साहित्य चक्र

21 July 2024

ग्लोबल वार्मिंग प्रमुख वैश्विक समस्या


            ग्लोबल वार्मिंग वर्तमान समय की प्रमुख वैश्विक पर्यावरणीय समस्या है। यह एक ऐसा विषय है कि इस पर जितना सर्वेक्षण और पुनर्वालोकन करें, कम ही होगा। आज ग्लोबल वार्मिंग अंतरराष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिज्ञों, पर्यावरणविदों, सामाजिक कार्यकर्ताओं एवं वैज्ञानिकों की चिंता का विषय बना हुआ है। ग्लोबल वार्मिंग से पृथ्वी ही नहीं बल्कि पूरे ब्रह्मांड की स्थिति और गति में परिवर्तन होने लगा है। इनके कारण भारत के प्राकृतिक वातावरण में अत्यधिक मानवीय परिवर्तन हो रहा है। 





पृथ्वी के बढ़ते तापमान के कारण जीव-जंतुओं की आदतों में भी बदलाव आ रहा है। इसका असर पूरे जैविक चक्र पर पड़ रहा है। पक्षियों के अंडे सेने और पशुओं के गर्भ धारण करने का प्राकृतिक समय पीछे खिसकता जा रहा है। कई प्रजातियां विलुप्त होने के कगार पर है। संवैधानिक रूप से प्रतिबंध के बावजूद जंगली जीव की संख्या कम हो रही है।

गत सौ वर्ष में मनुष्य की जनसंख्या में भारी बढ़ोत्तरी हुई है। इसके कारण अन्न, जल, घर, बिजली, सड़क, वाहन और अन्य वस्तुओं की माँग में भी वृद्धि हुई है। परिणामस्वरूप हमारे प्राकृतिक संसाधनों पर काफी दबाव पड़ रहा है। परिणाम स्वरूप वायु, जल तथा भूमि प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। जनसंख्या दबाव के कारण आज गांव का पानी भी पीने योग्य नहीं रहा। जहां रहने के लिए जंगल साफ किए गए हैं, वहीं नदियों तथा सरोवरों के तटों पर लोगों ने आवासीय परिसर बना लिए हैं। जनसंख्या वृद्धि ने कृषि क्षेत्र पर भी दबाव बढ़ाया है।

         वृक्ष जल के सबसे बड़े संरक्षक हैं। बड़ी मात्रा में उसकी कटाई से जल के स्तर पर भी असर पड़ा है। सभी बड़े-छोटे शहरों के पास नदियां सर्वाधिक प्रदूषित है। कचरा से इतना भर गया है कि मौनसून की पहली बरसात में ही लाल निशान के उपर पानी बहने लगती है। वायु प्रदूषण, कचरे का प्रबंधन, बढ़ रही पानी की कमी, गिरते भूजल लेबल, जल प्रदूषण, संरक्षण और वनों की गुणवत्ता, जैव विविधता के नुकसान, और भूमि का क्षरण प्रमुख पर्यावरणीय मुद्दों भारत की प्रमुख समस्या है।

सम्पूर्ण ब्रह्मांड में पृथ्वी एक ऐसा ज्ञात ग्रह है जिस पर जीवन पाया जाता है। जीवन को बचाये रखने के लिये पृथ्वी की प्राकृतिक संपत्ति को बनाये रखना बहुत जरुरी है। इस पृथ्वी पर सबसे बुद्धिमान कृति इंसान है। धरती पर स्वाश्वत जीवन के खतरा को कुछ छोटे उपायों को अपनाकर कम किया जा सकता है, जैसे पेड़-पौधे लगाना, वनों की कटाई को रोकना, वायु प्रदूषण को रोकने के लिये वाहनों के इस्तेमाल को कम करना, बिजली के गैर-जरुरी इस्तेमाल को घटाने के द्वारा ऊर्जा संरक्षण को बढ़ाना। यही छोटे कदम बड़े कदम बन सकते हैं। यदि इसे पूरे विश्वभर के द्वारा एक साथ अनुसरण किया जाये।

                                      - डॉ नन्दकिशोर साह



कविताः केवाईसी





बार - बार की,
के वाई सी से,
तंग हो गया हूं,
मैं किसान हूं! 

कभी बैंक में, 
के वाई सी,
कभी राशन में,
के वाई सी!

गैस में भी,
के वाई सी,
मांग रहे हैं,
ओ टी पी!

क्या करूं,
कहां चला जाऊं,
बिंदास खेत की,
रखवाली कर पाऊं!

खेत हमारे,
हरे भरे हों,
पूरा समय,
खेतों पर जाए!

पहले जैसे,
हम हो जाएं,
ईश्वर से हम,
यही मनाएं! 

हे भगवान,
इन नेताओं से,
हमें बचाएं,
के वाई सी बंद कराएं!

                                                 - डॉ. सतीश 'बब्बा'

कविताः कथा मेरे दौर की




यह कथा मेरे ही दौर की है,
नहीं व्यथा ये किसी और की है।
नहीं सुनते बच्चे बड़ों की अब,
लगता है इनको भाषण सब।

ठोकर लगती फिर रोते हैं,
और अपना आपा खोते हैं ।
है गुस्सा इनमें भरा हुआ,
नहीं धैर्य इनमें जरा सा है।

नाजुक मन है कोमल इनका,
पल भर में टूट ये जाते हैं,
लेकिन ना अहसास जताते हैं,
गुस्से को हथियार बनाते हैं,
और बदतमीज कहलाते हैं।

झांको, जरा इनके अन्तर्मन में,
कितने मासूम ये बच्चे हैं।
बस कमी जरा सी इतनी हैं,
ना रिश्ते – नाते पहचाने ये,
एक मोबाइल को अपना मानें ये,
व्यवहारिक ज्ञान ना जाने ये,
ना सही और ग़लत पहचाने ये,
गूगल का ज्ञान ही माने ये,
ना व्यवहारिकता को जाने ये,
ये बच्चे मेरे ही दौर के हैं,
नहीं बच्चे ये किसी और के है।
पर कितना प्यार जताऊं मैं,
और कैसे इनको बतलाऊं मैं,
मेरी जिम्मेदारी है कितनी,

ये कैसे इनको समझाऊं मैं।
ये कथा नहीं किसी और की है,
ये व्यथा मेरे ही दौर की है।

                                                                          - कंचन चौहान

कविताः हवा का झोंका




तेरी यादों को लेकर एक हवा का झोंका आया,
पूरे तन मन को सहला गया है,
हवा का झोंका कह रहा हो,
मैं तुम्हें तुम्हीं से चुरा ले जाऊँगा,
उड़ा ले जाऊँगा तुम्हें इतनी दूर,
जहाँ पर सकून के दो पल हो,
जहाँ हम हो और तुम हो,
एक ऐसे जहाँ में,
जहाँ चारो ओर प्यार ही प्यार हो,
हवा का झोंका मेरे मन मस्तिष्क को ताजगी दे रहा हो,
हवा का झोंका मानो मुझसे बातें कर रहा हो, 
तुम्हारी लट गालों पर कितनी खूबसूरत लग रही है,
तुम इस जहाँ में खुशिया बिखराओ,
तुम रोते हुए लोगों को हसाओ,
हवा का झोंका तेरी यादों को लेकर संग आया है।

                                                              - गरिमा लखनवी


कविताः कामयाबी की बारात





सुकून के धागे कोई काट रहा जनाब 
काँटों से जैसे कोई छांटता गुलाब 

इज्ज़त के पुलिंदे ढह जाते भराभर
गिरे-पड़े बाशिंदे पर जब डोलती शराब 

अंधेरे मे रहने की जिसको लग गयी है लत 
दिन के उजाले नहीं दिखता  आफताब 

हवाओं का रुख कुछ बदला इस कदर 
मुज़रिम चले सीना तान सज्जन ओडे नकाब 

मरहम पे दवा छिड़कने आ रहे 
ज़ख्मों पे जिन्होंने लगायी आग 

बेताब था जो उड़ने को कभी 
डाल पे परिंदा क्यों बैठा उदास 

ये जिंदगी ख़ुदा की नेमत है यारों 
इठलाती उम्मीदों का क्यों छोड़ते हो साथ 

मेहनत के रंगों की रंगोली सजाओ
कामयाबी की फिर निकलेगी बारात


                                                            - उमा पाटनी 'अवनि'



कविताः गुरू पूर्णिमा



मेरे उस्ताद जी मेरे गुरू जी
मुझ पर अनन्त कृपा आपकी
सौम्य अति प्रसन्न रुप आपका
आपके दर्शन ही है सुखकारी 

तुम किसी संत से कम नहीं 
आपकी सुन्दर मूरत ही न्यारी
ज्ञान का जो दान देकर मुझे
आपने ही बनाया था संस्कारी

मेरे मन के विकार सब दूर हुवै
जब से गुरुवर दर्शन लाभ हुवै
धर्म-कर्म दुनियाँ का ज्ञान दिया
जीवन भर का मैं हूँ आभारी

गुरू-उस्ताद बिन ज्ञान अधूरा
इनकी कृपा से ही जीवन पूरा
सृष्टि की अतुल्य निधि हो आप
"नाचीज" की नैया आपने तारी 
 
                                                                    - मईनुदीन कोहरी 'नाचीज बीकानेरी'

लेखः स्त्री-पुरुष का सामाजिक अस्तित्व

                   
        समाज एक ईकाई नहीं है, नहीं किसी जाति विशेष के लिए, नहीं किसी गाँव/शहर तक सीमित है.एक राष्ट्र, राष्ट्र से विश्व में बसने वाले मानव, एक मानवीय समाज है. मनुष्य होने का अर्थ समाज है, समाज के बिना मनुष्य मात्र का कोई अस्तित्व नहीं है. हम होने का भाव समाज द्वारा तय किया गया है। स्त्री और पुरुष समाज रुपी रथ के दो पहिए है,नदी के दो किनारे है, सूर्य और चंद्रमा है,रात और दिन है । संवेदना और हृदयात्मक सह अस्तित्व है  पानी और नदी का सम्बंध ही समाज है  पानी और मछली का अटूट विश्वास और बंधन है। 





हर एक भौगोलिक क्षेत्र में निवास करने वाली जाति की अपनी अलग- अलग पहचान और अपनी संस्कृति, रीति रिवाज, खानपान है, उन्हीं के अनुसार अपने समाज का चक्र चलता है. समाज में जितना महत्व पुरूष का है उससे भी अधिक महत्व स्त्री का है. एक दूसरे के पूरक हैं. समाज को गति देने के लिए दोनों पहिये भी और इंजन भी है. एक दूसरे के बिना न परिवार का अस्तित्व है, न समाज का, न राष्ट्र का. नदी का महत्व पानी से है वैसे ही समाज का महत्व स्त्री- पुरूष के होने से है. आज सामाजिक ढांचा में बदलाव आ रहे हैं. 

सामाजिक मूल्यों का महत्व कम होता जा रहा हैं. मैं तो यहाँ तक मानत  हूँ कि हम समाज के दो जोडी ईश्वर द्वारा रचित कृति मात्र है. समाज में यदि पुरूष का चरित्र गिरा है, वही स्त्री का भी ह्रास हुआ है। एक दूसरे का भोगवादी अस्तित्व ने ही वैश्यावृत्ति को जन्म दिया है. कौन स्त्री परिवार बसाना नहीं चाहतीं है, लेकिन पुरूष ने अपने स्वार्थ के लिए तो अपने की धूरी को ही बेच देता हैं / नर्क कुंड में भेज देता है. उनके भी बच्चे हैं लेकिन पिता किसे कहे। समाज के सामने हमेशा प्रश्न चिन्ह है?. नारी संसार की सबसे कोमल, भोली, निस्वार्थ प्रेम की पूजारी,स्नेह की गंगा, माँ की ममता, बच्चों का वात्सल्य, अपने घर, समाज, राष्ट्र की रक्षक.. इतना कुछ होतें हुए भी अपने आप को ठगा- सा महसूस करतीं हैं. वह उडता परिंदा जिसका कोई ठोर ठिकाना नहीं. 

अपने आंचल से जिसके भी बहते आँसू  पौछे उसने ही चिरहरण किया। कौन  पुरुष  अपनी मां और बहनों का हरण होते देखना चाहेगा लेकिन परायी नारी के साथ हमेशा वासना मिटाने की उत्कंठा हमेशा लिए फिरता है। जहां गुलाब है वहां कांटे रक्षक का काम करते हैं लेकिन समाज में भक्षण करते हैं। संसार में ऐसी कौन नारी होगी जो अपनी आबरू बेचना चाहती है, सेक्स का नरक धंधा करें, कौन बाजारू बनें।अपना ही समाज उस अकेली को जीने नहीं देता हैं, चील और गिद्धों की तरह अपना शिकार करने पर उतावला है। हम तो रण में भी शिश काट पति को दे देती है. हमें जिसे समाज की एक जोडी जूती समझी जाती है, साजिश रचि जाती हैं, ऐसे समाज की सोच, विचार और संस्कारों में बदलाव की आवश्यकता है.  

         
   प्रकृति के निर्माण से ही जब से नारी ने पुरुष का दामन थामा तब से आज तक अनेकोनेक घटनाएं घटी है. आदि काल में नारी शिक्षित थी और गुरूकुल में शिक्षा देतीं थीं, आदि काल में जो आक्रमण हुआ करते थे अधिकतर नारी हरण को लेकर ही हुए है. धीरे धीरे बाहरी आक्रांताओं ने नारी को भोग विलास समझा उसका शोषण करना आरंभ किया तब से घुंघट प्रथा चली, नारी अपने चेहरे को ढकना आरंभ कर दिया. आधुनिक युग में नारी का पुनः उत्थान हुआ. आज हर क्षेत्र में नारी काम कर रही हैं.

आज कबीर साहेब की पंक्ति याद आती है- 

'नारी की झाई परत अंधा होत भूंजग/ 
कबिरा तिनका कहा गति जे नित नारी के संग ||' 

जिस माँ ने हमें जन्म दिया हो उसका रक्त अपनी धमनियों में बह रहा हो, माँ ही हर रूप में हमारे सामने खडी है, कही बहन, कही पत्नी, कही दोस्त और कही पहरेदार. नारी पुरुष को पुरूष बनातीं है. नारी पर बहुत लिखा जा रहा है, वाद विवाद हो रहा है, नारीवाद , स्त्री- विमर्श जैसी साहित्यिक धारा चल रही हैं. नारी की समस्या और आवश्यकता यही पूरी नहीं होती हैं आगे बहुत कुछ करना शेष है. नारी ने उन्नति की अवश्य है लेकिन जिस क्षेत्र में गयी है वहाँ हमेशा ठगा सा महसूस किया है, का शिकार हुईं हैं. वह बोलती नहीं है उसके सामने समाजिक कुरीतियों और मर्यादा है. उसके ह्रदय में गहरे घाव है, टूटे जीवन को संवारने का जजबा है. 

पुरूष पर कोई नियंत्रण नहीं कही भी जाए, कही भी रंगोलिया मनाये, वह दूसरों के परिवार को ऊझाडने का जिमेदार है.जब किसी के साथ रहने रहते जीवन गुजर जाता है तब भी तलाक कर दिया जाता है, जितनी पुरूष जीवन की आवश्यकता है, उतनी ही नारी जीवन की आवश्यकता है. .वही संवेदना, वही प्रेम, वही वात्सल्य और ममत्व. जिस बेटे को मा ने पच्चीस साल तक पाला हो अन्त में माँ को घर से अनाथालय में भेज देता है, यही कारण है कि आज हमारा समाज कहाँ खडा है. दोनों पक्ष नदी के दो किनारे है जिसके बीच संसार सागर चल रहा है.


                                                                   - डाॅ. गोवर्धन लाल डांगी



असुरक्षा के बोध से भरे अम्बानी परिवार का समारोह

आजकल अम्बानी परिवार चर्चा में है। लम्बा विवाह समारोह और अमीरी का जरूरत से अधिक दिखावा अब उनकी अलग तरह की इमेज बना रहा है। बड़े स्तर पर की गई पी आर अब शायद खुद अम्बानी परिवार को भी अजीब लगने लगी होगी। लेकिन कार्यक्रम जो तय हैं वे तो करने ही हैं आखिर कार। इस बीच जो एक तत्व मुखर होकर सामने आया है वह है असुरक्षा का बोध है। भीतर असुरक्षा का बोध जब मुखर होने लगता है तो इंसान दिखावा अधिक करता है। वैसे भी शिखर जैसी असुरक्षित जगह कोई और होती भी नही। 




अम्बानी परिवार धीरू भाई अम्बानी यानी अपने मुखिया को रोल मॉडल मानता है ।धीरू भाई पर अनेक पुस्तकें लिखी गईं। उन्हें रोल मॉडल कहा गया की उन्होंने बेहद गरीबी में से निकल कर एक बड़ी कंपनी खड़ी की। गरीबी और अमीरी के बीच झूलते अम्बानी परिवार के सदस्य इसी उहापोह में पले बढ़े हैं। दादा बेहद गरीब थे। सिर्फ 50 ही तो साल की कहानी है जब दादा बहुत गरीब थे। उसके बाद जिस तरह से वे अमीर बने वह दुनिया जानती है। तिकड़म में धीरू भाई से बड़ा आजतक कोई नही हुआ। पैसा खर्च करने का उनका साहस और निर्णय लेने की उनकी त्वरा सराही गई। निर्णय नैतिक था ईमानदारी पर था सिस्टम के अनुरूप था इसकी बहस बेमानी करार दी गई। 

जब अम्बानी परिवार जड़े जमा रहा था तभी अनिल अंबानी नाम का शख्श चर्चा में आने लगा। उन्हें टीना मुनीम से ब्याह करना था। परिवार ने विरोध किया लेकिन अंततोगत्वा टीना मुनीम और अनिल अंबानी की शादी हो गई। कहते हैं कि टीना मुनीम को पारम्परिक परिवार कभी स्वीकार नही कर पाया। धीरू भाई के जाने के बाद 2006 में अम्बानी परिवार का बिजनेस दो हिस्सों में बंट गया। जैसे महाभारत के युद्ध की दोषी द्रोपदी करार दी गई वैसे ही बिजनेस के दो फाड़ होने की दोषी टीना करार दी गई। यह भी संभव है कि जब आपको किसी की उपस्थिति स्वीकार नही तो उनका भी तो कोई आत्मसम्मान होगा न। 

 टीना अम्बानी मुकेश अम्बानी के हर समारोह में शिरकत करती हैं। अनिल भी होते हैं। लेकिन मुकेश अम्बानी के परिवार के साथ उनके चित्र नही होते। अनिल अंबानी जब भी दिक्कत में आये, मुकेश अम्बानी ने अनिल के साथ बिजनेस डील की औऱ तमाम करार तोड़कर अनिल के सारे बिजनेस फील्ड में घुस गए। बंटवारे में ये करार हुआ था कि मुकेश अनिल के किसी एरिया में बिजनेस नहीं करेंगे और अनिल मुकेश के किसी फील्ड में बिजनेस नही करेंगे। टेलीकॉम अनिल को मिला था लेकिन JIO फ़ोन आज मुकेश की बड़ी कंपनी है ।मजबूरी में जैसे-जैसे अनिल कमजोर होते गए मुकेश उनके बिजनेस लेते गए। 

अमीरी और गरीबी का यह चक्र अम्बानी परिवार में फिर से चलने लगा। एक भाई उत्तरोत्तर गरीब होता गया, एक भाई उत्तरोत्तर अमीर होता गया। और इसका पूरा प्रभाव बच्चों के व्यक्तित्व पर पड़ा। उनका होना बिजनेस के लिए है। उनका एक-एक कदम बिजनेस के लिये है। उनका एक-एक सांस बिजनेस के लिए है। वे पढ़े और बिजनेस में घुस गए। उनकी शादियां बिजनेस मैरिज हैं। वे भीतर से इतने आतंकित हूए कि अपने मन की की तो अनिल चाचा जैसा परिणाम देखना पड़ सकता है। अनिल चाचा उनके लिए एक नकारात्मक उदाहरण हैं जो उन्हें बिजनेस में लगे रहने की प्रेरणा देता है। जो उन्हें संस्कारी बने रहने की प्रेरणा देता है। जो उन्हें यह सीख देता है कि माता पिता जो कहेंगे,हम वही करेंगे।और माता पिता भी खुद इतने संभल कर चल रहे हैं कि अपने जीते जी बच्चों मेंबिजनेस का बंटवारा कर दिया कि ये  बेटे का ये बेटी का ये छोटे का। 

इस तमाम उहापोह में अम्बानी परिवार ने सिर्फ बिजनेस जीया, बिजनेस ओढ़ा, बिजनेस खाया, बिजनेस बिछाया। स्वाभाविक है कि जीवन में नीरसता आएगी ही। पैसा है,  सब सुविधा है लेकिन जीवन में आकंठ नीरसता है। पैसे खर्च करके देख लिया उन्होंने। महंगी घड़ियां गाड़िया हार सब लेकर देख लिए। लेकिन नीरसता ज्यों की त्यों है। इस लम्बी नीरसता को तोड़ने के लिए संभव है लंबे समारोह रचे गए। 

दूसरा पहलू यह है कि अनन्त पूरी तरह स्वस्थ नही है। उनकी बीमारी उन्हें परेशान करती है। बड़े परिवार के हिसाब से उसका वैसा आत्मविश्वास नही बन सका कि वह हर चीज को आकाश अम्बानी की तरह या अपने पिता मुकेश अम्बानी की तरह हैंडल कर सके। उसे पूरी दुनिया से परिचित करवाया गया। बड़े बड़े सेलेब्रिटीज़, बिजनेस लॉबी और नेताओं से मिलवाया गया ताकि वह कही भी बात करे तो पूरी दुनिया उसे परिचित लगे कि अरे इसे तो मैं जानता हूँ। उसके लिये पूरी पी आर टीम खड़ी की गई जो उसके व्यक्तित्व को स्थापित करे। यह टोटल बिजनेस डील है। विवाह के बहाने खर्च करके भी यदि भोले भाले बच्चे की समाज मे स्वीकृति होती है, बिजनेस लॉबी में उसे गभीरता से लिया जा सके तो कुछ हजार करोड़ का खर्च मुकेश नीता के लिये मायने नही रखता। 

विवाह के सामाजिक मायने भी हैं। सामाजिक बहस के लिये इस विवाह में बड़ा स्पेस है, पहला तो यही था कि समाज मे कोई बच्चा बेशक वह अमीर का हो या गरीब का यदि वह स्वस्थ नही तो उसका विवाह जरूरी ही क्यो होता है। अपने बच्चे के जीवन की रिक्तता को भरने के लिए हम किसी दूसरे के जीवन के साथ खेल रहे होते हैं। दूसरा समाजिक मुद्दा यह भी है कि बड़े लोग कुछ अच्छे प्रतिमान स्थापित कर सकते थे जो अब उनकी जिम्मेदारी की सूची में नही रहे।शिखर पर बैठे मनुष्य की प्राथमिकता शिखर है। नीचे देखने से उसे डर लगने लगे तो समझिए वहां नीचे के लोगों के लिये कुछ नहीं बचा है। 

बहरहाल, कहते हैं अमीरी पुरानी हो तो नचाती नही है टिकाती है। नई अमीरी के अपने झंझावात हैं। झंझावातों का कॉकटेल है ये लंबा विवाह समारोह।


                                                                               - वीरेंद्र भाटिया


कविताः बदलाव




बरसती बारिश की तरह
बरस मत जाना।
रंगो के साथ खेलते हुए
मोहब्बत के रंग
रंग मत जाना।
जिस्म की चाहत में
रूह से मोहब्बत
कर न बैठना।
दिल्लगी करते-करते
कही दिलदार
बन न बैठना।
आबाद करते हुए
लोगो को इश्क़ में
खुद महोब्बत में
बर्बाद न हो जाना।

                                       - डॉ.राजीव डोगरा


13 July 2024

महिलाएं पर्यावरण संरक्षण के प्रति प्राचीन काल से जागरूक रही



              पर्यावरण शब्द का चलन नया है, पर इसमें जुड़ी चिंता नई नहीं है। वह भारतीय संस्कृति के मूल में रही है। आज पर्यावरण बचाने के नाम पर बाघ, शेर, हाथी आदि जानवरों, नदियों, पक्षियों, वनों आदि सबको बचाने के लिए विश्वव्यापी स्वर उठ रहें है। भारत में प्राचीन काल से पर्यावरण की तत्वों को धार्मिक कलेवर में समेत कर उनके संरक्षण एवं संवर्धन को एक सुनिश्चित आधार प्रदान किया गया है। महाभारत में कहा गया है कि वृक्ष रोपने वाला उनके प्रति पुत्रवत आत्मीयता रखता है। एक वृक्ष अनेक पुत्रों के बराबर होता है। महाभारत में पीपल की पत्तियों तक को तोड़ना मना है।





भारतीय मानवीय मूल्यों में वृक्षों को व्यर्थ काटना माना है। मनु स्मृति निर्देश देती है कि गांव की सीमा पर तालाब या कुएं बावड़ी कुछ न कुछ अवश्य बनाना चाहिए। साथ ही वट, पीपल, नीम या शाल एवं दूध वाले वृक्षों को भी लगाना चाहिए। किसी ग्राम में फूल व फलों से युक्त यदि एक भी वृक्ष दिखाई दे तो वह पूज्यनीय होता है। प्राचीन मूर्तियों में अशोक वृक्ष की पूजा क्रिया अंकित मिलती है। अर्थ वेद के अनुसार जहां पीपल और बरगद के पेड़ होते हैं। वहां प्रबुद्ध लोग रहते हैं। वहां क्रीमी नहीं आते।

 कृष्ण पवित्र अक्षय वट वृक्ष के नीचे बैठकर ध्यान मग्न हुए थे। इसकी छाया जहां जहां तक पहुंचती है तथा इसके संघर्ष से प्रवाहित जल जहां तक पहुंचता है, वह क्षेत्र गंगा के समान पवित्र होता है। पीपल मानव जीवन से जुड़ा वृक्ष है। लंबे जीवन का प्रतीक है, क्योंकि यह दीर्घायु होता है। बिहार, उत्तर प्रदेश और अन्य हिंदीभाषी राज्यों में उपनयन संस्कार के समय इसकी भी पूजा होती है। सामाजिक प्रथाओं और रीति-रिवाजों को देखें तो यह पता चलता है कि प्राचीन काल से ही महिलाएं पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरूक रही हैं। जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण आज भी महिलाओं द्वारा पर्व-त्योहार के अवसर पर पूजा अर्चना में अनेक वृक्षों यथा- पीपल, तुलसी, अमला, बेर, नीम आदि वृक्षों एवं विभिन्न पशु तथा गाय, बैल, चूहा, घोड़ा, शेर, बंदर, उल्लू आदि को सम्मिलित करना एवं उनकी पूजा-अर्चना के माध्यम से संरक्षण प्रदान करना देखने को मिल जाता है। 

सुहागिनी वट अमावस्या व्रत की पूजा के बाद वटवृक्ष की पुजा करती हैं। आदिवासियों में विवाह के समय महुआ के पेड़ पर सिंदूर लगाकर वधू अटल सुहाग का वरदान लेती है और आम के पेड़ को प्रणाम कर सफल वैवाहिक जीवन की कामना करती हैं। इस प्रकार, महिलाऐं विभिन्न रूपों में पर्यावरण की संरक्षण करती आ रही हैं। जंगलों के विनाश के विरुद्ध सफल आंदोलन के रूप में पूरी दुनिया में चिपको आंदोलन सराह जा चुका है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि इस आंदोलन का संचालन करने वाली महिलाएं पहाड़ी व ग्रामीण क्षेत्रों की रहने वाली निरीक्षर एवं अनपढ़ महिलाएं थी। आज पढ़े-लिखे लोग भी पूर्वजों के लगाए पेड़ पौधों को काटने से नहीं हिचकिचाते हैं। यह गंभीर पर्यावरणीय मुद्दा है। जिंदगी भर मनुष्य लकड़ी से बने समानों का उपयोग करता है, किंतु पेड़ नहीं लगता है। यह चिंतनीय है। पेड़ लगाएंगे तो फल मिलेगा, आज नहीं तो कल मिलेगा।


                                                               - डॉ. नन्दकिशोर साह 



कहानी- बुजुर्ग महिला



पानी-पानी कहकर वो बुजुर्ग महिला आखरी सांस गिन रही थी, 
तभी उसका बड़ा बेटा मनोहर अपने भाई को बुलाकर कहा
सज्जन मां ने गाय का दान करने को बोला था,
शायद अब वक्त आ गया है.
सज्जन बोला"अच्छा ठीक अभी पंडित जी को बुलाता हूँ,
तब तक गोदान के खर्चे का हिसाब कर लिया जाये.
मनोहर " सज्जनवा कितना गिरेगा मां के मौत का वक्त आ गया 
और तू हिसाब की बात कर रहा है.
दोनों भाईयो में गाली-गलौज आरम्भ हो गया,
मामला हाथापाई की तक आ जाता
अगर पड़ोसी बीच में ना आते, 
दोनों भाईयो की पत्नी दूर से एक दूसरे पर शब्दों की बौछार कर रही थी.
उस बुजुर्ग महिला के आँखो में आंसू के बूंद की रेखा नजर आ रही थी, 
वो मृत्य के शैय्या से ज्यादा अपने बेटो की उन हरकत पर दुःखी थी.
बेजान शरीर में थोड़ी सी हलचल हुआ, 
वो इशारों से मनोहर को पास बुलाया और धीरे से कान में कुछ कहा.
इसी के साथ बुजुर्ग महिला दम तोड़ दिया.
रोते-धोते अंतिम संस्कार हुआ, 

     (2)
अगले दिन बड़े भाई मनोहर ने सबको बताया मां ने आखरी 
वक्त में उसे बताया कि सबके चोरी से डाकघर में 10 लाख जमा है, 
पहले लोगो को विश्वास नहीं हुआ.
मगर वो बुजुर्ग महिला कर्मठ और मेंनहती थी,
जो पति के मरने के बाद 2 छोटे बच्चो और खेतबारी को अच्छे से संभाला.
काफी धार्मिक स्वभाव की होने के बाद सभी ने विश्वास कर लिया.
जब छोटे भाई सज्जन भाई को पता चला कि मां ने 
10 लाख रुपये उन दोनों भाईयो के लिये छोड़ गई हैं, 
फिर क्या दोनों भाई का प्रेम बढ़ गया.
अब रात-दिन 5 लाख के सपने आने लगे,
पत्नी को गहने से लाद दूंगा, 
पत्नी की मुस्कान पुरानी मुस्कान वापस आ जायेगी, 
जब पहली बार गौना आया था.
सरसों के तेल से आँखों तक महकती और मछली की तरह छटकती,
शर्म मानो इनके लिये बना हैं.
अब तो गांव के सभी महिलाओं की सज्जन बहु एक तरफ से जुबान बंद कर सकती हैं.
सज्जन दिन-रात यही सोचता और खुश होता, 
दोनों भाईयों ने मिलकर तय किया कि तेरहवीं के बाद 
पैसा निकाल कर आपस में बांट लिया जायेगा,
पूरे कार्यक्रम एक बार भी रुपये का हिसाब नहीं हुआ,
दोनों भाईयो ने मिलकर खूब खर्चे किये मां के अंतिम कार्यक्रम में.. 
                 
(3)

सभी कार्यक्रम बीत चुके थे,
सज्जन ने बड़े भाई मनोहर के पास आकर कहा 
"भैया चलिये डाकघर वो पैसे निकाल लेते हैं, 
मनोहर मुस्कुराकर बोला"कैसा पैसा मां का कोई बचत नहीं था, 
सज्जन के तोते उड़ गये एकदम सन्न मानों पांव से जमीन खिसक गया,
वो जोर लगाकर बोला" भैया मजाक मत करो, 
मां ने मरते दम क्या बोला आपकी कान में,
मनोहर ने मार्मिक होकर बोला "नहीं कुछ नहीं कहा 
बस आखरी बार गले लगाकर स्नेह देना चाहती थी,
अरे तू भूल गया कि हमारी मां.
उनके आँखों में एक आशा की किरण जो मेरे हृदय को जगा दिया,
कितने दुखों से हमे बड़ा किया.
आँसू की धारा फूट पड़ा, 
अब छोटा भाई सज्जन टूट चुका था
बचपना याद आ गया मां की वो आँचल जिसमे वो छिप जाता
अब उसका बाल हृदय फूट पड़ा वही जमीन पर लेट कर 
जोर-जोर से मां को याद करके छोटे बच्चे के भांति रोने लगा l 

पीछे सज्जन की पत्नी दरवाजे पर आ गई, 
वो बुजुर्ग महिला को जोर-जोर गाली बकने लगी लाखों रुपये खा गई, 
मरने के बाद बुढ़िया चैन से नहीं रहने दे रही हैं,
सज्जन उठकर अपने बेलगाम पत्नी को पीटना शुरू कर दिया.
पर्दा गिर जाता है।


                                                                     - अभिषेक राज शर्मा



कविताः मानसून आया...



मानसून आया
धरा हर्षाई
पेड़ों ने श्रृंगार पाया
पहाड़ों पर रंगत छाई।

आकाश छुप गया
ओट बादलों की 
बिजुरी करे इशारा
बूंदों की बजी शहनाई।

भाव बन के पानी
बह रहा सर्वत्र अब तो
तालाब की शोभा
फिर से लौट आई।

ठहरेगा कितने दिन
ये पाहुना धरा का
चला जायेगा यहाँ से
क्या करके भरपाई।

नया पानी पाकर
नदियों ने रंग बदले
लगती थी बूढ़ी बूढ़ी
अब दिख रही तरुणाई।

झरने लगे हैं गिरने
नालों पर चंढ़ी खुमारी
दुबक कहीं जा बैठी
गर्मी जो थी हरजाई।
        
                                              - व्यग्र पाण्डे



कविताः पीले पत्ते और बुढ़ापा



पीले पत्ते जो डाली से टूट जाते है, 
वैसे ही इंसान बूढ़ा होकर टूट जाता है, 
डाली के पीले पत्ते अपनी व्यथा कहते हैं,
वैसे ही बुढ़ापा अपना उम्र का राज सुनाता है।

पीले पत्तों की परवाह कोई नहीं करता है, 
बूढे इंसान को भी आज बोझ समझा जाता है, 
क्या हो गया है आज की पीढ़ी को, 
जो आया है वो ढल जाएगा 
ये क्यों नहीं समझा जाता।

कितनी कहानी कहती है वो बूढी आखें, 
कितनी कहानी कहती है वो पीले पत्ते, 
हम क्यों नहीं समझा पाते हम भी बूढे होंगे, 
और एक दिन गिर जाएंगे पीले पत्तों की तरह।

कितनी यादे होंगी उन पत्तों से हमें, 
कितने जतन से पाला होगा हमने, 
अब ना वो समय रहा ना ही वो लोग रहे, 
में देखता हूं पीले पत्तों को अपने बच्चों की तरह,
बहुत सारी यादे जुड़ी है उनसे,
 पीला पत्ता और बुढ़ापा एक दूसरे के पूरक हैं।
 
जैसे जिन्दगी की शान ढ़ल रही है,
वैसे ही पेड़ के पीले पत्ते झड़ रहे हैं,
बूढे लोगों का सम्मान कीजिए, 
उनसे प्यार के दो बोल बोलिये।

                                                        - गरिमा लखनवी


कविताः पेपर लीक

 

पेपर लीक कोई है करता 
खामियाजा कोई है भरता 
गरीब को तो मार दिया तूने
अमीर फिर भी नहीं है डरता 

हमारे तंत्र की रग रग में है भ्रष्टाचार
गरीब पर तो हो रहा है अत्याचार
पूरा साल जिसने कुछ नहीं पढ़ा
मेरिट में कैसे आया कुछ तो करी विचार

पेपर लीक की जड़ तक नहीं कोई जाता
संस्थान करोड़ों देकर पेपर को है खरीद लाता
संस्थानों में पढ़ने वाले मेरिट में हैं आ जाते
और गरीब का बच्चा भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता

संस्थानों की गर्दन पर जब लटकेगी तलवार
एक ही झटके में सब कुछ आ जायेगा बाहर
पिछले कितने सालों से चल रहा था यह धंधा
यह सब जनता के सामने हो जाएगा उजागर

भ्रष्टाचार मुक्त शाशन बार बार कहती है सरकार
फिर पेपर लीक कैसे हो जाता हर बार
पैसे का जो यह चल रहा है अजब खेल
गरीब आदमी की मेहनत पैसों के आगे जाती है हार

                                                                           - रवींद्र कुमार शर्मा