साहित्य चक्र

30 January 2022

कविताः शराब माफ़िया




शराब माफ़िया का फैला जाल
खबर नहीं किसी को कानों कान
कैसे यह धंधा चलता रहा इतने दिन
न पुलिस ने न एक्साइज ने दिया ध्यान

पैसे के खेल ने काम दिया बिगाड़
मेज के नीचे से पैसा चल रहा था
किसी की मजाल बिना पैसे के होता
तभी तो यह धंधा खूब पल रहा था

मन में क्यों नहीं आया तेरे
नकली दारू क्यों बना रहा
चार पैसों की खातिर लालची
क्यों अपनों की चिता जला रहा

मिलावट करके तूने क्या पाया
कई घरों के बुझा दिए चिराग
पुलिस और आबकारी दोनों
सोए क्यों थे अब तक विभाग

कितना स्वार्थी आज हो गया
मालिक देख तेरा इंसान
पैसे के लालच में रहता
दूसरे को समझता जानवर समान

दूसरों के स्वास्थ्य से जो कर रहे खिलवाड़
बंद क्यों हैं उनके लिए जेलों के किवाड़
मौत की सूली पर चढ़ा दो उन्हें
हरी भरी जिंदगियां जिन्होंने दी उजाड़

बड़ा दुखद है हमारे तंत्र का घटना 
घटित होने के बाद ही हरकत में आना
यदि पहले से विभाग रहें सतर्क
तो किसी को न पड़े फिर पछताना


                                      लेखक- रवींद्र कुमार शर्मा


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