अनादि काल से ही गढ़वाल की भूमि ज्ञानियों, विद्वानों और वीरों की जन्मभूमि और कर्मभूमि रही है। इन भागों में हर विधा के सिद्ध हस्त जन्म ले चुके हैं। स्कंदपुराण में इसे केदार खंड के रूप में वर्णित किया गया है। कालांतर में इस मध्य भाग को गढ़वाल के नाम से जाना जाने लगा। लघु हिमालय के यह भाग प्रशासनिक रूप से ब्रिटिश काल के दौरान ढांगू पट्टी के नाम से जाना जाता था, भौगोलिक रूप से यह क्षेत्र दक्षिण पश्चिमी गढ़वाल में आता है। ढांगू पट्टी को तल्ला, मल्ला और बिछला तीन भागों में बांटा गया था। वर्तमान में यह द्वारीखाल विकासखंड के अंतर्गत आता है। द्वारीखाल ब्लॉक ढांगू मल्ला के अंतर्गत जसपुर नाम से एक गांव है। किसी वक्त इस गांव को गढ़वाल की काशी के नाम से जाना जाता था, यह गांव विद्वानों और प्रबुद्ध व्यक्तियों की जन्मस्थली और कर्मस्थली रही है। (हालांकि गढ़वाल की काशी कुछ अन्य गांवों को भी कहा जाता रहा है, जो गांव शिक्षा दीक्षा में अव्वल रहे उन्हें यह उपाधि मिली)।
जसपुर गांव के साथ हमारे गांव (झैड़, बलोगी) का रोटी बेटी का संबंध हैं। साथ ही हमारे कुल गुरु बहुगुणा भी इसी गांव के निवासी हैं। माना जाता है की कुकरेती लोग सर्वप्रथम गढ़वाल में जसपुर आकर ही बसे, उसके उपरांत समय समय पर अन्य जगह स्थानांतरित होते गए। जसपुर गांव में 02 अप्रैल सन 1952 को श्री कलीराम कुकरेती जी के यहां पुत्र का जन्म हुआ, जिसका नाम कलीराम जी ने भीष्म रखा। भीष्म की माता का नाम श्रीमती दमयंती डबराल कुकरेती था। श्री कलीराम जी रोजगार वस भारत की वाणिज्यिक राजधानी बंबई (अब मुंबई) में नौकरी करते थे। अतः बालक भीष्म की रहन-सहन और देखभाल का जिम्मा उनकी माता ने ही उठाया। भीष्म की प्राथमिक शिक्षा राजकीय प्राथमिक विद्यालय टकांण (बड़ेथ ढांगू) में हुई। राजकीय प्राथमिक विद्यालय टकांण (बड़ेथ ढांगू) ढांगू सहित आसपास की पट्टियों का प्रथम प्राथमिक विद्यालय था। इस विद्यालय में किसी वक्त छात्रावास भी था। प्राथमिक विद्यालय होने के कारण आसपास के गांवों में शिक्षा को बल मिला। यह विद्यालय 1880 के दशक में बना है। भीष्म ने कक्षा 5 उत्तीर्ण कर माध्यमिक शिक्षा के लिए सिलोगी विद्यालय में एडमिशन लिया। सिलोगी विद्यालय संत सदानंद जी द्वारा सन 1926 में स्थापित किया गया था।
सिलोगी से आठवीं कक्षा पास करने के बाद वह कक्षा 9 से 12वीं तक लक्ष्मण विद्यालय देहरादून में पढ़े। भीष्म प्रारंभ से ही विलक्षण प्रतिभा के छात्र थे। भीष्म बताते हैं कि कक्षा 5 में ही उन्होंने भगवत गीता, सत्यार्थ प्रकाश और ओमप्रकाश जी की जासूसी नोबल को पढ़ाना शुरू कर दिया था या यूं कहें पढ़ लिए थे। कक्षा में प्रथम आना शायद उन्हें सबसे ज्यादा पसंद था। प्रारंभिक शिक्षा से स्नातकोत्तर तक वे एक प्रखर छात्र रहे। लक्ष्मण विद्यालय से इंटरमीडिएट करने के उपरांत उन्होंने स्नातक में बीएससी ऑनर्स वनस्पति विज्ञान से उत्तीर्ण की। उन्होंने श्री गुरु राम राय पीजी कॉलेज से यह परीक्षा उत्तीर्ण की। तब यह कॉलेज मेरठ विश्वविद्यालय के अंतर्गत आता था वह बताते हैं कि मेरठ यूनिवर्सिटी से बीएससी ऑनर्स करने वाले वह इस महाविद्यालय के प्रथम छात्र थे। इसके बाद उन्होंने डीएवी पीजी कॉलेज से एमएससी वनस्पति विज्ञान (बॉटनी) की परीक्षा उत्तीर्ण की। मेरे बीएससी के रसायन विज्ञान प्रोफेसर डॉक्टर संतोष डबराल जी भीष्म कुकरेती जी के सहपाठी थे, हालांकि विषय अलग रहे। भीष्म जी उच्च शिक्षा लेने का मूल उद्देश्य अध्यापन और रिसर्च के क्षेत्र मे सेवा करना रहा था वह बताते हैं कि उनका बचपन का सपना था कि वह एक प्रोफेसर के रूप में सेवा दे, लेकिन होता वही है जो भगवान को मंजूर होता है।
वह स्नातकोत्तर परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद मुंबई गए, जहां उनके पिता जी का ट्रांसपोर्ट का व्यापार था। भीष्म कुकरेती जी द्वारा मुंबई जाना एक संयोग ही था। उस समय उनकी छोटी बहन की शादी मुंबई में होनी थी वह इस कारण मुंबई गए, किंतु उनका मुंबई में ही रह जाना और वही अपना संपूर्ण जीवन बिताना भगवान को शायद यही मंजूर रहा होगा। भीष्म कुकरेती जी द्वारा सेल्स और मार्केटिंग लाइन में सेवाएं दी गई, वह बताते हैं कि लगभग 18 देश में हुए भ्रमण कर चुके हैं, यूरोप चीन सहित कई देशों में भ्रमण किया। वे मानते हैं की यात्राएं या भ्रमण कर ज्ञान में बढ़ोत्तरी होती है और हम अनेक सभ्यताओं के विषय में जानकारी अर्जित करते हैं। घुमक्कड़ी जीवन भी अपने आप में एक तपस्या है। भीष्म जी बताते हैं कि उन्हें बचपन से ही जासूसी उपन्यास पढ़ने का बड़ा शौक था। जब वह देहरादून में विद्यालय शिक्षा और उच्च शिक्षा ग्रहण कर रहे थे तो उन्होंने अनेक जासूसी उपन्यासों, कहानियों को पढ़ डाला था, अधिकांश पुस्तकें अंग्रेजी भाषा के पढ़े। इनको पढ़ने के उपरांत ही उन्हें लिखने का शौक आया। भीष्म जी बताते हैं कि देहरादून में पढ़ाई के दौरान उनके साथ रूममेट के रूप में श्री सत्य प्रसाद बड़थ्वाल सिमालू और श्री दयानंद बहुगुणा रहे हैं।
सेल्स और मार्केटिंग लाइन में उन्हें महीने के 30 दिनों में से 20 दिन घर से बाहर भ्रमण करना होता था। भारत के लगभग हर क्षेत्र में भ्रमण करने के उपरांत ही भीष्म जी को यह आभास हुआ कि वह अब लेखन कार्य में भी अपना हाथ आजमाएं। युवा भीष्म की घर वालों द्वारा शादी की तैयारी कर ली गई। विवाह उपरांत जब पत्नी गांव में आई तो उनके साथ परिवार की अन्य दीदी, बहनों, भाभियों ने खूब मजाक किया। इसी दौरान वे अपनी पत्नी के साथ रिश्तेदारी में गए और अनेक स्मृतियां लेकर हुए अपने कार्य क्षेत्र चले गए। भीष्म जी बताते हैं कि इसी दौरान हिलांस पत्रिका में उन्होंने अपने गांव और विवाह उपरांत की स्मृतियों को उकेरा, जिसे "काली चाय" शीर्षक नाम से प्रकाशित किया, यही भीष्म जी का प्रथम लेख था। इसके बाद उन्होंने "शिबू का घर" शीर्षक से एक लेख लिखा, वास्तव में यह लेख सिमालु खंड गांव के श्री प्रेम बड़थ्वाल जी के मुंबई में रहते हुए का संघर्ष पर आधारित था। इन दोनों लेख को अनेक लोगों द्वारा अत्यधिक पसंद किया गया। वास्तव में यह लेख आम आदमी के जीवन पर आधारित थी। जिन भी लोगों ने इन लेखों को पढ़ा वे उसे अपनी कहानी बताते, भीष्म जी को लेख के लिए बधाइयां मिली और यहीं से उन्हें लेखन क्षेत्र में जाने के लिए प्रोत्साहन मिला। भीष्म जी इतिहास लेखन के क्षेत्र में उत्तराखंड के सबसे प्रासंगिक और प्रमाणिक लेखक डॉक्टर शिव प्रसाद डबराल चारण को मानते हैं वह कहते हैं कि डॉक्टर डबराल ने जहां पर इतिहास लेखन को छोड़ा था उसके उपरांत किसी भी व्यक्ति द्वारा प्रमाणिक लेखन नहीं किया गया, आज भी इतिहास वहीं पड़ा हुआ है।
डॉक्टर डबराल को भीष्म कुकरेती जी ऋषि तुल्य मानते हैं और कहते हैं कि उन्होंने अपना घर बार छोड़कर ईश्वर को साक्षी मानकर इतिहास लेखन का जो कार्य किया वह असाधारण और अद्भुत है भीष्म जी कहते हैं कि डॉक्टर शिवप्रसाद डबराल जी ने अनेक जगह घूम घूम कर शोध परख इतिहास लिखा, उनका लेखन प्रमाणिक है, उन्होंने भूगोल के जानकारी जुटाकर इतिहास लिखना शुरू किया था, स्वयं अपने आप को बताते हैं कि वह छात्र तो विज्ञान के थे लेकिन लेखन कार्य इतिहास रहा। भीष्म जी कहते हैं, गढ़वाली लेखन में जो कार्य श्री अबोध बंधु बहुगुणा जी द्वारा किया गया है वह भी असाधारण ही है। श्री अबोध बंधु बहुगुणा जी ने अनेक प्रमाणिक गढ़वाली साहित्य लिखे हैं। भीष्म जी बताते हैं कि गढ़वाली भाषा में लिखी अनेक पुस्तकों की समीक्षा गढ़वाली भाषा को छोड़कर हिंदी और अंग्रेजी में अनेक लेखकों और समीक्षकों द्वारा की गई, लेकिन भीष्म जी कहते हैं कि मैंने ठाना की गढ़वाली भाषा में लिखी पुस्तक की समीक्षा गढ़वाली भाषा में ही हो, इसीलिए मैंने कही पुस्तकों की समीक्षा गढ़वाली में करना शुरू किया, बाजूबंद नामक पुस्तक का मैने सर्वप्रथम गढ़वाली भाषा में समीक्षा की।
भीष्म जी के साथ मेरा भी एक संबंध है, मेरी मां भी कुकरेती जाति से हैं तो वे मेरे मामा हुए, मैं उन्हे मामा जी के रूप में संबोधित करता हूं, साथ ही मेरी बड़ी बुआ (पापा की बुआ) का विवाह उन्ही के कुटुंब में हुआ था। पिछले 8-10 सालों से सोशल मीडिया के माध्यम से उनके अनेक लेख, कहानियों, व्यंग्यों, समीक्षाओं को पढ़ने को मिले, मैं व्यक्तिगत रूप से तो उन्हें मिल नहीं पाया हूं, लेकिन फोन के माध्यम से उनसे अनेक विषयों पर घंटों चर्चा होती रहती है। वे कभी भी कुछ भी बताने में और गलत होने पर डांट ने में हिचकते नहीं है। अमूमन देखा जाता है कि बुद्धिजीवी वर्ग यही सुनाई देते हैं की आजकल के युवा कुछ नहीं जानते, पर भीष्म जी इसके उलट हैं, उन्हें बहुत खुशी मिलती है कि आज कल के युवा उत्तराखंड के इतिहास, यहां की बोली, भाषा, रहन, सहन, साहित्य, संस्कृति के विषय में लिखते हैं। जब मैंने श्री मुकंद राम बड़थ्वाल दैवज्ञ, डॉक्टर शिव प्रसाद डबराल चारण, संत सदानंद कुकरेती के जीवन स्मृति पर लेख लिखे, तो वह बहुत खुश हुए और उनके द्वारा खूब प्रशंसा मिली, फोन कर शाबासी दी, यह मेरे लिए प्रेरणादायक स्मृति रही है। उक्त विभूतियों पर लिखना मेरा सौभाग्य है, अनेक पत्रिकाओं में लेख प्रकाशित हुए।
भीष्म जी ने उत्तराखंड की काष्ट कला एवं पहाड़ी भवन संरचना पर भी अनेक लेख लिखे हैं, भीष्म जी बताते हैं कि नौकरी के दौरान मैंने भ्रमण में "कुमाऊं के घरों के स्ट्रक्चर" के नाम से एक साहित्य का अध्ययन किया, उसके उपरांत मैंने यह पाया की गढ़वाल क्षेत्र में भवन कला पर अभी विस्तृत अध्ययन या साहित्य नहीं तैयार हुआ है, इसके उपरांत मैंने इंटरनेट और कॉल के माध्यम से अपने क्षेत्र के गांव के लोगों को कहा कि वह अपने-अपने घरों और गांवों के तिबारीयों, बाखली, काष्ट कला, भवन कला थी उनकी छायाचित्र और फोटो को मुझे भेजें। वह कहते हैं कि उनके इस आवाहन पर लगभग 3000 से अधिक छायाचित्र उन्हें प्राप्त हुए हुए बताते हैं। भीष्म जी द्वारा आज तक 775 से अधिक भवनों के (पहाड़ी घरों) काष्ट कला पर लिख चुके हैं और अभी भी लगभग ढाई हजार से अधिक चित्रों पर लिखना बाकी है।
भीष्म जी ने मेरे पैतृक घर जो मेरे पड़ दादा जी स्व0 श्री जगतराम मैठाणी द्वारा निर्मित भवन है की काष्ट कला का भी अदभुत वर्णन किया, शायद ही उस घर में रहे थे उन्हे भी वह जानकारी हो। काष्ट कला लेखन पर भीष्म जी की कोई जवाब नहीं है। भीष्म जी युवावस्था में वामपंथी विचारधारा से ताल्लुक रखते थे, हालांकि वर्तमान में हुए कट्टर दक्षिणपंथी विचारधारा का समर्थन करते हुए पाए जाते हैं। भीष्म जी बताते हैं कि उन्होंने "गढ़ ऐना" नामक दैनिक पत्रिका में अनेक व्यंग्य चित्र और व्यंग्य कथाएं लिखी। वह बताते हैं कि दैनिक हिंदुस्तान में प्रकाशित व्यंग्य चित्रों से प्रभावित हुए, उनके लगभग 2000 से अधिक व्यंग्य लेख अनेक पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित की हैं। भीष्म जी बताते हैं कि उन्होंने प्रथम व्यंग्य कहानी "वेस्टर्न हल" लिखी। भीष्म कुकरेती जी काष्ठ कला लेखन, व्यंग्य लेखन के साथ-साथ अनेक गढ़वाली भाषा की कहानी भी लिख चुके हैं उन्होंने गढ़वाली भाषा में पहली कहानी "कैरा को कत्ल" लिखी, वास्तव में इस कहानी में "क" शब्द का अनेक बार प्रयोग किया गया है यह अनुप्रस्थ अलंकार पर आधारित एक कहानी है। भीष्म कुकरेती जितनी अच्छी हिंदी और गढ़वाली भाषा लिखते हैं, उससे भी अच्छा वे अंग्रेजी भाषा में लेखन कार्य करते हैं। वह बताते हैं कि जब उन्होंने स्नातक और स्नातकोतर की परीक्षाएं दी तब से ही उन्हें अंग्रेजी भाषा लिखने और पढ़ने का रुझान बढ़ने लगा, चुकी इन क्लास में पढ़ाई अंग्रेजी में होती और पेपर भी अंग्रेजी में होते। इसलिए अंग्रेजी पढ़ना जरूरी हो गया।
उनका जो जन्मजात सपना प्रोफेसर बनने का था उससे उन्हें यह लगा की अंग्रेजी में उन्हें अनेक लेक्चरर्स देने होंगे, इसलिए उन्होंने अपनी अंग्रेजी को अच्छा बनाया। वह बताते हैं कि उन्होंने जेम्स हेडली और आयरिश लेखक ब्राम स्टॉकर की ड्रैकुला सहित अनेक अंग्रेजी उपन्यास और जासूसी पर आधारित कहानियां पढ़ी। भीष्म जी को सेल्स और मार्केटिंग में सेवा करते थे इसलिए उन्होंने सेल्स और इंटरनेट मार्केटिंग के क्षेत्र में षडदर्शन, उपनिषद और भरतनाट्यम को आधार मानकर अनेक लेख प्रकाशित किए। भीष्म कुकरेती जी द्वारा अनेक हिंदी, गढ़वाली और अंग्रेजी पुस्तकों का प्रकाशन किया गया। उनकी अनेक रचनाएं हैं, जिनको यहां लिखा गया तो लेख बड़ा हो जायेगा, भीष्म कुकरेती जी की रचनाएं कमेंट में हैं। भीष्म जी कहां तो वनस्पति विज्ञान के छात्र थे, कहां उन्होंने सेल्स और मार्केटिंग में नौकरी की और कहां वो एक लेखक बन गए। उन पर मुझे यह पंक्ति याद आती है-
"जिंदगी का भी क्या कहिए, सोचा कहीं, नौकरी कहीं, घर कहीं, अपने कहीं, सपने कहीं ''
वे कई बार सोशल मीडिया पर उन कथित लेख या प्रमाणिक जानकारी न देने वाले व्यक्तियों पर भड़क जाते हैं और वहीं लिख देते आपने यह गलत लिखा है। वह मानते हैं कि यदि साहित्य का सृजन करना है तो सत्य लिखने की ताकत होनी चाहिए, यदि साहित्य के साथ में छेड़छाड़ या उसे कपोलकल्पित बनाया जाता है उससे साहित्य तो खराब होता ही है, इतिहास भी बिगड़ जाता है। लेखन कार्य करते समय युवा वर्ग के लेखकों को सबसे पहले प्रमाणिकता की जानकारी होनी चाहिए। वह भावुक होते हुए कहते हैं कि इस राज्य (देवभूमि उत्तराखंड) का इतिहास अत्यंत ही रोचक और रहस्यमई है। यहां अनेक किले, कोट, गढ़ है किंतु उनका समुचित शोध अभी तक नहीं हो पाया है, डॉक्टर शिव प्रसाद डबराल ने जहां पर इतिहास लेखन का कार्य छोड़ा था, आज भी वहीं है। यदि राज्य सरकार इस ओर ध्यान देकर शोधार्थियों, लेखकों को प्रोत्साहित करें तो अच्छे परिणाम मिलेंगे। भीष्म कुकरेती जी यह भी कहते हैं कि लेखक सदैव गरीब होता है और उसकी प्रशंसा हमेशा तभी की जाती है जब वह इस दुनिया में नहीं रहता है।
साहित्य सृजन करने वाले मनीषियों की सरकारों का संरक्षण होना चाहिए, ताकि उनका साहित्य सृजन में कभी भी उनकी आजीविका कारण ना बने, यदि किसी लेखक के पास उसकी आजीविका ही ना हो, तो वह कैसे साहित्य सृजन करेगा, इसीलिए वह कहते हैं कि एक लेखक सदैव गरीब रहता है और गरीबी दिन काट कर ही वह साहित्य सृजन करता हैं। आज के युग में लेखन कार्य बहुत ही विरले लोग करते हैं। उन्हें सहयोग और संरक्षण दिया जाना चाहिए। युवा लेखकों में भीष्म कुकरेती जी बताते हैं कि गढ़वाली लेखन में श्री मनोज भट्ट गढ़वाली के लेख काफी अच्छे और प्रमाणिक हैं। इसलिए युवा लेखक लेखिकाओं से कहते हैं कि वह भले ही कम लिखे लेकिन सृजनात्मक और प्रमाणिक लेखन करें। युवाओं को हिंदी और इंग्लिश लेखन के साथ-साथ गढ़वाली लेखन में भी हाथ आजमाने चाहिए और गढ़वाल के जितने भी साहित्यकार हुए हैं उनके इतिहास को संग्रह करने की पहल करनी चाहिए।
मैं भीष्म कुकरेती जी को सरस्वती का मानस पुत्र मानता हूं वह मुंबई में रहकर भी गढ़वाल के गाढ़ गधेरों, ग्लेशियरों, वन भूमि, बंजर भूमि काष्ट कला, जागर कला, यात्राएं, लोक वाद्य, लोकगीत, लोक कलाओं, इतिहास, संस्कृति, साहित्य आदि पर लिखते हैं। मैं भीष्म कुकरेती जी को उनके आरोग्यमई जीवन की कामना करते हुए, उन्हें प्रणाम करता हूं और अपेक्षा करता हूं कि आप हम युवाओं के लिए अनेक साहित्य सृजन करें, जिससे हमारा ज्ञान बढ़ेगा। हाल ही में उन्हें बड़थ्वाल कुटुंब द्वारा अपने वार्षिक सम्मान में साहित्य क्षेत्र का सर्वोच्च सम्मान "डॉक्टर पीतांबर दत्त बड़थ्वाल साहित्य सम्मान" से सम्मानित किया गया है, जिसके लिए उन्हें बहुत-बहुत बधाई देता हूं।
- प्रशांत मैठाणी
No comments:
Post a Comment