वो लौट के आई थी
लेकिन अब मैं वैसा नहीं था
उस होने में और अब होने में
कितना कुछ बदल गया था
प्रेम, लगाव, अपनापन और
इस तरह के हर शब्दों की
जाने कितनी परिभाषाएं
मन ने बना ली थीं
तब मन जानता नहीं थी कि
जब कोई अच्छा लगता है
तो कैसा लगता है
किसी को देख लेने भर से
कैसे दिल धड़कता है
किसी की याद में घंटों बिताना
कैसा लगता लगता है
किसी का देख कर यूँ मुस्कुराना
कैसा लगता है
तब पता नहीं था कि प्रेम में
स्वाभिमान आहत नहीं होता
तब पता नहीं था कि
किसी के ना मिलने से
प्रेम खत्म नहीं होता
तब पता नहीं था
किसी से प्रेम हो जाना
मुझे इतना अच्छा बना देगा
कि मैं किसी से नफ़रत नहीं कर पाऊंगा
अब भी मैं प्रेम का होना स्वीकार नहीं कर पाता
क्योंकि मैं डरता हूँ कि ये स्वीकार करते ही कि
मुझे उससे प्रेम है
मैं फिर से उसे खो दूंगा
लेखक- अभिषेक कुमार मिश्र
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