साहित्य चक्र

26 October 2024

लेख- छोटे बच्चों की मोबाइल की लत के लिए मां-बाप जिम्मेदार


आप छोटी थीं तो समय बिताने के लिए क्या करती थीं? यह बात 30 साल की उम्र वाली किसी भी महिला से पूछा जाए तो वह अपने बचपन के खट्टेमीठे अनुभव के साथ याद करते हुए कहेगी कि सहेलियों के साथ घरघर खेलती थी, छोटेछोटे बर्तनों को ठीक से रखती थी, शाम को दोस्तों के साथ गार्डन में खेलती थी, बरसात में कागज की नाव बना कर उसे तैराती थी, मिट्टी गीली कर के उससे छोटीछोटी चीजें बनाती थी, मेला घूमने जाती थी और इसी तरह की तमाम चीजें कर के समय बिताती थी। अनेक प्रवृत्तियों से भरा हमारा बचपन सचमुच समृद्ध था। क्योंकि उस समय मोबाइल इस दुनिया में नहीं था।




25 से 40 साल की उम्र वाले हर व्यक्ति को चाहे लड़का रहा हो या लड़की, सभी को समृद्ध बचपन मिला है। क्योंकि तब मोबाइल का प्रकोप आज की तरह नहीं था। यह भी कहा जा सकता है कि वह समय बच्चों के लिए स्वर्णकाल था। हम समय बिताने के लिए मोबाइल के सहारे नहीं रहते थे। हमारे पास करने के लिए अनेक प्रवृत्तियां थीं। अब के बच्चों के पास यह स्कोप कम हो गया है। आज ज्यादातर पैरेंट्स और बच्चे मोबाइल का उपयोग खूब कर रहे हैं। लोग शिकायत करते हैं कि बच्चे गैजेट्स के आदी हो गए हैं। हम लोगों को जिस उम्र में मात्र खिलौनों से खेलना आता था, उस उम्र में हमारे बच्चे मोबाइल खोल कर यूट्यूब खोज लेते हैं और उसे चालू कर के मनपसंद के कार्टून देखते हैं। मोबाइल में पासवर्ड लगा रखा है तो एक बार बच्चे के सामने पासवर्ड खोल दिया जाए तो उसे झट पता चल जाता है। गैजेट्स के कारण बच्चों में स्मार्टनेस जल्दी आ जाती है। जबकि स्मार्ट होना तो अच्छी बात है, पर गैजेट्स की ललक बच्चे को न्युरोलाॅजिकल समस्या तक ले जा सकती है।





अधिक टाइम स्क्रीन का असर-
स्क्रीन टाइम को ले कर भी शिष्टता होनी जरूरी है। पहले 2 साल तक तो बच्चे को मोबाइल से बिलकुल दूर रखना चाहिए। इसके बाद 3 से 5 साल के बीच में उसे मोबाइल दिया जा सकता है, पर उसका मैक्सिमम समय एक घंटा रखें। 5 साल बाद यह समय घटा दें। मोबाइल में बच्चा कैसा कंटेंट देखता है, इसका भी ध्यान रखें। अगर उसे बारबार कंटेंट बदलने की आदत है तो उसे टोंके। यह अच्छी आदत नहीं है। अधिक देर तक मोबाइल का उपयोग करने से बच्चे को न्युरोलाॅजिकल समस्या हो सकती है। स्वभाव में अधीरता, गुस्सा, एक ही बात को रिपीट करने की आदत, एकाग्रता का अभाव, एडीएचडी आदि अनेक समस्याएं हो सकती हैं।

हमारा भूतकाल और बच्चों का वर्तमान- 
हम अपने बचपन को खंगालें तो ख्याल आएगा कि हमें पढ़ने का शौक अपने दादा-दादी या माता-पिता से डेवलप हुआ है। पहले के समय में ज्यादातर घरों में लोग किताबें रखते थे। जिन्हें पढ़ना नहीं आता था, वे अपने बच्चों को दूसरी प्रवृत्ति सिखाते थे और तमाम लोग यह कहते थे कि उन्हें पड़ना नहीं आता, पर तुम सीखो। वह हम सभी का भव्य भूतकाल था। हम ने मांटेसरी पद्धति से पढ़ना सीखा और जीवन की उपयोगी अन्य चीजें भी सीखीं। पर आज के बच्चों का क्या? नो डाउट हम अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाने का श्रेष्ठ प्रयत्न करते हैं, फिर भी हम जिस ऑथेंसिटी में बड़े हुए हैं, उसकी कमी कहीं न कहीं हमारे बच्चों के बचपन में अवश्य दिखाई देती है। इसका एक कारण हमारे स्वभाव का अधिक सेंसटिव स्वभाव भी कहा जा सकता है। दूसरा यह कि अब के बच्चे समय बिताने के लिए खिलौनों के बजाय मोबाइल नाम के खिलौने से खेलना पसंद करते हैं। इसके पीछे का कारण कहीं न कहीं हम खुद हैं।

बच्चा जो देखेगा, वही सीखेगा-
माता-पिता की सब से बड़ी शिकायत यह होती है कि बच्चा मोबाइल का आदी हो गया है। पहले इसी के विषय में बात करते हैं। आज का बच्चा बहुत कम उम्र से ही गैजेट्स और खास कर मोबाइल का क्रेज रखने वाला बन जाता है। इसका सब से बड़ा कारण हम खुद हैं। ञब हम खुद ही मोबाइल का उपयोग खूब करेंगे तो बच्चे भी वहीं सीखेंगे। छोटे से जब थोड़ी समझ डेवलप होती है तो बच्चा अपने आसपास के लोगों के हाथों में मोबाइल देखता है। उस समय गोद में सोए बच्चे को यह पता नहीं होता कि उसके माता-पिता या किसी के भी हाथ में यह क्या है? जो अधिकतर इनके हाथों में होता है। एकदम कमउम्र से ही उनके दिमाग में यह जिज्ञासा डेवलप होने लगती है कि मेरी ही तरह इम्पार्टेड यह क्या चीज है, जो सभी के हाथों में होती है। वह उसे अपनी बड़ीबड़ी आंखों से देखता रहता है। इसके बाद जब वह खाने-पीने में आनाकानी करता है तो मम्मी मोबाइल दिखा कर उसे खाने के लिए ललचवाती है। 





लगभग सभी बच्चों की मोबाइल देखने की आदत इसी तरह डेवलप होती है। 5 साल का होतेहोते यह आदत अतिशय बन जाती है। इसमें गलती उसकी अकेले की नहीं है, इसमें पैरेंट्स की भी उतनी ही गलती है। हम सभी बच्चों के सामने मोबाइल ले कर बैठ जाते हैं। वह बुलाता है या साथ खेलने के लिए कहता है तो हम सभी को मोबाइल देखने में खलल पड़ती है, तब हम सभी खीझ उठते हैं। हम सभी का यह ऐक्शन उन्हें सिखाता है कि जीवन में मोबाइल का कितना महत्व है। थोड़े समझदार बच्चे को अनुभव होता है कि मेरे पैरेंट्स को मेरी अपेक्षा मोबाइल ज्यादा महत्वपूर्ण है। आपकी यही बात वह फाॅलो करता है। इसके बाद हम सभी शिकायत करते हैं कि बच्चा मोबाइल का आदी हो गया है। जबकि उसकी यह आदत हम खुद लगाने वाले होते हैं। जब हम खुद मोबाइल नहीं छोड़ सकते तो बच्चों से कैसे उम्मीद रखें।

बेसिक आदत बदलने की जरूरत-
अब महिलाएं पौराणिक रीतिरिवाज फाॅलो करने लगी हैं। गर्भ के दौरान गर्भसंस्कार कराना और अच्छा साहित्य पढ़ना यह सब बेसिक है। महिलाएं अब यह सब करती हैं। पर यह पत्थर की लकीर नहीं है। यह सब होने के बावजूद बच्चे की आदत अच्छी ही होगी, यह जरूरी नहीं है। बच्चे के जन्म के बाद आप का ऐक्शन कैसा है, यह भी जरूरी है, क्योंकि बालक का पहला शिक्षक उसका घर ही होता है। वह घर में जैसा वातावरण देखेगा, वैसी ही उसके अंदर भी आदत डेवलप होगी। अगर बच्चा घर वालों को पढ़ता देखेगा तो वह भी पुस्तक प्रेमी बनेगा और वह मोबाइल का अधिक उपयोग करते देखेगा तो मोबाइल प्रेमी बनेगा।




बच्चे को कुएं का मेढ़क न बनाएं-
अपने यहां 2 तरह के पैरेंट्स हैं। एक वे जो एक अमुक उम्र तक बच्चों को घर से बाहर भेजने में डरते हैं और दूसरे जो बच्चों से बहुत कुछ करा लेना चाहते हैं। बाहर न जाने देने वाले पैरेंट्स बच्चों की मोबाइल या टीवी की लत के लिए सब से अधिक जिम्मेदार होते हैं। क्योंकि घर के अंदर रहने वाला बच्चा आखिर करे क्या? कितना इनडोर गेम खेले। आखिर में ऊब कर वह मोबाइल या टीवी देखने की जिद करेगा। ऐसा न हो, इसलिए बच्चे को बाहर ले जाएं, अन्य बच्चों से हिले-मिले। उसे कुएं का मेढ़क न बनाएं। अब दूहरी तरह के अपने बच्चे को सब कुछ सिखाने की अपेक्षा रखने वाले पैरेंट्स। इस तरह के पैरेंट्स भी अपने बच्चों के लिए खतरा हैं। अति की कोई गति नहीं। एक साथ सब कुछ सिखा देने की अपेक्षा रखना भी कम खतरनाक नहीं है। धीरज रखना चाहिए, समय के साथ सब हो जाएगा। बस, अपने बच्चों को अथेंटिक और गैजेट्स फ्री जीवन देने की कोशिश करेंगे तो बाकी सब अपने आप हो जाएगा।

                                                          - स्नेहा सिंह

25 October 2024

लेख- लेखन मात्र कमाई का जरिया नहीं


अब जब नोटफ्री आंदोलन के ज़रिये इस विषय पर ज़ोरदार चर्चा छिड़ चुकी है और आंदोलन के समर्थकों द्वारा बहुत आक्रामक और उपहासपूर्ण स्वर में इस विषय में तर्क दिए जा रहे हैं तो इसके कुछ और केंद्रीय आयामों पर बात कर लेना चाहिए। यहाँ पर सबसे बुनियादी प्रश्न यह है कि लेखक क्यों लिखता है? क्या वह आजीविका के लिए लिखता है? मान लीजिये कोई व्यक्ति आजीविका के लिए कोई कार्य करता है। वह एक दुकान लगाता है। उससे अगर कोई भलामानुष पूछे कि यह कार्य क्यों करते हो, तिस पर वह जवाब देगा- रोज़ी-रोटी के लिए। अगर उससे कहा जाए कि तुम्हें जितनी आमदनी होती है, वह मुझसे ले लो, लेकिन यह दुकान मत लगाओ- तब वह क्या करेगा ? सम्भव है वह पैसा ले ले और दुकान ना लगाए। 





किंतु अगर लेखक से कहा जाए कि फलां पुस्तक के प्रकाशन से तुम्हें जितनी आमदनी होगी, वह पैसा मुझसे ले लो किंतु पुस्तक मत लिखो- तब क्या लेखक पुस्तक नहीं लिखेगा? अगर वह पुस्तक पैसों के लिए ही लिखी जा रही है, तो सम्भव है वो पैसा ले ले और एक अरुचिकर कार्य करने से अपनी जान छुड़ाए। पर उसके बाद यह भी सम्भव है कि वह अपने समय और परिश्रम का उपयोग वह लिखने में करे, जो वह वास्तव में लिखना चाहता है। इस दृष्टान्त से हमें यह भेद दिखलाई देता है कि लेखन और आजीविका में कार्य-कारण का सीधा सम्बंध नहीं है, भले लेखन से आजीविका मिल सकती हो। किंतु लेखन की तुलना आजीविका के दूसरे साधनों से इसलिए नहीं की जा सकती, क्योंकि जहाँ वो दूसरे साधन विशुद्ध रूप से आजीविका के लिए होते हैं, वहीं लेखन किसी और वस्तु के लिए भी होता है।

मूलतः मक़सद यह स्पष्ट करना है कि लेखक का प्राथमिक दायित्व क्या है। लेखक का प्राथमिक दायित्व है लिखना और अपने लिखे को पाठकों तक पहुँचाना। एक बार यह दायित्व पूरा हो जाए, उसके बाद उसे अपने लेखन से जो धन, मान-सम्मान, सुख-सुविधा, उपहार आदि मिलते हैं, वो अतिरिक्त है, बोनस है। किंतु लेखक जब कोरे काग़ज़ का सामना करता है तब उसके सामने यह प्रश्न नहीं होता कि लिखने से कितना धन-मान मिलेगा, बशर्ते वो बाज़ारू लेखक ना हो। उसके सामने एक ही संघर्ष होता है और वो यह कि जो मेरे भीतर है- विचार, कल्पना या कहानी- उसे कैसे काग़ज़ पर उतारूं कि उसमें मेरा सत्य भी रूपायित हो जाए और पाठक तक भी वह बात किसी ना किसी स्तर पर सम्प्रेषित हो जाए।

यह कल्पना करना ही कठिन है कि आज से बीस साल पहले तक लेखक के लिए प्रकाशन कितना दुष्कर था। वास्तव में इंटरनेट के उदय से पहले लेखन का इतिहास अप्रकाशित पाण्डुलिपियों के ज़ख़ीरे से भरा हुआ है। आज लिखने की सुविधा हर किसी को प्राप्त है- पुस्तक ना सही तो पोस्ट ही सही, किसी पोस्ट पर कमेंट ही सही- किंतु आज से बीस साल पहले प्रकाशित लेखन एक लगभग एक्सक्लूसिव परिघटना थी। तब लेखन का सबसे प्रचलित माध्यम चिटि्ठयाँ ही थीं और लोग बड़े मनोयोग से पत्र लिखते थे। कोई लेख, कविता या कहानी लिखी तो उसे किसी पत्रिका या समाचार-पत्र को भेजते थे, उसे प्रकाशित करने का निर्णय सम्पादक के पास सुरक्षित रहता था। कोई पुस्तक लिखी तो उसकी पाण्डुलिपि भेजते थे, जिसके प्रकाशन का निर्णय प्रकाशक के पास सुरक्षित था। सम्पादक और प्रकाशक का वर्चस्व था, लगभग एकाधिकार था- इस प्रक्रिया में बहुत कम चीज़ें ही प्रकाशित हो पाती थीं। 

अख़बार में पाठकों के पत्र स्तम्भ में प्रकाशित होना भी तब बड़ी बात होती थी। आज जब सोशल मीडिया ने लेखक के लिए प्रकाशन सर्वसुलभ बना दिया है, उसे अपने लिखे पर तत्काल पाठक मिलते हैं और पाठकों की बड़ी संख्या उसकी पुस्तकों के प्रकाशन का पथ-प्रशस्त करती है- तब लेखक के अस्तित्व का प्राथमिक प्रयोजन- यानी अच्छे से अच्छा लिखना और अधिक से अधिक पाठकों तक पहुँचना- कहीं सरलता से सध जा रहा है। इसके लिए उसके मन में कृतज्ञता का भाव होना चाहिए। तब लेखक का यह कहना कि इसके लिए मुझको पैसा चाहिए, इसीलिए एक अर्धसत्य है क्योंकि इसमें यहाँ पर वह इस बात को छुपा ले जा रहा है कि उसके लिए प्रकाशित होना और पाठकों तक पहुँचना कितना बड़ा सौभाग्य है। और अगर यह ना होता तो वह अपनी रचना को लिए भीतर ही भीतर घुटता रहता।

लेखन की प्रकृति ऐसी है कि उसे दूसरी लोकप्रिय कलाओं- जैसे सिनेमा, रंगमंच, नृत्य या संगीत- की तुलना में कम प्रसार मिलेगा। शेखर एक जीवनी पढ़ने और सराहने के लिए एक विशेष प्रकार की शैक्षिक पृष्ठभूमि की आवश्यकता है, जो कोई नाच-तमाशा देखने, गाने-बजाने का आनंद लेने के लिए ज़रूरी नहीं। एक चलताऊ उपन्यास तक पाठक को खींचकर लाना भी एक सामान्य दर्शक को सिनेमाघर में ले जाने की तुलना में कहीं अधिक दुष्कर है। एक लेखक अपनी कला से कभी भी उतना सफल और धनाढ्य नहीं हो सकता, जितना कि एक फ़िल्म अभिनेता, खिलाड़ी, संगीतकार या नर्तक हो सकता है, बशर्ते देशकाल-परिस्थितियां उसके पक्ष में हों। 

नोटफ्री आंदोलन के कर्णधार इन तमाम तर्कों और तथ्यों को नज़रंदाज़ कर देते हैं। इतना ही नहीं, वो यह कहकर परिप्रेक्ष्यों को विकृत भी करते हैं कि लेखक जब किसी कार्यक्रम में जा रहा है तो वो अपना समय दे रहा है, जिसकी क़ीमत उसे मिलना चाहिए। जैसे कि जो आयोजक वह कार्यक्रम कर रहा है, उसके समय का कोई मूल्य नहीं है, या वह निठल्ला है? लेखक यह जतलाता है कि आयोजक को उसकी ज़रूरत है, पर वो यह छुपा जाता है कि उसे भी आयोजक की उतनी ही ज़रूरत है! उसे भी मंच चाहिए, विज़िबिलिटी चाहिए, नए पाठक और नए प्रशंसक चाहिए, उसे भी महत्व चाहिए, जो उस कार्यक्रम से उसे मिल रहा है। 

यह कार्यालय में काम करने जैसा नीरस नहीं है, जो लेखक यह तर्क देता है कि वह कार्यालय से छुट्‌टी लेकर आ रहा है, इसलिए उसे इसके ऐवज़ में पैसा चाहिए। लेखक को वैसे कार्यक्रमों में जो मान-सम्मान, महत्व-प्रचार मिलता है, उसे हासिल करना आज लाखों का सपना है (और जब लेखक युवा था और अख़बारों में अपनी कविताएं प्रकाशित करने भेजता था और उनके छपने की प्रतीक्षा करता था, तब यह उसका भी सपना हुआ करता था), लेकिन इस सपने को जीने का अवसर जब उसे मिलता है, तो लेखक यह जतलाता है मानो इसका कोई मूल्य ही ना हो, जैसे इसके लिए उसे स्वयं कुछ ना चुकाना हो, उलटे उसे इसके बदले में पैसा चाहिए ?

जब लेखक यह कहता है कि मैं पैसा लिए बिना किसी कार्यक्रम में नहीं जाऊंगा तो वह मन ही मन यह रूपरेखा भी बनाता ही होगा कि कितना पैसा? वह अपना एक रेट तय करता होगा। एक बार यह रेट तय होते ही यह निश्चित हो जाता होगा कि कुछ ही आयोजक उसे अफ़ोर्ड कर सकेंगे। किंतु ये जो आयोजक उसे अफ़ोर्ड करेंगे, वो लेखक में निवेश की गई राशि का रिटर्न कैसे पाएँगे (क्योंकि कोई भी लन्च फ्री में नहीं मिलता, यह नोटफ्री आंदोलन के कर्णधारों का प्रिय वाक्य है)। 

क्या कोई पूँजीपति अपनी जेब से पैसा लगाकर लेखक को एक दिन की वह सितारा-हैसियत दिलाएगा, या वह किन्हीं प्रायोजकों की मदद लेगा? ये प्रायोजक तब उस कार्यक्रम को कैसे प्रभावित करेंगे? क्या लेखक कविता या कहानी-पाठ के बीच में रुककर किसी प्रायोजक के उत्पाद (गुटखा या जूते?) का विज्ञापन भी करेगा? क्योंकि जब पैसे को ही सबकुछ मान लिया तो शर्म-लिहाज़ कैसी? जो आयोजक लन्च दे रहा है, होटल में रूम बुक कर रहा है, हवाई जहाज़ का टिकट दे रहा है, प्रोग्राम के लिए ऑडिटोरियम बुक कर रहा है और आपको लिफ़ाफ़ा भी दे रहा है- वो ख़ुद क्या यह सब फ्री में करेगा, क्या नोटफ्री  में उसका स्वयं का विश्वास नहीं होगा ?

मैं देख रहा हूँ कि नोटफ्री आंदोलन युवाओं में विशेषकर लोकप्रिय हो रहा है, क्योंकि ये पीढ़ी ही येन-केन-प्रकारेण सफलता की भाषा में सोचती है। किंतु दौर बदलने से दस्तूर नहीं बदल जाता। लेखक क्यों लिखता है, किसके लिए लिखता है, लेखक लेखन से क्या चाहता है- ये बुनियादी प्रश्न अपनी जगह पर तब भी क़ायम रहते हैं- इन्हें कोई बदल नहीं सकता।

मेरी पुस्तक बिके और मुझे उसका पैसा मिले- यह एक बात है- और मेरी पुस्तक कितनी बिकी, उससे मुझे कितना पैसा मिला, यही मैं रात-दिन सोचता रहूँ और पैसा कमाने के लिए ही लिखूँ- ये एक नितांत ही दूसरी बात है।

कोई आयोजक मुझे बुलाए, मान-सम्मान-मंच प्रदान करे और चलते-चलते अपनी सामर्थ्य से मुझे कुछ पैसा भी दे दे- यह एक बात है- किंतु मुझे पैसा दिया जाएगा तो ही मैं आऊँगा, यह भी नहीं देखूँगा कि मुझे बुलाने वाला कौन है, उसकी क्या क्षमता है, उसकी क्या प्रतिष्ठा है, उसके पास कितने उच्चकोटि के निष्ठावान श्रोता हैं- यह एक दूसरी ही बात है। और इन दोनों बातों में ज़मीन-आसमान, आकाश-पाताल का भेद है! 

जिस लेखक में इन दोनों में अंतर करने का विवेक नहीं, वो समाज को क्या मूल्य देगा? उसको तब कोई दुकान ही लगा लेना चाहिए, लेखन वग़ैरा उसके बस का रोग नहीं।


                                                       - प्रफुल्ल सिंह


कविता- अजनबी कौन हो तुम ?

!! अनमोल रिश्तें !!

आपस में रिश्ते एक स्नेह की जंजीर है।  
यह मानो एक डोर है यह एक अंजीर है।

ना तुम साथ रहकर निभा पाए। 
ना तुम अलग रहकर जोड़ पाए। 

गुजर रही है जिंदगी कब करोगे कोशिश? 
क्या? कभी नहीं नमाओगे अपना शीश?

संभलने को तो अभी-भी शेष है।
जान लो तुम अभी-भी विशेष है।

सर झुका कर हाथ ही तो आगे बढ़ाना है। 
बस सामने रिश्तों का अनमोल खज़ाना है।

*****




अजनबी कौन हो तुम ? 
मैं बात कर रही हूँ और मौन हो तुम।

क्या, आंखों-आंखों में ही सब कहोगे ? 
अपने दिल की बात मुझसे नहीं कहोगे। 
मुझे समझ नहीं आया तो क्या करोगे?  
तब तो मौन व्रत तोड़ोगे।

अजनबी कौन हो तुम ? 
मैं बात कर रही हूँ और मौन हो तुम। 

क्या, हाथों में हाथ ले दोगे मेरा साथ ? 
क्या, ऐसी भी होती है कभी मुलाकात ? 
ये कैसा रिश्ता है मौन में भी पिसता है ?
क्या तू कोई फरिश्ता है ?

अजनबी कौन हो तुम ? 
मैं बात कर रही हूँ और मौन हो तुम।

                                                     - संजय एम. तराणेकर 


22 October 2024

कविता- मेरा अस्तित्व




               क्या मेरे अस्तित्व के 
               कोई मायने
               रहेंगे ?
               अगर मैं उतार भी दूँ
               चेहरे ओर से चेहरा
               मेरे स्वयं का
               अस्तित्व ही पिघल
               जायेगा
               और
               मैं अनाम हो जाऊंगी।

                  तेज झंझावतों में उठे
                  धूलकणों की तरह
                  हो चुका होगा
                  जर्जर मेरा अंग-प्रत्यंग
                  मेरा वर्ण धीमा हो जाएगा
                  चेहरा, चेहरा नही रहेगा।

               काश !
               मेरी थोड़ी-सी सांस
               मेरी इच्छा के
               अधीन हो,
                    यह कौन-सी आज्ञा लेकर
                    तुम आये हो।

               मैं अकेली-सी पड़ गईं हूँ,
               मन करता है
               कि मैं
                अपने जख्म दिखा दूँ
                अपना आवरण उतार दूँ
                तब क्या
                मेरे अस्तित्व के
                कोई मायने रहेंगे ?
                  अगर मैं स्वयं ही 
                 आवरण उतार दूँ तो
                 मेरा नाम ही खो जायेगा।


                        - डॉ. पल्लवी सिंह 'अनुमेहा'


21 October 2024

कविता- बेटी




जब-जब बेटी आती,
धरा पर संग लाती,
खुशियां अपार,
ईश्वर का उपहार हैं बेटियॉं, 
सूर्य की प्रथम किरणें हैं बेटियॉं,
माता-पिता की भौंर हैं बेटियॉं,
तारों से शीतल छाव हैं बेटियॉं,
घर-प्लऑंगन में चिड़ियों-सी,
चहचहाट हैं बेटियॉं,
गुलाब,जूही,चंपा,चमेली,
मोगरा-सी खूशबू हैं बेटियॉं, 
दो कुल को रोशन करती हैं बेटियॉं,
कोयल-सी मधुर गीत हैं बेटियॉं,
माता-पिता का सौभाग्य होती हैं बेटियॉं,
पंचामृत में तुलसी-सी हैं बेटियॉं,
मॉं की सखि हैं बेटियॉं,
खिलती कली है बेटियॉं, 
पुलकित सुमन-सी हैं बेटियॉं,
मॉं बाप का दुख-दर्द दूर करती हैं बेटियॉं,
घर की रोशनी हैं बेटियॉं, 
परसों होती हैं बेटियॉं,
अंश और गर्व होती हैं बेटियॉं,
संस्कार और संस्कृति हैं बेटियॉं, 
बाग और दुआ हैं बेटियॉं,
देवी का रूप हैं बेटियॉं, 
मॉं की इच्छा हैं बेटियॉं, 
पिता का अभिमान हैं,बेटियॉं,
चंदन की महक हैं बेटियॉं,
पापा की लाड़ली दुलारी परी हैं बेटियॉं।

                                         - संगीता सूर्यप्रकाश मुरसेनिया 


कविता- जीवन हमारा होगा




चाँदनी रातों  में जो साथ तुम्हारा होगा,
कितना खुशहाल ये जीवन हमारा होगा।

अँधेरी रातों में जो हाथ तुम्हारा होगा,
जिंदगी जीने का एक सहारा होगा।

कि अगर कर दिया तुमने इशारा तो,
फिर तो मुझे मरना भी गवारा होगा।

यु लहरों को मिलता किनारा होगा,
डूबते को तिनके का सहारा होगा।

हँसते हुए पी लेते हैं ग़मों का साग़र,
हमको कभी तो तुमने पुकारा होगा।

तुम्हारे अलावा भी कोई हमारा होगा,
यह हमको कभी नहीं गवारा होगा।

कुछ यूँ तड़पाता है दिल तन्हाईयों मे,
क्या ऐसा प्यार भी तुम्हें दुबारा होगा।

                                             - अनिल चौबीसा


20 October 2024

कविता- आंगन में बेटी




खेलती है बेटी जब आंगन में
किसका मन नहीं खिलता है
बेटी का संग जीवन में
किस्मत वालों को ही मिलता है

आँगन में बेटी जब हंसती है खिलखिलाती है
हंसी उसकी देख खुशी दुगनी हो जाती है
लिपट जाती है जब दौड़ कर वह गले से
सारी थकान दिन भर की पल में उतर जाती है 

आंख से नहीं दिखता था बाप को
बेटी रोज़ वीडियो कॉल लगाती थी
उसका चेहरा तो बाप देख नहीं पाता था
बाप को खुश देखकर बेटी खुश हो जाती थी

दूर हो सकता है बेटा 
बाप की दौलत की चाह में
लेकिन बेटी छोड़ नहीं सकती कभी
माँ बाप को अकेली सुनसान राह में

बेटी से है घर की रौनक 
खुशियां मिलती है अपार
चली जाती है जब बेटी
लगता जैसे रूठ गई हो बहार

                               - रवींद्र कुमार शर्मा


19 October 2024

कविता- भारतीय संस्कृति को संजोता पर्व






आश्विन माह के शुक्ल पक्ष में आता ये त्योहार है,
दुर्गा पूजा कहते जिसको पूजे सब संसार है।

दस दिवसीय हिंदू पर्व ये, संस्कृति का उपहार है,
जीत बुराई पर अच्छाई, का ही बस ये सार है।

दुर्गोत्सव भी कहलाता है, अहम पे करता वार है,
नारी शक्ति को देता बल ये, महिषासुर संहार है।

दुष्टों पर हमला करने दुर्गा लेती अवतार है,
पावन धरती पर अपनी जब, बढ़ता अत्याचार है।

स्नेह बूंदों से कर के सिंचित भर देती भंडार है,
जगजननी ही सब भक्तों का करती बेड़ा पार है।

मां की महिमा गा पाए हम, हम पर मां का उपकार है,
उत्तर भारत में भी पूरव में भी जय जयकार है।

                                      - पिंकी सिंघल 

कविता- तितलियाँ



तिश्नगी मेरी बुझने का नाम कहां लेती है।

मेरे बस में नहीं है कि मैं उनको छू भी पाऊं। 
तितलियां आके आंगन में मेरे बैठ जाती हैं।

राब्ता भी नहीं कोई वास्ता भी नहीं है तुझसे। 
याद आकार के मुझे क्यों ख्वाब में सताती है।

रात ये भारी है और दिन भी है परेशान मेरा।
नींद अक्सर ही मुझे बेवजह रूठ जाती है।

धड़कनों को दिल की मेरे कौन समझेगा।
तस्वीर तेरी देखकर मुझको मुस्कुराती है।

तिश्नगी मेरी बुझने का नाम कहां लेती है।
मद भरी आंखें फ़िर मुझको याद आती हैं।

माज़ी के वो लम्हे जब भी पलट कर देखूं।
दिल की धड़कनों में तू ही तो मुस्कुराती है।

लबों का अपने मैंने सिया तो नहीं है मुश्ताक़।
अंदाजे़ गुफ्तगू मुझको भी तो बड़ी आती है।

                           - डॉ. मुश्ताक़ अहमद शाह 

ग़ज़ल- कोई न था



मैं  खड़ा  था  बस अकेला दूसरा कोई न था।
दूर तक देखा बहुत पर काफ़िला कोई न था।

ले  सके  उनसे  सबक़ तैयार सा कोई न था।
पढ़ रहे थे  सब  किताबें  मानता कोई न था।

आदमीयत के लिए करता रहा सब की मदद,
उन सभी से  दूर तक भी  वास्ता कोई न था।

अबउन्हेकिस नामसे आखिर पुकारूँआज मैं,
क़त्ल के  शाहिद सभी थे बोलता कोई न था।

आदमी से  गलतियाँ  होती  रहीं  हर  दौर  में,
कुछ गलत हर आदमी था पारसा कोई न था। 

                               - अब्दुल हमीद इदरीसी


कहानी- जीवन की सबसे बड़ी खुशी


सबसे पहले देश के सही मायने में  सच्चे भारत रत्न, औद्दोगिक क्रान्ति के महानायक स्वर्गीय श्री रतन टाटा जी को विनम्र श्रद्धाञ्जली अर्पित करते हुये आप सभी को यह बताना चाहता हूँ कि उन्होनें जब एक बच्चे से, "मैं आपका चेहरा याद रखना चाहता हूँ ताकि जब मैं आपसे स्वर्ग में मिलूं, तो मैं आपको पहचान सकूं और एक बार फिर आपका धन्यवाद कर सकूं", सुन जीवन की सबसे बड़ी खुशी महसूस की।




उपरोक्त स्वीकारोक्ति उन्होंने एक टेलीफोन साक्षात्कार में  रेडियो प्रस्तोता द्वारा पूछे गये प्रश्न, "सर, आपको जीवन में सबसे अधिक खुशी कब मिली?" के जबाब में कहा था।

उस टेलीफोन साक्षात्कार में  रेडियो प्रस्तोता को उन्होंने विस्तार से समय-समय पर मिली उपलब्धियों के दौरान मिली खुशियों को बताते हुवे कहा -जीवन में चार चरणों से गुजरने के बाद अंततः मुझे सच्चे सुख का अर्थ समझ में आया।"

उस घटना का उल्लेख करते हुवे उन्होंने बताया कि मेरे एक मित्र ने मुझे करीब दो सौ विकलांग बच्चों के लिये पहियेदार कुर्सी उपलब्ध करवा देने की सलाह दी।  मैंने अपने दोस्त के अनुरोध पर तुरन्त पहियेदार कुर्सी खरीदीं। लेकिन मेरे मित्र ने आग्रह किया कि मैं उनके साथ जाकर खुद उन बच्चों को यह भेंट करूं।

मैंने जब सभी बच्चों को अपनी हाथों से पहियेदार कुर्सी दीं तब उनकी आंखों में जो खुशी की चमक देखी, वह मेरे जीवन में एक नया एहसास लेकर आई। उन बच्चों को उन पहियेदार कुर्सीयों पर घूमते और मस्ती करते देखना ऐसा था, मानो वे किसी मनोविनोद स्थल पर हों और किसी बड़े उपहार का आनंद ले रहे हैं।

इन सबके बाद जब उस स्थान से लौटने को हो रहा  था, तभी एक बच्चे ने मेरी टांग पकड़ ली। मैं कुछ समझा नहीं, अतः धीरे से पैर छुड़ाने की कोशिश की तब उसने और जोर से पकड़ लिया। यह देख मैं झुककर उससे पूछा, "क्या तुम्हें कुछ और चाहिये ?"

उस बच्चे का जवाब न केवल खुशी दी बल्कि जीवन बदलने वाला था। उसने कहा - "मैं आपका चेहरा याद रखना चाहता हूँ ताकि जब मैं आपसे स्वर्ग में मिलूं, तो मैं आपको पहचान सकूं और एक बार फिर आपका धन्यवाद कर सकूं।"

इस एक वाक्य ने न केवल मुझे  झकझोर दिया, बल्कि जीवन के प्रति दृष्टिकोण को पूरी तरह से बदल दिया। यह अनुभव मुझे समझा गया कि सच्ची खुशी दूसरों की सेवा में है, न कि भौतिक संपत्तियों में।


उपरोक्त घटनाक्रम से स्वर्गीय रतन टाटाजी अपने जीवन सफर अर्थात २५ वर्ष से ८७ वर्ष तक में आखिरकार सच्चा सुख निस्वार्थ सेवा में निहित है को समझ हम सबको भी एक सीख दे गये हैं।

 
"रतन रतन था, रतन रहेगा, सूरज सा वह दीप्त रहेगा,
युवा दिलों की धड़कन बनकर, हर युग में वो राज करेगा।"



                          - गोवर्धन दास बिन्नाणी 'राजा बाबू' 



कहानी- "रात भर का सफर"


         सफर तो सफर है, यह जिंदगी ही एक सफर है और उसमें अच्छा हमसफर मिल गया और वह जितना सुख यात्रा में देता है, उतना ही दुख वह मंजिल पर बिछड़ जाने में देता है।





          अगर हमसफर निर्दयी, कठोर और कुटिल मिलता है तो पूरी यात्रा ही दुखदाई बना देता है और कब उसका स्टेशन आए और वह उतर जाए यही इंतजार रहता है। और उसके बिछड़ने में कोई दुख नहीं होता है। लेकिन अपनी मंजिल करीब आ गई हो तो फिर क्या फायदा हर्ष क्या विषाद क्या ?
            शाम की ट्रेन बरौनी एक्सप्रेस में स्लीपर कोच की सीट ए सी बी 3 में तबदील हो गई थी। मेरी नीचे की सीट थी और मेरे सहयात्री की ऊपर की सीट थी। लेकिन मेरी नीचे की सीट पर सामने वाली नीचे की सीट पर एक नव युवती जो अति रुपवती और करभोरु थी, आसीन थी।

            अंदर से दिल भयभीत हो रहा था। बिहार के लोगों के प्रति जो भय मेरे दिमाग में भरा गया था वह कोई नया नहीं था। 

            ऐसा नहीं है कि, बिहार की मेरी यह पहली यात्रा थी। लेकिन इस बार बिहार की मेरी यात्रा धार्मिक नहीं एक विशेष कार्य की थी जो मेरे साथ यात्रा कर रहे रामनाथ के लिए थी और उसमें एक दिन नहीं दो दिन भी लग सकते थे। इसीलिए हमने वापसी का टिकट बुक नहीं कराया था।

            वह सुंदरी लगता है अकेले ही यात्रा कर रही थी। कुछ औपचारिक बातें उसकी हमारी हुई थी बस! वैसे भी वातानुकूलित डिब्बे में ज्यादा दिक्कत नहीं होती है और भीड़भाड़ भी नहीं रहती है, जनरल वाले यहां कम ही तशरीफ लाते हैं।

           रामनाथ भी स्वभाव का अच्छा व्यक्ति था और मेरी उसकी अच्छी खासी पटती थी। हम एक ही वर्तन में खाना पीना कर लेते थे। 

            इस बार की यात्रा से एक नया अनुभव मिलेगा और वहां के सरकारी आफिस और आफिसर के बारे में जानकारी प्राप्त होगी। कार्यालयों की कार्य प्रणाली को जानने समझने का मौका मिलेगा। ऐसे मैं सोच रहा था कि, उस नवयौवना ने बिना किसी भूमिका, औपचारिकता के मुझसे प्रश्न कर दिया, "आपको कहां तक जाना है?" 

            मेरे मन के तार झनझना उठे और मैंने बहुत ही शालीनता से, जितना नम्रता वाणी में बन सकी उतनी नम्रता से कहा, "हमें मुजफ्फरपुर जाना है!" 

            मैं और कुछ कहता पूछता कि उसने पहले ही बताया कि, "मैं भी मुजफ्फरपुर तक ही जाऊंगी!"

            मन तो बहुत कुछ सोच रहा था। अभी तक हम किसी रिश्ते के तहत कोई संबोधन, कोई भी बात नहीं किए थे!

            मैं कल्पना के सागर में डूबने - उतराने लगा था। सोच रहा था कि, बिहार में इतनी सुंदरता है क्या? पता नहीं यह बिहार की है या और किसी अन्य प्रांत की! इसी उहापोह में मैं फंसता जा रहा था कि, इसके साथ कैसा रिश्ता बनाना ठीक रहेगा और इसके मन में क्या है ?

           उसी ने फिर पहल किया। उसने कहा, "क्या सोच रहे हैं आप ?"

             मेरी चोरी जैसे पकड़ी गई हो और मैं नींद से जैसे जगा होऊं, मैंने कहा, "कुछ नहीं, कुछ नहीं!" 

             उसने पूछा, "आप कहां से हैं!" 

             मैंने कहा, "मैं उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश बार्डर से हूं और आप कहां से हैं!" 

             मैंने हिम्मत करके पूछ ही लिया। उसने कहा, "मैं बिहार से ही हूं!" 

             मैं कुछ और पूछना चाहता था कि, उसने फिर कहा, "मेरी आदत है, बातचीत अच्छे लोगों से करने की! मोबाइल बहुत देर तक नहीं देखा करती हूं! यहां इस यात्रा में आप हमारे पड़ोसी हुए भिर भी आप शरमा क्यों रहे हैं ?"

            उसकी इन बातों से मैं आह्लादित हो गया और मेरी हिम्मत बढ़ गई थी। मैं कोई अच्छा आदमी उसे लग रहा हूं, भला बताइए चेहरे से किसी की पहचान संभव है क्या ?

            मैं भी सहयात्री से संपर्क चाहता था लेकिन विषमलिंगी से थोड़ी झिझक महसूस कर रहा था। अब मैं बहुत खुश था। मन साफ होकर भी कुछ सीमाएं लांघने की इच्छा कर रहा था और कोई मजबूत साथ बनाने को मन करता था।

            अब खाना खाने का समय आया और रामनाथ अपनी ऊपर की सीट से उतर आया और मैंने उस वरारोहे से कहा, "खाना आप भी खा लीजिए!"

          "हां, मैं भी यही कहना चाहती थी!" उसने अपने झोले को खोलते हुए कहा था।

            मैंने कहा, "इसी में खाते हैं, आज हमारे यहां के खाने का स्वाद लीजिए न!" 

             उसने कहा, "हम सब भारतीय हैं और थोड़ी बहुत अंतर से खाना खाया करते हैं!"

             मैंने कहा, "आप शायद मछली...! कहते हैं अगर शादी में मछली नहीं परोसी गई तो बाराती नाराज हो जाते हैं!" 

            वह खुलकर हंसी, उसकी हंसी ऐसी लगी थी मुझे जैसे मंदिर में घंटी बजने लगी हो और मैंने देखा जैसे उसके होंठों से गुलाब झड़ रहा हो! उसने कहा, "ऐसी तो कोई बात नहीं है और हम भी शाकाहार पसंद करते हैं!"
            हमारी सब्जी और खटाई उसने लिया और उसने हमें चूड़ा दिया जो खाने में बहुत ही उत्तम, स्वादिष्ट था। 

            समय गुजरने में देर नहीं लगती और रात्रि के नौ बज गए थे। अब सोने की तैयारी करने लगे हम लोग!

            उसी कम्पार्टमेन्ट में बगल की सीट से दो आंखें उस लड़की पर निगाहें गड़ाए हुए थी जो हम लोग नहीं जान पाए थे। 

            सभी लोग सो गए थे। मुझे नींद नहीं आ रही थी। मुझ सुंदर के पुजारी को अभी भी कल्पनाएं सतायमान कर रही थी। 

           गैलरी में से हल्की मद्धिम रोशनी आ रही थी। तभी बगल की सीट पर हलचल हुई और एक भौंड़ा सा आदमी सीट से उतरकर गैलरी में खड़ा होकर इधर उधर देखने लगा था शायद वह कोई जाग तो नहीं रहा है और पुलिस वालों की भी आहट ले रहा था।

           वह चलकर उस नवयुवती के मुह पर से चद्दर हटाया और उसके मुंह को दाब लिया। वह छटपटाई लेकिन आवाज नहीं निकल पा रही थी। वह उसके ऊपर चढ़ता तब तक मैं अपने आपको रोक नहीं पाया और उसके टांगो के बीच में मेरी जोरदार लात पड़ गई। वह झुका था कि, मेरा पैर उठ गया था।

            पता नहीं कहां उसके लगा था मेरा लात, कि वह बिलबिला कर सीधा हो गया और उसकी पकड़ से उस लड़की का मुंह छूट गया था। 

            वह लड़की फुर्ती से खड़ी हो गई और उसने उस दरिंदे को एक लात मारी और वह भाग गया। इतने में रामनाथ भी जाग गया था और मैं उससे कहा, "पुलिस को बुलाऊं, वह ट्रेन से जाएगा कहां!"

            वह बोली,  "तमाशा करने से कोई फायदा नहीं है और पुलिस वालों को आप जानते हैं, सब मिली भगत भी हो सकती है!"

            उसने हाथ जोड़कर मेरा आभार व्यक्त किया और कहा, "यह लीजिए मेरा पता और मोबाइल नंबर, अगर दिक्कत हो तो मुझे बुला लेना! ऐसा भी कर सकते हैं मेरे यहां चलकर नहा-धोकर, खाना खाने के बाद अपने काम के लिए चले जाना! आप चिंता मत करना मैं मछली नहीं खिलाऊंगी!" 

         और हम हंस पड़े थे। गाड़ी अपनी तेज रफ्तार में दौड़ रही थी और वह मुझे अपनी सीट में बैठाकर 'सो जाओ' कह रही थी।

            लेकिन उस घटना से उसकी भी और मेरी भी नींद कोसों दूर भाग गई थी। उसने अपना सिर मेरे कंधे पर रख दिया था। मेरी हालत क्या हो सकती है; आप अनुमान लगा सकते हैं। मैं स्वर्ग के झूले पर झूल रहा था।

            मैंने उसे दूर नहीं किया बल्कि और पास में लाकर अपने बदन में छुपाकर उसे चद्दर ओढ़ा दिया था और वह सो गई थी। जैसे, कुछ हुआ ही नहीं था और वह अपने आपको कवच में सुरक्षित महसूस कर रही हो!

            सुबह का मंजर वही सुबह के चार बजे वह जागी और बैठ कर मुझे पड़ने के लिए मजबूर कर दिया और मेरा सिर अपनी कोमल जांघों पर रख दिया और कहा, "सो जाओ घंटे दो घंटे के लिए, गर्मी उतर जाएगी और यह गाड़ी आठ बजे ही मुजफ्फरपुर पहुंचेगी। अब मैं जागती रहूंगी!"

           मुझे कब नींद आ गई मैं जान नहीं पाया और जब उसने मुझे प्यार से जगाया तब तक स्टेशन आ गया था। हम लोग झोला लेकर तैयार हुए कि गाड़ी रुक गई थी।

            जब हम उसके साथ नहीं गए तो वह रो पड़ी थी और मैंने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा था, "अभी आप जाइए, हम एक बार जरूर आएंगे आपके यहां!" 

            और वह चली गई थी। हमने स्टेशन के सामने एक गेस्ट हाउस में कमरा लिया और नहा धोकर तैयार हुए फिर चल दिए पुलिस हेडक्वार्टर की ओर वहीं हमारा काम होना था।

            हमें शहर के एक थाने में भेजा गया। वहां जाकर हमें बिस्वास ही नहीं हुआ कि, थ्री स्टार वाली वर्दी पहने हुए यह वही खूबसूरत लड़की हमें फिर मिल जाएगी।

            उसने देखते ही हमें पहचान लिया और तुरन्त वह खुद जा जा कर हमारे काम उसी दिन करवा दिये थे।

            काम हो जाने पर हम लोगों ने करंट में रिजर्वेशन करवा लिया। उसके बिना मन हम लोग स्टेशन आ गये थे।

            वह अपनी ड्यूटी करने के बाद सीधे स्टेशन पर पहुंच गई और हमें खिलाती रही। 

            हमारी गाड़ी आई और हमें बैठाते वक्त वह फफक कर रो पड़ी थी। लोग एक पुलिस इंस्पेक्टर को रोते देखकर विस्मित हो गये थे। मैं उसे फिर आने का वादा किया था; जिसे आज तक नहीं निभा पाया हूं।

            इतना सब होने के बावजूद अपने और उसके बीच के रिश्ते को मैं अभी तक नाम नहीं दे पाया हूं और उसकी ओ जाने। 

          उस रात भर के सफर को याद करके मैं आज भी रोमांचित हो जाता हूं और मेरी आंखों से चंद अश्रुबिंदु गिर ही जाते हैं, पता नहीं यह खुशी के हैं या गम के!

                                       - डॉ. सतीश "बब्बा"