साहित्य चक्र

25 May 2022

"कुछ तो गुनाह हुआ है"





कुछ तो गुनाह बड़ा हुआ है
मनुष्य से ऐ मेरे खुदा,
वरना सड़कों पर दौड़ती मौत और
जिन्दगी घरों में यूँ कैद न होती।
अथाह सम्पत्ति ऐसो आराम कमाने के बाद भी,
चन्द साँसों के लिए इतनी जद्दोजहद न होती।
हर मुसीबत से लड़ने वाली माँ,
बच्चों की भूख पर यूँ व्याकुल न होती।
खुशियाँ सिमट कर रह गई चार दीवारों में,
कफ़न खरीदने की बाजारों में इस तरह होड़ न होती।
कुछ तो गुनाह बड़ा हुआ है मनुष्य से ऐ मेरे खुदा,
वरना इस दु:ख की घड़ी में अपने ही अपनों से यूँ दूर न होते।
खोया जिन्होंने अपनो को,
न ही दर्शन उनके अन्तिम हुए।
न अर्थी को अपनों का कांधा मिला,
न ही स्नान अन्तिम हुआ।
न खाके सपूर्त हुए कुछ,
न ही राख का मिट्टी में ही मिलन हुआ।
न जलाने को ही जगह मिली,
न ही शव ठीक से दफ़न हुआ।
ये कैसी लाचारी और बेवसी का मंजर हे! खुदा
कुछ तो गुनाह बड़ा हुआ है मनुष्य से ऐ मेरे खुदा,
वरना इंसानियत इस तरह मौन न होती।


लेखिका- शशिकला नेगी भंडारी
श्रीनगर गढ़वाल, उत्तराखंड


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