साहित्य चक्र

01 December 2018

भाव में


भाव में
ज्ञात में अज्ञात में
विचार में व्यवहार में
प्रेम में घृणा में
पाप में पुण्य में                
सब में भय !
मेरा शरीर मेरी संम्पत्ति
मेरा यश मेरी प्रतिष्ठा
मेरे संबंध मेरे संस्कार
मेरा विश्वास मेरे विचार           
सब मे भय !
यही "मैं"  मेरे प्राण बन गए
मृत्यु मुझे " मैं " को छीन लेगी            
इसमें भय !
जिसे हम भय सोचते है
सुनते समझते है
वह " मैं "  झूठ हूँ  सर्वधा झूठ !
क्योंकि......न
जैसे तन से " मैं " का त्याग हुआ
भ्रांतियां टूटने लगी
अहंकार से युक्त कामनाएं
हृदय से मुक्त होती चली गई।
"मैं" मेरापन सब मिटता गया
पर हितार्थ जीने के सिवा
अब कोई बिषय कहाँ रहा।
      
मैं सेवक साधन ये सृष्टि        
जीवन मे अब भी भय कहाँ !!

           सुशीला राजपूत


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