साहित्य चक्र

31 January 2023

एक लड़की और अपनों का साथ




वो एक लड़की
पैदा हुई
पलने लगी 
बड़े नाजों से
सबने पलकों में अपनी 
सजाया उसे
प्यार से, दुलार से
घर के हर कोने की
बन बैठी
चहकती चिड़िया
हर हाथ बढ़े
उसे सम्भालने को
पर जब
हुई कुछ बड़ी
ये प्यार, स्नेह
ये ममता, ये दुलार
सुरक्षा के लिए
बढ़ते हाथ
लगने लगे भारी
हर बात लगने लगी बुरी
माँ की डांट 
मानो चुभने लगी
पिता का गुस्सा 
खटकने लगा
अनगिनत रिश्ते
और उनके नियम
कुछ चीजों पर लगी रोक 
बुरी लगने लगी
उनका हर पल ख्याल रखना
बोझ लगने लगा
पर क्यूँ... 
क्यूँ ये सब... 
कुछ समझ
माँ की डांट में
तेरी सुरक्षा की चाह
जो है नहीं बुरी
पिता के गुस्से में
तेरा छिपा
आत्मसम्मान है
जो है नहीं गलत
हर रिश्ते ने
जिसने तुझे देखा है
पलते-बढ़ते 
गोद में अपनी
हर उस रिश्ते को
परवाह है तेरी
कांटा तुझे चुभे
दर्द उन्हें होता है
गिर जाये 
गर तू
हाथ उठाने को
उनका बढ़ता है
ना रोका कभी तुझे
पंखों को फैलाने से
ना टोका तुझे कभी
खुली हवा को थामने से
ना बांधी कभी बेड़ियाँ
तेरे आगे बढ़ने पर
फिर क्यूँ  समझ नहीं पाती
अच्छे- बुरे को
क्यूँ दुनियाँ की चकाचौंध
तेरे कदम है डगमगा देती
क्यूँ अपनों को नजरअंदाज कर
लगती है तू चलने
गर्त की राह पर
जहाँ कभी तेरी 
लूटी जाती है अस्मत
कभी जाती है तू बेची
कभी हत्या तो कभी आत्महत्या
कभी जलती हुई
कभी एसिड की शिकार
बनती चली जाती है
गिर जाती है 
खुद की नज़रों में ही
और अंत में
अपने ही आते हैं तुझे याद
वही थामते हैं तुझे
वही संवारते हैं
फिर से तुझे
फिर क्यूँ नहीं समझ पाती तू उन्हें
तेरे और तेरे भविष्य की
उनकी चिन्ता को
बस बहुत हो चुका
खुद को समझ
खुद की महत्ता को समझ
अच्छे- बुरे की पहचान कर
दिखावे से बाहर निकल
अपनों का हाथ थामें
अपने आत्मसम्मान को 
साथ रख
बढ़ ले आगे
जी ले अपनी खुशियाँ
थाम ले अपने 
जीवन की डोर l

                                      - तनूजा पंत


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