साहित्य चक्र

02 August 2024

कविता- मानव ने बदल दिया जीने का ढंग





कुदरत ने एक बार फिर मचा दी तबाही
सुबह के अंधेरे में अपनी तलवार चलाई
मौका नहीं दिया किसी को संभलने का
न चीख सके न ही किसी ने आवाज लगाई

कब्रिस्तान बन गया पूरे का पूरा गांव
न ही कोई पेड़ रहा न ही कोई छांव
घुंघरुओं की आवाज आती थी जिस आंगन में
कहाँ दफन हो गए न जाने वह पांव

बच्चे खेलते थे स्कूल के जिस मैदान में
आज वहां नज़र आ रहे मलबे के ढेर
पत्थरा गई हैं सबकी आंखें बच्चों को तलाशते
बैठने लगा है दिल जैसे जैसे हो रही है देर

आखिरी वक्त में क्या आया होगा मन में
भगवान को तो जरूर आवाज लगाई होगी
फिर क्यों नहीं सुनी उसने उन सब की पुकार
पल भर में कितनी ही जानें धरती में समाई होंगी

वह बेजुबान जो बंधे थे खूंटे से
एक ही झटके में पल भर में आज़ाद हो गए
अब तो यादें ही रह गई जाने वालों की
ख़ाक हो गया सब कुछ सब बर्बाद हो गए

कुदरत को क्यों दोष दें वह तो नहीं बदली
केवल मानव ने ही बदल दिया है जीने का ढंग
अपनी बर्बादी को बुला कर भी मुस्कुरा रहा
नज़र आता नहीं कुछ और इतना चढ़ा है पैसे का रंग

रवींद्र कुमार शर्मा

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