साहित्य चक्र

30 January 2022

कविताः माँ-बच्चा




धूप में दिनभर बाप जलता है, चूल्हे पे मां तपती  है,
तब कहीं जाके इस जमाने में, घर-गृहस्थी चलती है।।

           थकानें पूरे दिन की वो, जो माथे पर झलकती है,
           शाम मुस्काते बच्चो की, हंसी में ही पिघलती है।।

भले दिन भर मशक्कत बाद खाली हाथ लौटे बाप,
जब बच्चे मुस्कराते हैं, कसम से जां निकलती  है।।

          बाप का हाथ घिसता है, लकीरे मां की भी मिटती हैं,
          कहीं जाके फिर औलादों की, तकदीरे  लिखती  हैं।।

कभी जो झांककर देखो, तनिक उन धुन्धली आन्खो में,
ख्वाब  अपने  सुलाकर सब, तुम्हारे ख्वाब  बुनती  हैं।।

          उन्हे चिन्ता ना खाने की, दवाई की  ना  जीने  की,
          फिक़र बच्चो की बस उनको, आठो धाम रहती है।।

भले कितनी  उमर के  भी, बड़े  हो जाते  है बच्चे,
कि लम्बी उम्र खातिर और, मां उपवास करती है।।

           जमाने भर की  दौलत को, कमा लेते हैं  वो  बच्चे,
           विरासत में बुजुर्गों की दुआएं, जिनको मिलती हैं।।


                                                      पंकज श्रीवास्तव 


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