एक दो तीन ही नहीं कई मंजिलें
इमारतें है इस शहर में
खड़े हैं छाती तानकर
उनके दीवारों पर लिखा होता है
परिचय उनका बिल्कुल साफ साफ
अंग्रेजी के बड़े अक्षरों में।
कहीं से नहीं आती यहां
चीखने चिल्लाने की आवाजें
शायद वाहनों के तेज आवाजों ने
दबाकर रख दिया है उन्हें
कैसे लिखें पाएंगे शिकायत वे लोग
इंग्लिश मीडियम
की होती है सारी मंजिलें
झोपड़ी को को हिंदी का ह भी नहीं आता।
बहुत हाथ पैर मार कर भी
मौत से रोज अवकाश लेते हैं वे लोग
छन से जलते हुए पांव
वेदना ऐसे जैसे फुटता है कोई घाव
कहां है सरकारी योजनाएं गैर-सरकारी संगठन
एक बार फिर पुछने की हिम्मत जुटाई है
मैंने एक चित्र को विचित्र रुप में देखकर।
- आलोक रंजन
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