कालचक्र के अधीन सूर्योदय होता है। सूर्यास्त होता है , फूल खिलते हैं , मुरझा जाते हैं , नदियां बहती है , पहाड़ मोन खड़े हैं , हरियाली आती है , पतझड़ आता है , चारों मौसम गुजर जाते हैं.... और फिर से वापस आते हैं सागर भी अपनी मर्यादा में रहता है । मगर एक इंसान ही इस पृथ्वी पर ऐसा प्राणी है ...जो अपनी मर्यादा तोड़ देता है... इंसान जब पैदा होता है ....एक कोरे कागज के समान होता है।
कहते हैं ...हंसते हुए बच्चे में भगवान मुस्कुराते हैं... धीरे-धीरे वह बड़ा होता जाता है... परिवार से , समाज से ...कई तरह की सकारात्मक और नकारात्मक ऊर्जा ग्रहण करता जाता है। कई तरह के प्रपंच और पाखंडो में फंसता जाता है। ऐसा माना जाता है कि " इंसान पूजे जाते हैं ...क्योंकि वह रहस्य से भरे हुए हैं ...जिस दिन सारे रहस्य समाप्त हो जाएंगे ...उस दिन से नई खोज शुरू होगी " जानवर भी अपनी मर्यादा में रहते हैं।
वह भी प्रकृति के अनुसार चलते हैं और अपने स्वभाव नहीं छोड़ते ...मगर इंसान इसके ठीक विपरीत है। इंसानों में कई गुण जानवरों के समाहित हो जाते हैं । इंसान अपना भाग्य अपने कर्मों के आधार पर लिखता है। उसके कर्मों के अनुसार ही उसे सुख और दुख दोनों भोगने पड़ते हैं। " हर दुख में उसके स्वयं के हस्ताक्षर होते हैं " इंसानों ने अपने कर्मों के आधार पर स्वयं का जीवन नारकीय बना लिया है। वह स्वयं अपना नरक भोग रहे हैं। " वह अपने ही गुनाहों का सताया हुआ बेजान पुतला है... लोग कहते हैं शहर दर शहर उसे सुकून नहीं " यह कहावत इंसानों पर उपयुक्त बैठती है। आज का इंसान व्यसनों में इतना डूबा हुआ है कि... इस अनमोल जीवन को वह यूं ही रेत की तरह व्यर्थ ही बहा रहा है।
जैसे ही नववर्ष आता है । अपने आपसे झूठे वादे करता है दिसंबर के बाद जनवरी तो आ जाती है और नववर्ष की शुरुआत हो जाती है प्रतिदिन की तरह नया सूर्योदय भी हो जाता है मगर वह वापस उसी पुराने ढर्रे पर चलता रहता है । इंसान बहुत ही अजीबो गरीब प्राणी है । वह स्वयं को बदलने के लिए मंदिर मस्जिदों में दुआएं मांगता है। गुजरने वाला पल इंसान को बदलने का अवसर देता है। मगर इंसान स्वयं को बदलने के लिए नए साल पर झूठी कसमें खाता है।
बहुत अजीब बात है वह प्रति दिन गुजरते हुए सूर्योदय से भी सबक नहीं लेता है। ना वो सप्ताह से , ना महीने से , साल में एक बार वह कसमें खाकर सोचता है। अब बदलाव आ जाएगा , मगर बदलाव तब तक नहीं आएगा जब तक हुए स्वयं दृढ़ निश्चय ना कर ले। ना किसी नीम हकीम से , ना किसी मंदिर मस्जिद से , ना संतों की वाणी से, उसमें बदलाव आ पाएगा । वह तब ही बदल पाएगा ...जब वह स्वयं निश्चय कर ले ...वही पल उसके बदलने का होगा। मगर इंसान अपने आपका इतना गुलाम हो गया है... उसे लगता है कि वह बेड़ियों में जकड़ा हुआ है । मगर ऐसा कुछ भी नहीं है। इंसान से बड़ी शक्ति इस पृथ्वी पर किसी में नहीं है। इंसान में अपार शक्ति , संभावनाएं छुपी हुई है।
इंसान के अंदर इतनी उर्जा है ...मगर वह इसका उपयोग नहीं कर पाता और राह से भटक कर गलत राह पर चला जाता है। आजकल की भागदौड़ भरी जिंदगी में वह सिर्फ भागा जा रहा है। उसे यह भी नहीं मालूम... वह जिस दिशा में जा रहा है। वह सही है या गलत है... उसे तो फुर्सत से चिंतन करने का , मंथन करने का समय भी नहीं है। बस भेड़ चाल की तरह चला जा रहा है भीड़ की तरफ भागा जा रहा है। जब तक इंसान दृढ़ निश्चय नहीं करेगा ...उसमें बदलाव नहीं आ पाएगा... उसको कोई भी बदल नहीं सकता , स्वयं ही उसको बदलना पड़ेगा ।
अपनी सोच को विस्तृत करें । जब भी सोचें , बड़ा सोचे ...प्रकृति के करीब जाएं... नदियों को , पहाड़ों को , पेड़ो को , खिलते हुए फूलों को निहारे... दूर फैले आसमान को देखें ...अपने बच्चों से , परिवार से प्रेम करें... और सबसे महत्वपूर्ण बात... अपने आप से... स्वयं से प्रेम करना सीखें।
- कमल राठौर साहिल
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