साहित्य चक्र

24 May 2022

कविताः नारी हूँ




हां मैं 21 वी सदी की नारी हूं,
आदर करना जानती हूं,
तो अत्याचार के खिलाफ
सर कुचलना भी जानती हूं,
हां मैं 21 वी सदी की नारी हूं,

रीति रिवाज निभाने में भी सक्षम हूं,
पर अंधविश्वास को आंख मुन कर स्वीकारना
मुझे गवारा नहीं, संस्कारों की मर्यादा भी जानती हूं,
पर कुप्रथाओं के बोझ तले दबना मुझे गवारा नहीं,
हां मै 21 वी सदी की नारी हूं,

जीन्स पहना गवारा हैं,पर अंग प्रदर्शन कर
औरत जात की नाम की बेज्जती करूं ये गवारा
नहीं, नौकरी करना स्वाबलबी  बनना जानती हूं,
पर उसका धौस अपनो को दिखाऊं ये गवारा नहीं,
हां मै 21 वी सदी की नारी हूं,

हां मै बहुत जल्दी धैर्य खो बैठती हूं,पर खुद से खुद का
धैर्य बांधना भी जानती हूं, दूसरे मुझे सभाले ये गवारा नहीं,
खुद का सम्मान भी बहुत करती हूं, पर बुजुर्गों का कोई तिरस्कार
करें ये गवारा नहीं,
हां मैं 21 वी सदी की नारी हूं,

बहुत जल्दी टूट भी जाती हूं,पर सबके सामने टूटकर बिखरना
हमें गवारा नहीं,खुद टूटती हूं, बिखरती हूं,और खुद को ही समेटती हूं,
और मुझे आजादी भी पसंद हैं, 
पर आजादी के नाम पर माता पिता का सर झुकना हमें गवारा नहीं, 
हां मै 21 वी सदी की नारी हूं।


                                      लेखिका- मनीषा झा




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