेदार बनाता है।

रक्षाबंधन एक ऐसा पर्व है जो भारतीय संस्कृति और परंपराओं का अभिन्न हिस्सा है। यह त्योहार भाई-बहन के रिश्ते को और भी मजबूत और गहरा बनाता है। यह हमें प्रेम, स्नेह और सुरक्षा का महत्व सिखाता है। इस पवित्र पर्व का महत्व समय के साथ और भी बढ़ता जा रहा है और यह आने वाले पीढ़ियों के लिए एक प्रेरणा का स्रोत बना रहेगा। रक्षाबंधन का यह पर्व हमें यह याद दिलाता है कि प्रेम और सुरक्षा का बंधन ही सच्ची खुशी और समृद्धि का आधार है। इसलिए, इस रक्षाबंधन पर हम सभी को अपने भाई-बहनों के साथ समय बिताकर और उनके साथ अपने प्रेम और सुरक्षा का वचन देकर इस पर्व को मनाना चाहिए।  रक्षाबंधन का यह त्योहार भारतीय संस्कृति, समाज और परिवार के लिए एक महत्वपूर्ण अवसर है। यह त्योहार हमें हमारे रिश्तों की मूल्यवानता और महत्त्व का एहसास कराता है और हमें अपने प्रियजनों के प्रति अपनी जिम्मेदारियों और कर्तव्य का बोध कराता है


                                                - रवींद्र कुमार शर्मा


सावन माह का रुद्राभिषेकः मिटेंगे कष्ट बढ़ेगा विवेक

भारतवर्ष में शिव भगवान के भक्तों के लिए सावन का महीना एक विशेष महत्व रखता है। इस महीने में भगवान शिव की भक्ति का एक विशेष महत्व माना जाता है। जो लोग भगवान भोलेनाथ में अपनी आस्था रखते हैं वह सावन महीने में सच्चे श्रद्धा भाव से भगवान शिव की पूजा अर्चना करते हैं। ऐसी मान्यता है कि इस महीने भगवान शिव की पूजा अर्चना एवं रुद्राभिषेक करने से मनुष्य के सारे कष्ट दूर होते हैं और सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। इसके साथ-साथ ही मनुष्य का विवेक भी बढ़ता है। इस वर्ष 22 जुलाई को सावन का महीना शुरू हो चुका है और और इस बार महीने का पहला दिन ही सोमवार था।




वैसे तो भगवान शिव के मंदिरों में भक्तों की भीड़ पूरा वर्ष देखी जा सकती है और रुद्राभिषेक अभी वक्त करते रहते हैं लेकिन सावन के महीने में किए गए रुद्राभिषेक का अपने आप में एक विशेष महत्व होता है। शिव भक्त पूरे विधि विधान से मंदिर में पूजा अर्चना के साथ भगवान भोलेनाथ का रुद्राभिषेक करते हैं। गौरतलाप है कि रुद्राभिषेक में भगवान भोलेनाथ के रुद्र अवतार की पूजा पूरे विधि विधान से की जाती है। ऐसी मान्यता है कि यह भोलेनाथ का प्रचंड रूप होता है जो कि मनुष्य की सारी बाधाओं और समस्याओं का समाधान करता है। 

जैसे कि रुद्राभिषेक शब्द से विदित होता है कि यह भगवान रुद्र के अभिषेक से संबंधित है तो इसमें भगवान शिव के शिवलिंग को पवित्र स्नान करने के बाद विधिपूर्वक उसकी पूजा अर्चना की जाती है। ऐसा कहा जाता है कि सावन के महीने में रुद्र ही सारी सृष्टि का कामकाज संभालते हैं अतः इस महीने में किए गए रुद्राभिषेक से मनुष्य को मनचाहा फल मिलता है। अगर भारतीय परिदृश्य की बात की जाए तो सावन का महीना एक विशेष महत्व रखता है। हिंदू पंचांग के अनुसार या वर्ष का पांचवा महीना होता है। इस महीने में भगवान भोलेनाथ के भक्तों में जो भक्ति भाव होता है वह अपनी चरम सीमा पर होता है। 

इस महीने में पढ़ने वाले सोमवार को स्त्रियां पुरुष और कुमारी युवतियां व्रत रखते हैं। सावन के महीने में किए गए रुद्राभिषेक से मनुष्य के पाप एवं बुरे कर्मों का नाश होता है और अच्छा फल की प्राप्ति होती है। कहा जाता है कि ब्रह्मा की उत्पत्ति भगवान विष्णु के नाभि से हुई है। जब ब्रह्मा जी को यह पता लगा तो वह इस रहस्य का पता करने के लिए भगवान विष्णु के पास गए और उनके कहने पर ब्रह्मा जी या करने के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं थे कि उनकी उत्पत्ति इस तरह से हुई है इस कारण उनके बीच बहुत जोरदार युद्ध भी हुआ। इस युद्ध के परिणाम स्वरूप भगवान रुद्र अपने लिंग रूप में प्रकट हुए थे और इसी लिंग का जब कोई आदि और अंत का पता ना लगा तो उन दोनों ने अपनी अपनी हार मान ली और इसके परिणाम स्वरूप उन्होंने लिंग का अभिषेक किया। ऐसी मान्यता है कि इसी परंपरा से रुद्राभिषेक का आरंभ हुआ था। 

जो भी मनुष्य सावन के महीने में रुद्राभिषेक करता है उसके परिवार में सुख और शांति का आगमन होता है और सफलता उसके कदम चूमती है। ऐसी भी मानता है कि जो भक्तगण भगवान भोलेनाथ का रुद्राभिषेक दूध से करते हैं उनकी संतान प्राप्ति की इच्छा भी पूरी होती है और अगर शिवलिंग का रुद्राभिषेक दही के साथ किया जाता है तो इससे मनुष्य के समस्त कामों में आ रही सारी अड़चने दूर होती हैं। कुछ लोग रुद्राभिषेक करने के लिए पंचामृत दूध, दहीं, घी, गंगाजल और शहद का प्रयोग भी करते हैं जिससे कि भगवान शिव की विशेष कृपा की प्राप्ति होती है। 

सावन महीने में भगवान भोलेनाथ के मंदिरों में भक्तों की भीड़ लगी रहती है एवं सारे महीने में माहौल भक्तिमय होता है। इसी महीने पवित्र अमरनाथ यात्रा भी शुरू होती है। इसके साथ-साथ ही रक्षाबंधन, नाग पंचमी, हरियाली तीज इत्यादि त्योहार भी सावन महीने में ही मनाया जाते हैं । कई मंदिरों में उनके भक्त शिवलिंग के ऊपर गंगाजल के साथ-साथ बिल्व पत्र और भांग घोटकर भी चढ़ाते हैं । इसके अलावा आक ,चंदन, कलावा, रोली, चावल ,फल फूल, नावेद, धतूरा, पान, सुपारी, लौंग, इलायची, धूप इत्यादि का इस्तेमाल रुद्राभिषेक करने में करते हैं। ऐसी मान्यता है कि सावन के महीने में शिवलिंग के ऊपर बिल्वपत्र चढ़ाने से तीन जन्मों तक के पापों का विनाश होता है और एक अखंड बिल्वपत्र चढ़ाने से हजार बिल्वपत्र के बराबर फल की प्राप्ति होती है। 

सावन महीने में कांवड़िए विभिन्न नदियों से इकट्ठे किए गए जल से शिवलिंग का अभिषेक करते हैं जिससे कि भगवान शिव विशेष रूप से प्रसन्न होते हैं। अगर बात ऐसी शिव पुराण की की जाए तो उसमें हमको यह उल्लेख मिलता है कि भगवान भोलेनाथ ही स्वयं जल है इसलिए इस महीने में शिवलिंग पर जलाभिषेक करने का अपना एक विशेष महत्व रहता है। एक कथा के अनुसार जब देवताओं और असुरों में जबरदस्त युद्ध हुआ और समुद्र मंथन हुआ तो वहां पर विष निकला उसे विष को भगवान शंकर ने पूरी सृष्टि की रक्षा के लिए अपने कंठ में समाहित कर लिया था जिसके कारण भगवान भोलेनाथ का कंठ नीला हो गया था इसी कारण भगवान भोलेनाथ को नीलकंठ महादेव भी कहा जाता है। 

भगवान शंकर के कंठ का रंग नीला देखकर सारे देवी देवता भाई के मारे डर गए थे और उन्होंने इस विश्व के प्रभाव को कम करने के लिए जल का अर्पण किया था। इसी मान्यता के कारण आज भी जो भक्त भगवान शिव को सावन के महीने में जल अर्पित करते हैं उनको एक विशेष फल प्राप्त होता है और सब कष्टों से मुक्ति मिलती है। इसलिए ही कहते हैं कि सावन महीने में किए गए रुद्राभिषेक का अपने आप में एक विशेष महत्व होता है। रुद्राभिषेक करते समय सबसे पहले जल हरि के दाहिनी तरफ जल चढ़ाया जाता है जिसको की गणेश भगवान का प्रतीक माना जाता है और उसके बाद बाईं तरफ जल चढ़ाया जाता है जीने की भगवान कार्तिकेय का रूप माना जाता है। 

ऐसा कहा जाता है की शिवलिंग ऊपर हमेशा बैठकर ही जलाभिषेक करना चाहिए और जहां तक संभव हो सके तो तांबे के बर्तन का उपयोग करना चाहिए। विशेष ध्यान देने वाली बात यह है कि जब भी शिवलिंग पर जलाभिषेक करें तो जल की धारा हमेशा उत्तर की ओर ही प्रवाहित होनी चाहिए और वक्त को दक्षिण दिशा की ओर रहना चाहिए और मुख उत्तर की ओर होना चाहिए।


                               - डॉक्टर जय महलवाल 'अनजान'


02 August 2024

पानी में डूबने के कारण एवं बचने के उपाय



         बरसात में देश के विभिन्न क्षेत्रों में नदी, नहर, कुआँ, तालाब, गहरे गड्डे, झील, पोखर, जल प्रपात आदि जलाशयों में स्नान करने, जानवर नहलाने या कपड़े धोने जैसे रोज़मर्रे के काम के दौरान विभिन्न कारणों से अनजाने में बच्चों, किशोर-किशोरियों तथा वयस्क व्यक्तियों की डूबने से मृत्यु होती रहती है। सावधानी, सतर्कता एवं जागरूकता के द्वारा इस अमूल्य जीवन को नष्ट होने से बचाया जा सकता है। 

        खतरों की उपेक्षा या कमतर आंकना या गलत जानकारी, सही व सटीक जानकारियों के बिना नहर में जाना, निगरानी एवं पर्यवेक्षण की कमी, तैराकी का अभाव, कम उम्र के बच्चों को अभिभावकों द्वारा नदियों एवं तालाबों में नहाने के लिए अकेले छोड़ देना, पानी में डूबते व्यक्ति को बचाने हेतु बिना तैयारी और अनुभव के पानी में कूद पड़ना आदि डूबने से होने वाली मौतों के प्रमुख कारण है ।




             अगर आप भली प्रकार तैरना जानते हों और साथ ही साथ डूबते को पानी से बाहर लाने की कला जानते हों तब ही आप किसी को बचाने के लिए पानी में जाये अन्यथा आपके जीवन को भी खतरा हो सकता है। यदि आप के निकट पानी में कोई डूब रहा है तो आप उसे बचाने के लिए पानी के बाहर से जो भी उपलब्ध साधन जैसे बांस का टुकड़ा, रस्सी, कोई लंबा कपड़ा जैसे साड़ी, धोती बाहर से फेंक कर डूबते हुये व्यक्ति को पकड़ने को कहें और उसे धीरे-धीरे बाहर खींच कर लाएँ।

  किसी को डूबता देखकर मदद के लिए शोर मचाएँ, जिससे आस-पास के सक्षम लोग मदद कर सकें। डूबे हुये या डूबते हुये व्यक्ति को पानी से बाहर निकालने पर देखें कि वह व्यक्ति होश में है या नहीं। होश में रहने पर उससे सामान्य तरह से बात कर ढाढस बधाएँ, उसके नाक, मुह को देखें कि कुछ फंसा तो नहीं है, यदि है तो उसे निकालें और स्वच्छ पानी से साफ करें। प्रभावित व्यक्ति खाँसने, बोलने या सांस ले सकने कि स्थिति में है तो उसे ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित करें।

        यदि प्रभावित व्यक्ति का पेट फूला हुआ है तो पूरी संभावना है कि उसने पानी पी लिया होगा। अतः पेट से पानी निकालने के लिए अगर कोई स्वयं सेवक प्रशिक्षित है तो उसकी मदद लें अन्यथा नजदीकी चिकित्सक को बुलायें या सुविधानुसार प्रभावित व्यक्ति को अविलम्ब नजदीकी चिकित्सालय ले जायें। चिकित्सालय ले जाने के लिए जो भी साधन मौके पर उपलब्ध हो उसका प्रयोग करें अन्यथा 102/108 पर फोन कर एंबुलेंस बुला लें ।

        ‌स्नान करने के घाटों पर सुरक्षा उपकरण जैसे-लंबी व मजबूत रस्सी, बांस के लंबे टुकड़े, हवा भरे गाड़ियों के ट्यूब, लाइफबाय आदि सामग्रियों को रखें, जो आकस्मिक समय पर काम आयेंगी। तेज धार या उफनायी हुयी नदी, नहर, नाले, तालाब आदि में स्वयं एवं अपने स्वजनों को जाने से रोकें। बच्चों को पुल, पुलिया, ऊँचे टीलों से पानी में कूद कर स्नान करने से रोकें। नदी या जल निकाय के किनारों पर जाना और स्नान करना, यदि अति आवश्यक हो तो पानी में उतरते समय गहराई का ध्यान रखें।यदि उस स्थान या घाट के आस-पास कोई सलाह या दिशा-निर्देश लिखें हों तो उनका पालन करें। 

भली प्रकार तैरना जानते हों तभी पानी में उतरें या स्नान करें, अन्यथा स्थानीय प्रशासन द्वारा बताये गए स्नान करने के चिह्नित घाटों पर ही स्नान करें।  एक साथ परिवार के कई लोग नदी या अन्य घाटों पर स्नान न करें। बच्चों को यदि स्नान करना हो तो बड़ों की कुशल देखरेख में ही स्नान करने दें। कोशिश करें किसी नदी या जल निकाय में सामूहिक रूप से स्नान करने जाते समय साथ में 10-15 मीटर लंबी रस्सी या धोती या साड़ी अवश्य रखें।

           नदियों, नहरों, जलाशयों या अन्य जल निकायों के पास लिखी हुयी चेतावनी की अवहेलना न करें। छोटे बच्चों को घाटों, जल निकायों के समीप न जाने दें। एकदम से अनजान एवं सुनसान नदियों, नहरों, तालाबों के घाटों पर स्नान करने न जायें। किसी के उकसावे या बहकावे में आकार पानी में छलांग न लगायें। नदियों, नहरों या अन्य जल निकायों के घाट के किनारों पर पारंपरिक, धार्मिक, सामाजिक रीति-रिवाजों, अनुष्ठान, संस्कारों का निर्वहन करते समय किसी भी तरह की असावधानी न बरतें। 

जलासयों में कोई तैरती वस्तु या अन्य आकर्षक फूल इत्यादि के लालच में पड़कर उसे छूने, पकड़ने, तोड़ने न जायें। ऐसा करना जानलेवा हो सकता है। तैरना सीखने के लिए अकेले पानी में न जायें, किसी कुशल प्रशिक्षक या तैराक की देखरेख में ही तैराकी सीखें। तैरते या पानी में स्नान करते समय स्टंट न करें या सेल्फी आदि न लें, ऐसा करना जानलेवा हो सकता है।


                                                  - डॉ. नन्दकिशोर साह 


कविता- धैर्य




जीवन में अनेक अनुभवों से मिलवाता है धैर्य,
परिवार, मित्रता,रिश्तों के सानिध्य मिलता है धैर्य,
आचरण, सफलता, हौसला ईनाम देता है धैर्य,
विषम परिस्थितियों में हालात संभाल मनोबल देता है धैर्य,
संपन्नता शांति का प्रतिक है धैर्य,
युगों से प्रचलन में परिक्षाओं का आकाश है धैर्य,
भगवन राम के इंतजार में सीता का विश्वास है धैर्य,
रणभूमि से लौटा विजय का माथे पर तिलक है धैर्य,
शहिदों की अविस्मरणीय शौर्य गाथाओं में छिपा है धैर्य,
कुटुंब के एकजुट रहने का संकल्प है धैर्य,
नौ माह गर्भावस्था से प्रसव पीड़ा तक का सफर है धैर्य,
मां पिता की जिम्मेदारियों का परिचायक है धैर्य,
प्रेमियों के हृदय में खिलने वाला मधुर आंनद है धैर्य,
पथिक की राहों में शूल है धैर्य,
विकलांगता का साहस बन खड़ा है धैर्य,
सियाचिन में तैनात फौजियों की जोखिमता है धैर्य,
अंतरिक्ष यात्रियों का अंजान तथ्य की खोज में है धैर्य,
मंदिर मस्जिद दरगाहों की कतारों में है धैर्य,
पीर फकीर हकीम की दुआओं दवाओं में है धैर्य,
कैलाश पर्वत की यात्रा की कठिनाइयों में है धैर्य,
बीज से फसल की प्रतिक्षा किसानों की आखों में दर्शाता संघर्ष है धैर्य,
तो फिर घबराना क्यों जब
धैर्य युगों से इतिहास में है,
धैर्य का दल अटूट विश्वास में है,
धैर्य दिव्य शक्ति आतंरिक अहसास में है,
धैर्य युक्ति शरीर के श्वास में है,
धैर्य का सर्वश्रेष्ठ कवच पास में है।


                                                                 - अंशिता त्रिपाठी



कविता- गाय के मुख से





मत  बांटो  मुझे
हिन्दू - मुस्लिम  में
मैं  सारी  मानव जाति की पोषक हूँ।

मुझ से सभी स्नेह रखते हैं
आदि काल से आज तक
मैंने जाति - धर्म का दामन नही थामा।

अब तो सब सभ्य कहलाते हो
मुझे माता कह पुकारते हो
हाँ , मुझ पर पहली कक्षा से ही
 लेख लिखते आए हो।

तुम ,तथाकथित लोगों ने
मुझे हाइजैक कर
राज की पगडण्डी का एक हथियार बना
राजनैतिक पक्ष  को मजबूत करने का साधन बना
लिया है ।

मेरे नाम से चन्दे वसूल ने
गौ रक्षक - सेवादार का ढोंग 
मैं बहुत दुखी हूँ
समाज व देश में मेरा नाम ले जहर क्यों फैला रहे हैं।

जबकि मैं और मेरे वंशज दर-दर
भटकते हुए प्रताड़ना झेल जीवन जी रहे हैं
हम आवारा बेसहारा भटकते हैं
हमारे नाम से गो- शालाएं चलती है।

सरकार व् लोग गाय के नाम का पैसा खुर्द बुर्द कर जाते हैं
मैं व मेरे वंशज गन्दगी में मुहँ मारते 
कचरा पॉलीथिन खाते 
गली-गली में भटक आप लोगों के डंडे खा-खा...

मुझे  सम्मान देने वालों , मुझे व् मेरे वंशज को
घरों-खेतों में आश्रय दो
दूध दुह लेने के बाद घर से बाहर
मार खाने क्यों निकालते हो।

कहाँ गयी ओरण -चरागाह
कहाँ है घास - ग्वार- व् पौष्टिक चारा
मेरे बछड़े व् गोधो की बड़ी दयनीय हालत है जरा सोचो।

मैं पूजनीय हूँ
मैं गाय माता कहलाती हूँ
मुझे माता मानते हो तो मुझे
जाति-धर्म मे बांट ,रुसवा न करो।

मैं सबकी हूँ
क्योंकि मैं सारी धरती को
अपना घर मानती हूँ ।
       

                                                           - नाचीज़ बीकानेरी